Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 05
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Whitiwwwwwwinnititivitwituting आगमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः चतुर्विंशं रत्नम् / णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स / पू. आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्री-आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / आगमोद्धारक-कृतिसन्दोहः / / तस्यायं जैन गीता-आगममहिमा-मुनिवसनसिद्धिकृतित्रयरूपः पञ्चमो विभागः / SmitrintinAnninindminintintmunintinninthininninininthinninininite: DImmmmmmmmmmmmunANAVAMunawwant . संशोधकः प० पू० गच्छाधिपति-आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागर सूरीश्वरशिष्यः शतावधानी मुनिलाभसागरः - प्रतय : 500 ] [ मूल्यम 2-00 पै. वीर संवत् 2490 - वि. संवत् 2020 - आ. सं. 15 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः चतुर्विंशं रत्नम् / 36 णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स / __ पू. आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्री-आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / आगमोद्धारक-कृतिसन्दोहः / तस्यायं जैनगीता-आगममहिमा-मुनिवसनसिद्धिकृतित्रयरूपः पञ्चमो विभागः / संशोधकः प० पू० गच्छाधिपति-आचार्य-श्रीमन्माणिक्यसागर- सूरीश्वरशिष्यः शतावधानी मुनिलाभसागरः प्रतय : 500 ] वीर संवत् 2490 [ मूल्यम् 2-00 पै. - वि. संवत् 2020 - आ. सं. 15 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199731 - प्रकाशक: आगमोद्धारक-ग्रन्थमालाना एक कार्यवाहक शा. रमणलाल जयचंद .. कपडवंज (जि. खेडा) ... परासागर सीकोलार निJir RILuck कोवा (गांधीनगर पि.३८२००७ मागायतीर PICTION नाराम द्रव्यसहायक: 500-00 पू. आगमोद्धारक-आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यरत्न गणिवर्यश्री चिदानन्दसागरजी महाराजना सदुपदेशथी मालेगाम जैनसंघ ज्ञानखाता तरफथी। मुद्रक : मंगळभाइ बहेरीभाइ पटेल मेनेजर सहकारी छापखानु वडोदरा लि. 2. रावपुरा, वडोदरा. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ng Jin Shasan 99731 nandir@kobatirth.org शुद्धिपत्रम् / पृ. पं. अशुद्धम् शुद्धम् पृ. पं. अशुद्धम् शुद्धम् 113 नाम नाम | 69 9 पृथक्त्वे न पृथक्त्वेन नाम 5 16 भबे भवे | 73 8 द्विकाब्दिका 7 6 वन्द्याः वन्द्या ,, 15 च्छवासो च्छ्वासो 11 5 सेवा, सेवाऽ 74 3 क्षयं चयं ,, 10 क्रियात क्रियाऽत 75 14 चारन् / चरन् 13 14 बुद्ध वुद्ध 78 20 परदा परदार 16 22 वार० . धार० 80 12 सविशेष स विशेष 17 18 च्चये न येन 81 1 सङ्गो 18 8 मापू मापु 82 7 सुभ: शुभ 29 13 प्युर्वो प्युर्वी 83 2 ग्रहित्वं ग्रहो 35 1 तद्देवे तदेवे 86 8 या 51 16 ततः तत 90 15 जनतानां जनानां 53 12 सा तं सातं 94 2 श्चत्य . श्चैत्य , 15 सुकुते . सुकृते ,, 13 वाड्मय वाङ्मय 57 2 वार्य वाद्धर्थ / 95 4 कलित कलितं 58 10 पेक्ष्या गुरु पेक्ष्याऽगुरु | 96 12 स घः / सर 60 3 वा- . वाः / 99 12 सत्वा सत्त्वा 63 12 मतान मता न | 103 3 पदाङ्कसू पदाङ्कम् 65 2 भाधा | 906 2 सधे सधे , 19 दाषिता दोषिता-| 111. 8 दशक द्देशक 66 1 ऽसु सु 112 1 यातेन याते न , 9 निवृत्ति निवृति | 112 18 स्यभा० स्वभा० 68 14 नोघ नौघ | 114 19 विगतः / विगीतः P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. पं. अशुद्धम् शुद्धम् | पृ. पं. अशुद्धम् शुद्धम् 115 3 दृशां दशां | 151 15 क्तो को 152 8 श्राद्धों / श्राद्धी 117 10 अधिकार अधिकार 153 16 न . सु 122 7 निजम् निजः | 157 6 त्रिंशत् स्त्रिंशत् 125 19 धरेयुः धरेयुः | 159 12 गमाना। गमानां 126 6 स्तीर्यन्त नीयन्त | 161 18 भवित्र्या भवित्र्याः , 10 पुगात् पूगात् | 166 2 भवति / भवति 128 10 मेकान्तिकं . | 178 4 घर्म मैकान्तिकं | 185 4 कायगा काय , 11 , , . 186 12 वधौः वधौ 131 5 यशसा यशसां 187 5 मुतो 132 18 यन्नात् यत्नात् | 189 17 देबे 133. 4 कुलिशाभ 194 7 स्थित स्थिति कुलिशोऽत्र | 208 6 प्राप्ती प्राप्तो , 15 प्रभव प्रभव , 10 मवा 135 2 विषभां विषमां | 213 5 श्रय श्रयं 136 3 शुद्ध शुद्धि | 231 4 शास्त्र 141 15 भावो, भावो 238 16 वधिक वधिक 150 5 रत्रा. रत्र युतो देवे भवा शास्त्रे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विषयानुक्रमः --- mm 9 101 . . अधिकारः पत्राङ्कम् अर्हद्वर्णनम् / सिद्धवर्णनम् / आचार्यवर्णनम् / 5 उपाध्यायवर्णनम् / साधुवर्णनम् / सम्यक्त्ववर्णनम् / ज्ञानवर्णनम् / . चारित्रवर्णनम् / 17 तपोवर्णनम् / जीववर्णनम् / अजीववर्णनम् / पुण्यवर्णनम् / पापवर्णनम / आश्रयवर्णनम् / संवरवर्णनम् / वन्धवर्णनम् / निर्जरावर्णनम् / मोक्षवर्णनम् / _ अधिकारः पत्राङ्कम् अहिंसावर्णनम् / . 61 सत्यवर्णनम् / अस्तेयवर्णनम् / 71 ब्रह्मचर्यवर्णनम् / अपरिग्रहवर्णनम् / जिनविम्बवर्णनम् / चैत्यवर्णनम् / ज्ञानवर्णनम् / श्रमणवर्णनम् / 111 श्रमणोवर्णनम् / 123 श्रावकवर्णनम् / 132 श्राविकावर्णनम् / , 144 देववर्णनम् / 154 साधुवर्णनम् / 158 धर्मवर्णनम् / 163 ज्ञानवर्णनम् / 168 सम्यक्त्ववर्णनम् / 174 चारित्रवर्णनम् / / 182 26 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / प्रकाशकीय-निवेदन / ..प० पू० गच्छाधिपति आचार्य श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराज आदि ठाणा वि. सं. 2010 ना वर्षे कपडवंज शहेरमां मीठाभाई गुलाबचंदना उपाश्रये चतुर्मास वीराज्या हता / आ अवसरे तेओश्रीना पवित्र आशीर्वादे आगमोद्धारक-ग्रन्थमालानी स्थापना थएली हती. आ ग्रन्थमालाए त्यारवाद प्रकाशनोनी ठीकठीक प्रगति करी छ / तेओश्रीनी पुण्यकृपाए आ 'आगमोद्धारककृतिसंदोह 'नो भाग 5 मो के जेमा 'जैनगीता', 'आगममहिमा' अने 'मुनिवसनसिद्धि' नामनी त्रण भव्य कृतिओ छे ते ग्रन्थने आगमोद्धारक ग्रन्थमालाना 24 मा रत्न तरीके प्रगट करतां अमने बहु हर्ष थाय छे. . आनी प्रेस कोपी तथा आनु संशोधन प० पू० गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजीनी पवित्र दृष्टि नीचे शतावधानी मुनिराजश्री लाभसागरजीए करेल छे. ते वदल तेओश्रीनी तेमज जेओए आना प्रकाशनमां द्रव्य तथा प्रति आपवानी सहाय करी छे. ते बधा महानुभावोनो आभार मानीए छीए / लि० प्रकाशक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स / पू० आगमोद्धारक-आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि-प्रणीता जैन गीता। / अध्यायः प्रथमः / ( अर्हदधिकारः) अर्हतो मनुते देवान् , दर्शयन्तश्चतुर्दश / स्वप्नान् गर्भावतारे ये, मलजम्बालवर्जिताः // 1 // जातमात्राः सुराद्रौ येऽभ्यसिञ्च्यन्त सुरेश्वरैः / न स्तन्यपाः सुरानीत-फलादा उचितक्रियाः // 2 // त्यक्तहिंसादिपाप्मानोऽकम्प्याः परिषहादिभिः / हत्वा घातीनि लब्ध्वाऽग्य, ज्ञानं सहायनिस्पृहाः / / 3 / / साधुसाध्व्यः श्राद्धश्राद्ध्यश्चतुर्धासङ्घसङ्ग्रहाः / . आद्यन्तयामयोर्नित्यं, योजनानुगदेशनाः // 4 // देशका द्विविधे धर्मे, जिननामप्रभावतः / चत्वारोऽतिशया जाते, सुरसाध्योनविंशतिः / / 5 / / कैवल्ये त्वेकादशैव, चतुस्त्रिंशत् सदाऽर्हताम् / / मायाविनो न तान् धर्तु-मीशास्तादृशरूपिणः / / 6 / / शक्रादिभिः कृतां पूजा, प्रातिहार्याष्टकैर्दधुः / अयोगितां गता मुक्ता, जन्ममृत्युरुजाऽन्तकैः // 7 // सिद्धि विना गतिर्नान्या, सदा कैवल्यचित्सुखाः / सर्वभक्षककालस्य, भक्षकाः स्थिरतान्विताः // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। न व्यक्तिपूज्यतावादा, न भक्ताधीनतत्पराः / ... गुणलभ्यपदोद्देशा, भव्योद्धारपथोद्धुराः // 9 // भक्तिर्गौणा गुणा मुख्या, येषां निर्मलशासने / सङ्घः पापपरावर्ती, सिद्धान्तः सिद्धिसाधकः // 10 // भावप्राप्यफलाऽऽलाफा, निग्रहाऽनुग्रहोज्झिताः / सर्वस्वातन्त्र्यमार्गस्य, यथार्ह, देशका भुवि // 11 // नायुधैर्न च क्रोधाद्यै-रमीषा दूषिताऽऽकृतिः / आत्माऽऽदर्शधरा मूर्ति-हेतुस्त्यागधियोऽमलः // 12 // यस्याऽऽज्ञाराधना मुक्ते-हेतुस्तद्गुणसंश्रया / भक्तिः श्रेष्ठतमा सानु-रागा त्यागे तदीयके // 13 // अमर्त्यमर्त्यसम्पत्त्योः , श्वभ्रितिर्यग्गताऽऽपदाम् / विधातृत्वेन लोकानां, न मृषावञ्चनापराः / / 14 / / जगद्विधानस्थैर्यान्तै- पका न भवाङ्गिनाम् / यथाकर्म फलं प्राहु-रङ्गिनां हितकामुकाः // 15 // एवंविधान् विविधभावमयाञ्जिनेशान् , मन्येत यो विहितदानदयोद्यमश्च / हित्वाऽपरान् कुपथगामिन आप्तिवन्ध्यान , जैनः स एव. ननु मुक्तिपदप्रधानः / // 16 // .... ... इति प्रथमोऽध्यायः P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। / द्वितीयोऽध्यायः / (सिद्धाधिकारः ) सिद्धान् सिद्धगुणान् समग्रजगतः प्रान्तस्थितान् सादिमाञ् शश्वतस्थानगतान् निहत्य निखिलान् संसारपातप्रदान् / . मूलात् कर्मचयान्निजात्मगुणतो लब्ध्वाऽमितां सम्पदं, . दृष्टान्तैकभुवः शिवाध्ववहने वन्देत देवत्वधीः // 1 // समस्तजीवा अमितादिकाला-निगोदवासे व्यवहारवर्जिते / कश्चित्ततो याति यदानुकूला, सलोकभावा भवितव्यताऽऽत्मनः // 2 // भूम्यादिभावान् पृथगोत्मसंस्थान्, प्राप्तो भवेत् स व्यवहारभाक् स्यात् / तत्राऽप्यनन्तान् परिवर्तकालान् , बालो भवेत् क्षुद्रभवाभिनन्दी // 3 // पुण्यादिहेतुष्वपि कालहेतोः, प्रधानभावाचरमं स यायात् / ' आवर्त्तमङ्गी शिवधामसङ्ग, तदेव नान्यत्र पुनः स्पृहेत // 4 // स्वतोऽन्यतो वा यदि भव्यभावः, पक्को भवेन्मार्गमनुश्रयन् यः / सदन्धवृत्तेरनुकारभावं, भवेत् परं मोहमबन्धयन् सः // 5 // सदागमाऽऽश्लिष्टमनःप्रबन्धो, मान्याञ्जिनादीन् मनुते प्रसन्नः।। प्रशंसको नैव भवाश्रितानां, विरक्तचित्तो भवभावभीतेः // 6 // जिनेश्वराज्ञामविदन् श्रयेत स, सेवेत देवान् सुगुरून सुधर्मान् / / भ्रष्टोऽप्यरण्ये ननु याति मार्ग, सुदेशकोक्तेः शुभभाविजीवनः // 7 // मागोन्मुखः सन्मतिरुज्झिताघो, यदाऽर्धमावर्त्तमशोपयत् सः। वनोपमाऽपूर्वमपूर्वमाप्य, ग्रन्थि विभिन्द्यात् खलु पापराशेः / / 8 / / विद्धं यथा मौक्तिकमेत्य पकं, नाविद्धमेवं क्षतपापराशिः / कदापि नेहम् भविता निगोदं, गतोऽपि भेदस्य परात् प्रभावात् / / 9 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। विभिद्य मिथ्यात्वमनन्तमूलं, द्वितीयभावेन भवेत्तृतीये / सम्यक्त्वसम्पत्तिसहो लभेता-ऽऽस्तिक्यादियुक्तं हि गुणे तुरीये।। // जीवादिमर्थ मनुते कथञ्चि-दस्तित्वनित्यत्वगुणं प्रमेयम् / / तथैव कर्ताऽनुभवी भवाब्धौ, स्वकर्मणां सद्व्यवहारदृष्टया // 11 / / भव्यत्वपाके शिवसाधनानि, सद्दर्शनज्ञानयमानुपैति / / समग्रकर्मक्षयजातशुद्धि-निर्वाणमेति प्रगुणाऽऽत्मभावः // 12 // आस्तिक्यमेष्वेत्य द्विधा दयायां, प्रवृत्तवीर्यो भवभावभीरुः / ' सनातने घाम्नि सदा रतः स, कषायवान्नैव जिनादितत्त्वे // 13 // महाव्रताकाङ्क्ष उदग्रवीर्या-भावाद् भवेत् कोऽपि गृहिव्रतोत्कः / अभ्यस्तशिक्षः श्रमणत्वमेति, विहाय हिंसादिभवाऽऽश्रवान् सः॥१४॥ मोहक्षयायोद्यत आप्तवीर्य-श्रेण्या समस्तं विनिकाष्य मोहम् / स केवलीभूय सयोगभावो, जिनोऽपि कश्चिद् भवतीह जीवः // 15 // तीर्थ विधायैति स.चापलेश्य-मयोगमेषोऽपि लभेत. सिद्धिम् / . भेदा यतः पञ्चदश प्रसिद्धा, अनन्तरं सिद्धिपदं गतेषु // 16 // एवं दुर्दान्तकर्मक्षपणकविधया लब्धसिद्धस्वभावा, नोच्छिन्ना ज्ञानशून्या न च, भवजनना निग्रहानुग्रहाकाः / . शश्वत्स्थानस्थिताश्चित्सुखततिकलिता भव्यजीवावलम्बा, ये सिद्धास्तान् सदा यो मनुत उदययुग् देवभावेन जैनः // 16 / / इति द्वितीयोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। / तृतीयोऽध्यायः / (आचार्याधिकारः ) वन्देताऽऽचार्यवर्यान् सुगुरुपदपरान् मोक्षमार्णैकलीनांस्तीर्थशैस्तुल्यरूपान् प्रवचनशकटोद्वाहकान् गच्छनाथान् / सूत्रार्थादेशकर्तृन् प्रवरपटुमतीन् वादिवादेकतानान् , . नित्यं तीर्थस्य सारां विदधत उदयाकाक्षुकान् यः स जैनः // 1 // गते तीर्थनाथे समस्तज्ञसार्थ, शिवं यो वहेत् तीर्थभारं नितान्तम् / यथाऽस्तंगते वासरेशे निशेशे, प्रदीपो जगत्यां पदार्थप्रभासी // 2 // जिना जीवितान्तं : वहन्त्येव तीर्थं, सुतीर्थं तथाप्येत इहोदिता नो / - अघोद्घातकास्तीर्थरूपा मुनीशा, मताः शासनं यावदेते तदीशाः / / 3 / / जिनेशैः शिवाध्वा समस्ताङ्गिसाम्ने, सभायाः पुरः स्थापितो दोपमुक्तः / . मुनीनां शुचिश्रावकाणां परं तं, सदा सूरिवर्या वहन्ते प्रकामम् // 4 // कृतार्थों यथा सार्थवाहो जनानां, सुतप्त्याऽध्वनि प्राप्तविबाधनानाम् / तथा सूरिवर्याः सुदृष्टिप्रधानान् , निवार्याऽऽपदो मोक्षमार्ग नयन्ति / / 5 / / यथा तीर्थनाथान् समाराध्य सद्-गवश्यं भवे तीर्थनाथस्तृतीये / तथा सूरिवर्यान् समाराध्य जन्तु-स्तृतीये भवे तीर्थनाथत्वभाक् स्यात् / / जिनेशा भवेयुर्यथाऽऽशातिता द्राग् , भवानन्त्यमिथ्यात्वदानैकदक्षाः / मुनीशास्तथैवेत्यवजानते नो, जिनेनाध्वमन्तार इहाऽमलाभाः // 7|| परं सूत्रमल्पं यदाऽसौ विलुम्पेद्, भवानन्त्यमेतीह हित्वा सुदृष्टिम् / यदा तु प्रकाशेत सम्यक्तया तत् , स शास्त्रेण गीतः सुसूरिर्वरिष्ठः // 8 // सुदीक्षां समस्तैन उद्घातदक्षां, गृहीत्वा गुरोः पापही सुशिक्षाम् / समभ्यस्य सूत्रार्थयुग्मं समेत्य, ह्यपस्थापनां सव्रतयापनी प्राग् / / 9 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। द्वादशाब्दी गुरूपास्ते-रधीत्याऽऽगमसञ्चयम् / कालं तावन्तमेवार्थं, भवेत् स्त्रार्थयुग्मवित् // 10 // विहारयेत् सूरिवरस्तमार्ण्य, साधोयुगं देशविदेशभागम् / मुण्डेत् प्रतीच्छेच्च बहून् मुनीन् स, _ विद्याच्च भाषां विविधां जनानाम् / / 11 / / जिनेशजन्मवतकेवलान्त-कृद्भूमिमेक्ष्याऽमलदर्शनाढ्यः / ज्ञात्वा पदार्ह मुनिनाथवर्याः, पदेऽभिसिञ्चन्ति सहानगारैः // 12 // सबालवृद्धे गण ईश एष, द्रव्यैर्गुणैः सत्परिवर्त्तनैः सह / , पाल्येत तेनापि जिनानुकारं, तोष्येत तेनार्थपदानि दत्त्वा / / 13 / / सूरीन्द्रपट्टस्य यथावदाहतौ, भवेजिनः सज्जनुषां तृतीये / पश्चाऽतिशेषा मुनिसार्थपेऽस्मिन् , स्वप्नेऽपि नेमेऽन्यमुनीश्वराणाम्॥१४॥ आत्मर्णमोक्षं परिवाचयन् गणं, यथा विधत्ते सुगुणांस्तु शिष्यान् / निष्पाद्य पट्टे प्रतिभासमानान् , विधाय कार्योऽन्तगतः समाधिः।।१५।। एवंविधान् गणधरान् विविधप्रकृत्या, भक्त्या समर्थ्य गुणगाननिबद्धलक्षः / आज्ञाधरो भवति दासनिकृष्टरूपो, जैनः स एव जिनशास्त्रधरैः प्रगीतः // 16 // इति तृतीयोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। / चतुर्थोऽध्यायः / ( उपाध्यायाधिकारः) नमेदुपाध्यायपदान्वितान् गुरू-नाचार्यपट्टस्य यदहरूपाः / कचिद् द्वये भिन्नतमाः कचिन्नो, पदद्वयं धारयतेऽपि कश्चित् ||1|| गच्छम्य तप्ति निखिलां विदध्यु-राचार्यनियुक्तिधरा यतोऽमी / प्रवर्तकं सस्थविरं गणाव-च्छेदं गणिं चापि नियोजयन्ति // 2 / / वन्द्याः मुनीन्द्रा इव साधुवर्यैः-पर्यायतः स्युर्यदि वा विहीनाः / पञ्चातिशेषा अपि सन्त्यमीषां, गणेशवत् सर्वकरा गणस्य // 3 // स्थाप्येत संस्था कुशलैषिणा विदा, साध्यं च तस्या रुचिकृन्नराणाम् / ख्याप्येत वित्तं न तथापि तस्याः, फलं तकच्चालनमन्तरेण // 4 // सञ्चालकानां मतिवाक्रियाणां, सौन्दर्यसिद्धया फलमाप्यतेऽस्याः / अशिक्षिताभ्यस्तकला न तस्याः, फलं लभेयुः स्पृहयालवोऽपि // 5 // छात्रा यथा साधुवरा जिनेशा-श्रितेऽत्र धर्मे वरवाचकास्ते / सूत्रं क्रियायुक्तमुदारभावाः, सदार्पयन्तीष्टफलाय तानिव // 6 // नृपा यथा कोशसमृद्धभावा, भ्राजन्त आत्माऽन्यविभासनोद्यताः / . अङ्गादिसूत्रासमरत्नधारी, जैनाऽन्यविज्ञेषु स वाचकः स्यात् // 7 // विद्याविनीतः सततं स्वविद्यां. विना प्रमादं परिशीलते यः / स्वाध्यायलीनो गतमत्तभावः, स्वध्येत्यसौ वाचक आगमेषु // 8 // 'दुःखानि सौख्येन युतानि विज्ञ, आख्याय सुस्थो भवतीह तद्वद् - मुनीश्वरेभ्यो जिनशास्त्रसङ्घ, समर्प्य तुष्टिवरवाचकस्य // 9 // एकादशाऽऽचारमुखान्युपाङ्गौ-पपातिकादीनि दश द्वये च / पट्छेदसूत्री दश कीर्णकानि, मूलं चतुष्कं धरतीद्धबुद्धिः / / 10 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / / राष्ट्रस्त्र भारमखिलं प्रजयाऽऽयतीक्षो-. ऽमात्यो यथा वहति भूतिकरो नृपाणाम् / श्रीवाचकेन्द्रवितताखिलगच्छसारः, सच्छासनेन जयमेति मुनीशवर्यः // 11 // रत्नानि राजकुललब्धमहांसि जातेः, शस्यानि ते यदि भवन्ति गुणान्वितानि / जीवादिसार्थवहनानि पदानि सन्ति, श्रीवाचकान्तिक उदारतराणि सूत्रैः / // 12 // . सूत्रानुयोगकृतिपु प्रवराः पतन्ति, पादेषु विघ्नविजयाय कृतज्ञतायै / बुद्धा जिनेश्वरमुनीश्वरसङ्गतेपु, वंशस्य वाचकततेरपि शुद्धि (. शास्त्र ) सिद्धथै // 13 // अनुयोगधराः परमेष्ठिपदे, विधिसिद्धपदान् प्रणमन्ति मुदा, अनुयोग इहास्ति जिनेशततो, वरिवर्तति दक्षिणतो भरते / अनुयोग इह गुरुस्कन्दिलसन्मुनिपान्तिपदा समसूत्रगतः, नागार्जुनसूरिवरेण ततो नमति श्रद्धाबलिकः सुजनः / / 14 / / शुभवाचकवंशगता मुनिपा, विदिता जगति स्वाति (सूरि) प्रमुखाः, वरनन्दिकरोऽपि च नन्दिकरो, वरवाचकदेव इहैव मतः / आवश्यकमादिमतं मुनिपै-रुद्देशमुखत्रितये क्रमतो, नन्दिः पुनरध्ययनीयपदं, सकलेऽप्यनुयोगविधौ यमिनाम् / / 15 / / यथा मुनीशः सकलेऽपि शास्त्रे, बिभर्ति मुख्यत्वममानमाप्तितः / तथैव मुख्याः खलु वाचकेन्द्रा-स्ततो भवेज्जैनवरो नतस्तान् // 16 / / इति चतुर्थोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता 3 पञ्चमोऽध्यायः / (साध्वधिकारः) वन्देत साधुगणमुत्तमसत्त्ववन्तं, तातं प्रसूं सहजनि ललनां तनूजम् / राष्ट्र सुराज्यममितोत्सववृद्धिहेतुं ज्ञातेयमर्थनिचयं च जहौ स धीरः // भ्रान्तिं भवेषु जननान्तकभारभुग्नां, निःसत्त्वसारशरणामनिवार्यरूपाम् / ज्ञात्वा शरण्यमरुहत्कथितं सुधर्म, पापं समग्रमधमं परिहत्य दधे . पा२।। सम्यक्त्वबोधचरणानि शिवैकहेतोः, सावद्ययोगविरमेण युतानि धृत्वा / सावद्ययोगविरतात् सुगुरोश्च याव- ज्जीवं बभार नवधा शिवसाधनेच्छुः // 3 // अर्थोपार्जनमुज्झितं विरतितो, मूर्छापदात सोऽस्तिमाँस्त्यक्तः पापपरायणैकमहितो रौद्रार्त्तचित्तोद्धरः / जायन्तेऽघचया, विलीनमयते धर्मस्य चेस्यात्कणः, सङ्गात्तत्प्रविबुद्धय शान्तमनसाऽसङ्गोऽभवज्ज्ञानवान् // 4 // सम्मूच्छिमाऽमितमनुष्यविनाशहेतुः, पञ्चाक्षगर्भजनरा नवलक्षमानाः / हन्यन्त उद्यतनरैमिथुनेऽत्र तस्मात् , तत्याज योषिदयनं सकलाघशान्त्यै ... // 5 // ग्राणा धनं व्यवहृतौ नियतोद्यमानां, .... . सोढुं न शक्यमपहारहृतं तु तद्धि / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7i जैनगीता। मत्वेत्यसौ परिहरेद् ग्रहधारणाह, सर्व नदत्त ,( ह्यदत्त ) मपि वस्तु समस्तयोगैः // 6 // भूतादिनिद्रवमुखं विजहात्यसत्यं, संसारसागरमनन्तमुपेत्यमुष्मात् / पापप्रधानमखिलाऽऽगमनिन्द्यरूपं, नैवाद्रियेत शिवसौख्यमनाः कदापि सर्वाण्यघानि कणशोऽपहृतौ पटूनि, वार्याणि सम्प्रतिकराणि विशुद्धमन्ति / मुक्त्वैकमाग उदितं जनुषां विनाशे, तत्याज तत् परवधं त्रिविधं त्रिधा यः (ऽसौ) |8|| हिंसादीनां यमोऽसौ प्रतिकलमुदयी मातृष्वष्टासु चेत् स्याद्रक्ष्यास्ता नैव यामाशनकमनवता ध्यानपाठौ भवेताम् / नैवैवं सर्वसङ्घ प्रतिदिनमविता सुष्टुवानुवर्ती, . यावज्जीवं च शुद्धं प्रतिवहति महद्याममाप्तुं शिवं सः.. // 9 // सुकराणि भवेयुरिमानि जने, श्रुतवाक्यमनुश्रयतां सुधिया / व्रतपट्कतया गदितानि बुधै-यदि रक्षति जीव (भिदा षट्कं) चयान् सततम् // 10 निखिलवतिनां हृदयं ह्यवने-ऽसुमता प्रतिपत्तिरिहाप्तिमताम् / नहि शक्यत एतदनक्षजये, विरतो यतिसार्थ इतोऽक्षजये // 11 // न बुधोऽलसयोगयुतोऽध्ययनी, न विरुद्धसमागमहेतुधरः / श्रमणत्वमनुत्तममायतते, तदकल्प्यमसौ विजहाति सदा // 12 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। स्वयं साधनं चेन्न शुद्धं दधाति, परो हिंसनादि प्रकुर्यात्तदर्थम् / / स्वकीयेतरे नास्ति भेदो वधे(धं)त-दगार्यासनादि व्रती त्यक्तुमर्हः।।१३।। भवेद्यद् व्रतानां मुनीनां च यत्ना-द्धृतं वस्त्रपात्राद्यनुग्राहकं तत् / धरेन्नैव हिंसापरीहारहेतोः, पल्यङ्कमुख्यं मुनिराट् तु किञ्चित् / / 14 / / वह्वेर्यथाऽगारवतां तु सेवा, सुखाप्तये तद्वदगारिनिश्रा / मत्वेति नैवावसनं गृहेषु, चरेद्यतिर्मोक्षसुखाप्तिहृत्सु // 15 // साधनं यदपि नाप्यते बहिः, पापकृन्मुनिपर्दकचारिते / अन्तरं करोति पापसङ्गमं, साधनं त्यजेत्तनोर्विदन् वृषम् // 16 // विपाकतोऽघसन्ततेर्निवर्त्ततेऽघसाधनात, शरीरसंस्क्रियात एनसां पदं विनिश्चयात् / विदन्निति स्वकर्मभेदमर्मवेदनो मुनिरकर्म सन्दधाति सत्सु संयमाध्वयापनम् // 17 // एवंविधान् मुनिवरानशनाम्बुवस्त्रपात्रोषधादि विधिना प्रतिलम्भयन् सः / .. देवार्चनादिनिरतः परमेष्ठिसक्तः, स्याज्जैन एव करुणानिधिराप्तमार्गः // 18 // ... .इति पञ्चमोऽध्यायः / / षष्ठोऽध्यायः / (दर्शनाधिकारः) महिता देवा ध्याताः सिद्धा यतीश उपासिता, विहिताः सेवा वाचकपदयोर्मुनीशपदोचिताः। . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। // 2 // // 317 मुक्तेरिच्छा चेन्न स्वान्तेऽखिलं मृतमण्डन, विदिताऽस्यान्तः सत्सम्यक्त्वः सुजैन उदीरितः आगमवाचो यस्य श्रोत्रैः श्रुत्वा शिवकामना, स्यादुत्कृष्टा भवभयभीतिर्हृदीष्टपदाप्तये / / साधनमस्या गुरुकुलसेवाविधित्सया वर्तनं, . विघ्नापेतं विज्ञोपचितं देवार्चनमादृतम् पक्व भावे भव्यत्वस्याऽसमे सुखदायिनि, भित्त्वा ग्रन्थि कश्चिल्लभते भवी शुभभावनः / यल्लब्ध्वा स्यात् परिमितभूतिर्नरः शिववम॑गः , पतितं न स्यात् सत्सम्यक्त्वं कदापि निरन्वयम् मत्तो विज्ञो मूखैः सदृग् योगत्रिककार्यतोऽपगते विमदे विज्ञो विज्ञो न वै जडतान्वितः / भ्रष्टो दृष्टेः कालमनन्तं निगोदमुपाश्नुते, प्राप्ते भावे सत्सम्यक्त्वं ध्रुवं धरतीप्सितम् वर्त्मभ्रष्टः सद्भाग्यः स्याच्छुभेऽध्वनि विश्वसी, देशकवाण्या इतरस्त्वितरे न चाद्भुतमत्र हि / सम्यक्त्वी स्याज्जिनमार्गोक्तौ न परत्र कदापि हि, विश्रम्भोत्को नित्यं मिथ्यामतिः पुनरत्र न लब्ध्वाप्येतद्योगात् कुगुरोः श्रद्धाधनवञ्चितः, अज्ञानाद्वा हीनः स्याद्वाऽन्यथाऽनृतबोधताम् / वेषं धर्म जैनाचीण चरन्नपि धिक्कृतो, हेयः सुधिया मार्गे विघ्नैः समो जिनधर्मिभिः // 4IR // 6 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। योऽष्टादशभिर्दो पैर्युक्ता अबोधसमैः पुनः, स्त्रीशस्त्रायुक्तां मुद्रां धरन्ति भवप्रदाम् / नैते देवाः सार्थारम्भा न चापि गुरोः पदे, . हिंसाद्यात्मा धमों नैवाश्रिते दृशमुज्वलाम् // 7 // स्यात् सम्यक्त्वं पञ्चविभेदं मुखे ह्युपशान्तिजं, घटिकायुग्मं सप्तप्रकृतीविनाश्य परं पुनः / क्षायिकमितरन्मिभं मिश्रात् षडावलिकाः परं, सास्वादं स्याद् वेदकमन्ते मिश्रात् परमीरितम् // 8 // जैनं वचनं श्रद्धत्ते यद् विशेषविवर्जितं, गतमिथ्यात्वः स्याद् द्रव्येण सम्यक्त्वयुतोऽसुमान् / द्वारैः सर्वैः सत्त्वादीनां मन्ता दृढभावतो, भावात्तस्य स्यात् सम्यक्त्वं कदाग्रहनिर्गतः // 9 // प्रत्यक्षं तत्सम्यक्त्वं स्यादतीन्द्रियवेदिनो, . लक्ष्यं बुद्धरास्तिकाद्यैः स्वमात्मरतीप्सितम् / जीवेऽन्यस्मिन् शुश्रूपाद्यैः प्रमीयत आदरात् , नैवं धर्माधर्माख्यानं भवाभववेदिनः // 10 // पष्टया युक्तैः सप्तभिरंशैः सदा श्रुतिहेतुकं, निश्चयपक्षेऽदः सर्वैः स्याद्युतं प्रशमादिभिः / चिह्नरिद्वैः पक्षेऽन्यस्मिन् युतं विकलैरपि, प्राप्ते तस्मिन् स्याद्यामानां कृतिस्तूचिता सताम् // 11 // नान्ये धर्माः षोढा जीवान् कदापि तु मन्वते हिंसा तेषां तीर्थ युक्ता स्थिरेतरजीवगा / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. - Jun Gun Aaradhak Trust Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। तत्तस्मिन् स्याद्धिंसानियमो न वै परमार्थतः, सत्याद्यान्यप्येवं तेषां ततो व्रतमार्हतम् . . // 12 / / जीवाजीवौ विश्वे सत्तां सदा धरतोऽन्वयात, हेया ग्राह्याः के केऽत्रेति प्रधारणसंविदि / तत्त्वानि स्युः सप्तेत्यत्र प्रसाधनबाधने, पुण्यापुण्ये क्षिप्ते मान्यान्युदाहरतो नवी // 13 // एतद्यो धरतेऽसुमान् दृढमतिः स्वप्नेऽपि नान्यान् सुरान् , 'धर्मास्तद्वत आदरेण मनुते संसारगांगतान् / सर्वत्रेक्षत ईप्सितार्पणकरं जैनेन्द्रधर्मादरं, सोऽवश्यं शिवमश्नुतेऽत्र यदि वा जन्मान्तरे निश्चितम् / / 14 // अनन्तशो ग्रैव्यभवानऽवाप, महाव्रतानां धरणप्रभावात् / . न प्राप पारं यदसौ स एव, लब्ध्वाऽद एतीह प्रभावतोऽस्य / / 15 / / लोके यथाऽऽश्वासपदं हितेच्छा, मुमुक्षता धर्मधरे तथैव / सम्यक्त्वरूपा निरघा न चेत् सा, सर्वोऽपि धर्मो लवणाम्बुसेकः।।१६।। एतल्लब्ध्वा वमति यदपि प्राप्नुते मोक्षमाशु, वीजं क्षेत्रे फलति रुचिरे योग्यकालेन सम्यक / सामग्ां तु प्रभवति न फलं वीजशून्यं हि जातु, ज्ञात्वैतत् स्याज्जिनवचनरतो यः स जैनो न चान्यः // 17|| / इति षष्ठोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 1 // / जैनगीता। / सप्तमोऽध्यायः / (ज्ञानाधिकारः) ज्ञानं स्वरूपममलं मनुतेऽत्र जैनस्तेजो रवेद्युतिरिवात्रिहगुद्भूतस्य / सर्वात्मनामधिकृतिः सकलज्ञभावे, स्यात् तत् स्वकीयवृजिनक्षयमानमात्रम् दीपो यथा प्रकटयेत् स्वकमर्थसाथ, स्वार्थावभासनसहो निखिलो हि बोधः / प्रामाण्यधाम परथा विगुणोत्थबाधो, हेतून् मनन्ति मुनयोऽस्य हुपीकमुख्यान् अन्त्यं त्रयं न धरतेऽक्षमनःसहाय, प्रत्यक्षरूपमवधिप्रमुखं तु तत्त्वात् / इन्द्रियसार्थविषयोद्भवमाद्ययुग्मं, न्यक्षं मतिः श्रुतमपीह परोक्षमस्मात् कालादनादित इहासुमतां तु सत्ता, सा सम्भवेत् सुनियताऽव्यवहारराशौ / / नित्यं द्वयं भवति हीनतरं परं च, नो सम्भवेदवमताप्रभवो हि तत्र वोधस्य लेश उदितो यदनावृतः स, तस्यावृती भवति जीव उदस्तभावः / स स्पर्शनं यत इदं तनुसत्त्वसाध्यं, संसारिणो नहि भवन्ति शरीरशून्याः // 3 // // 4 // // 5 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। एकाक्षतामधिगतः पृथिवीमुखेपु, भ्राम्यन् प्रकर्षमयते तनुजातबुद्धेः / / जिह्वादिजातमयतेऽथ विबोधभावं, प्राप्य प्रकर्षनियतं विकलाक्षभावम् // 6 // क्रमोऽयमुत्क्रान्तिगतोऽसुमत्सु, ततो मतेर्भित्सु मतोऽयमुत्क्रमः / सञी मनोलब्धिमुपाश्रितोऽभैः, स्वैः पञ्चभिर्युक्त उदित्वरः स्यात् / / स्वबुद्धबोधाय परैः प्रयुक्ता, वाणी पदार्थव्यवहारहेतोः / श्रुतं ततस्तत्त्वत ईरितं वरं, शिवादिबुद्धथै भविनां जिनेन // 8 // ज्ञात्वा तदुक्तं परमार्थबुद्धं, तीर्थ्याः परे तत् स्वकशासने जगुः / / अज्ञानवन्तोऽप्यनुकारदक्षा-स्तल्लौकिकं गोचरतीतरूपम् // 9|| लब्धे द्वयेऽस्मिन् सुगुणे भवेद्धि, त्रयं समक्षं न विना कदापि / त्रयं ह्यवध्यादि क्रमाद्धि लभ्यं, न केवलादस्ति परो हि वोधः // 10 // अरूपिबोधान्न परोऽस्ति बोधो, द्रव्याध्वकालाः सहिताः स्वभावैः / ज्ञात्वा समस्तान् प्रतिवोधयोग्या-नाख्यन् गणिभ्यः श्रुतमुक्तमहम्।।११।। श्रोता(त्रा)नुगुण्येन विभक्तमाईते-ढूयं प्रमाणं तु पुरा समूहितम् / / मत्यादि पूज्यैः परवोधधर्मे-यथैव बुध्येत तथैव वाच्यम् // 12 // ज्ञप्तिर्विमुक्तेषु न युक्रियाभि-नित्यरूपेण तदेव तेषाम् / फलं ह्युपेक्षा भवकेवलानां, मत्यादिवोधेषु फलं ग्रहादि // 13 // जीवादितत्त्वार्थमतिः प्रशस्या, हानाऽऽत्त्युपेक्षाभिरयेत् प्रबोधम् / यतः प्रवृत्तो दुरितं न बध्याद्, यतो भवेत् साधुमतेरसूनाम् / / 14 / / अङ्गोपाङ्गादिरूपं बहुविधमुदितं सच्छ्रतं श्रीजिनायेस्तीर्थस्यावारभूतं श्रुतधर उदितस्तीर्थरूपो हि शास्त्रम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। 17 आचारेषु स्थितात्मा विधिवदवगतिं धत्त ईष्टेऽप्यनिष्टे, मा तस्योक्तेयत्कृतिर्या भवति जगति वै सा तु मिथ्यात्वरूपा।।१५।। आचार्यादिपदावली गुणवतां देयेति शास्त्रोदितिः, सर्वत्राऽपि गुणेषु तत्र गदिता काष्ठा त्वपावादिनी / सा नैवात्र परं श्रुतार्थधरणे, साऽऽवश्यकी धारणा, ज्ञात्वैतत परमार्थशास्त्रविनयी जैनो भवेत् सर्वदा // 16 // इति सप्तमोऽध्यायः / / अष्टमोऽध्यायः / (चारित्राधिकारः ) जैनः स्यात् पापभीरुस्तत इह भनुते पापमुक्तान् मुनीशान्, यो यत्र प्राप्तमोदो भवति गुणपरेऽसौ ह्यवश्यं परं तत् / .. लव्धेतिज्ञातशास्त्रो गुणकणरहितोऽप्यर्चतीष्टान् ‘मुनीन्द्रान्, . शास्त्रे जैनेऽत्र तस्मादघततिविरता माननीयाः परेशाः // 1 // अनादितोऽसुमानयं . चिनोति कर्मसन्तति, शुभाशुभप्रयोगतोऽव्रताच सर्वदा भवे / .. विबुध्य तद्विरामभावसाधनां श्रियः पदं, .. श्रयेन्मुनिश्चरित्रभाक् शिवाप्तिसाध्यचेतनः // 2 // चारित्रं हि तदेव यत् परिहरेदष्टाः क्रियाः सर्वथा, शिष्टा योगसमुच्चये न वृणुते या याः क्रियास्ताः सदा / . . . रुद्ध्या त्वाश्रवद्वारसञ्चयमसौ सन्निर्जरायुग् व्रती, स्यात्तीव्रोदामदान्तमानसरुचिः तद्वान् श्रियै स्वान्ययोः // 3 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 जैनगीता। चारित्रमादृत्य जिनाः समस्ता, उपार्जयामासुरुदग्ररूपम् / सत्केवलं, तीर्थनिवर्त्तनां तत-श्चक्रुस्तथैवाहतमुक्तिभावाः // 4 // मुक्तेहि मार्गः प्रवरं चरित्रं, स्वलिङ्गमेतद्धि शिवाङ्गमग्यम् / जिना न गृह्यन्यदशास्ततः स्व-लिङ्गेन सिद्धिः समुत्सर्गमार्गः ||5|| पथि स्खलन्तं वरसेवीशं, दृष्ट्वा न चक्रे स्खलनानि कश्चित् / न यत् स मार्गो निधिलामसिद्धे-स्तथैव गृह्यन्यदशे विमुक्तेः / / 6 / / . पापेभ्यो विरता भवन्ति पशवः सङ्ख्यामतीताः परं, सर्वेभ्यो न परां चरित्रपदवीमापूर्यतस्तत्र नो / इच्छाकारमुखा शुभानुगदिता शास्त्रे यतीनां सदा, सामाचार्युपपादनं नरभवे तस्या भवेनिश्चितम् // 7 // यत् प्रोच्यते जिनवरैर्गदितेऽत्र शास्त्रे, सच्छासनं प्रवचनं च सुधावहाभम् / चारित्रमेव न परं जिनपाः समांस्तद्, रक्तान् विधित्सव इदं पदमाप्नुवन्ति ईर्याद्या विबुधैर्मताः प्रवचने या मातरोऽष्टौ तकाश्चारित्रं जनयन्ति पोषणमलङ्कर्वन्ति तद्गोचरम् / जातं पुष्टमभिश्रयन्ति चरणं ताः सर्वदा पालनां. मातं सच्चरणं तदत्र गर्दिताः सत्यात्तका मातरः // 9|| पापाश्रयाणां विरतेश्चरित्रं, भवेद्यदि स्यादपयोगवृत्तिः / / समुद्रवर्ती चरणी हि तिर्यक, तद्वान्न कायादिमतां सुवृत्तेः // 10 // ज्ञानं सज्ज्ञानरूपं विरतियुतमलं नान्यथा तेन युक्ता, मिथ्यात्वेऽज्ञानमात्रा सदसदुभयगा नेह बुद्धिश्च भोगात्। 1 // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। ज्ञानस्याप्तैः सदेदं फलमभिलषितं सच्चरित्रं नराणा, ज्ञात्वेदं मा भवन्तु प्रवरगुणधराः सच्चरित्रेण हीनाः // 113 / श्रामण्यपर्यायमधिश्रिता या, सुखासिकोक्ता परिवर्धमाना। मासक्रमेणोपरता तु वर्षात्, तकां न बोधैकरतोऽश्नुते वै // 12 // ज्ञानं तु दर्शनयुतं त्रितये गतीनां, नैवास्ति तत्र परमं पदमिद्धरूपम् / मानुष्यके नियतमेतदवाप्यते तन्नोनश्चरित्रमहिमा जिनमार्गसारः // 13 // यद्यपि संवरभेदतयेदं, चरणं गदितं तदपि तपस्तत् / अधिसहनं तत्प्रतिपदमत्र, केवलमेव न तद् विरतिर्नु // 14 // गोत्रं नीचमपैति यच्चरणतो बन्धो भवेदुच्चकैः, प्राप्तौ तस्य गतोपमं जनततेर्मान्यत्वमभ्यागतम् / रकोऽप्यस्य यदादरात्तुलयति स्वं चक्रिणा सन्ततं, गोत्रं प्राक्तनमर्थकृन्न हि भवेच्चारित्रलक्ष्म्यावृते // 15 // तीर्थस्यातुल एष उर्जिततरो गीतः प्रभावोऽसमो, यत्सर्वोऽप्यधिकारवाञ्जिनपदेऽस्याऽऽराधनायाः स्फुटम् / / एषोऽहं जिनतामवाप रुचिरां तन्मे नतिस्तत्प्रति, तीर्थं तच्चरणान्वितो मुनिगणः शेषास्तमेवाश्रिताः // 16 // लोकानुभावजनितं चरणे महत्त्वं, ज्ञानं चतुर्थमुपयाति विना न यत्तन् / लोकेश्वरा अपि लभन्त उपेत्य चारु, वत्चत्समाचरतु जैनवरः सदा तत् // 17 // इति अष्टमोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। / नवमोऽध्यायः / ( तपोऽधिकारः) .. ज्ञाता जीवा अजीवाः परिहृत उदितस्त्वाश्रवाणां समूहः, साधित्वा संवरांस्तं नवतरमरुणद् बन्धमार्हन्त्यलीनः / यावन्मोक्षं प्रयातुं हृदयमभिसरत्यन्तरा कर्मजालं, प्राग्बद्ध विद्रवेन्मां न खलु मयि तपस्तत्क्षयाहँ यदि स्यात् // 1 // जीवोऽस्ति नैव, नहि यः क्षपयेदघानि, कर्माणवो यदुदयं सततं प्रयान्ति / . निर्जीयतेऽघमुदितं भविनां मता सा.., . . कामा, न. सा खलु शुभायतिराप्तमार्गे // 2 // * तत्रापि योऽल्पमुपचित्य बहु क्षिणोति, सोऽभ्येति कर्मलघुताप्रभवां सुरूपाम् / काष्ठां ततः क्रमगतां तु यथाप्रवृत्तां, लब्ध्वाऽपि तां शममुपैत्यसुमान् कदाचित् // 3 // लब्धे शमे परत आचरतीह कश्चित् , शुद्धेः पदं तप इहात्मसुवर्णशुद्धथै / अत्रैव सा भवति कामयुता प्रशस्या, सन्निर्जराऽव्ययपदार्पणसाध्यरूपा . भूगुप्रपातादिकमाचरन्तो, दृश्यन्त उद्धारहृदो भवाब्धेः / प्रेत्यास्ति नैवाश्रयणं त्वमीषां, कुबोधजं बालनिमग्नचेतसाम् // 5 // उदाहृतं बालतपः शमादेः, प्राप्तौ बुधैहे तुतया यत्र / तदुत्सवांदिरिव साधनाप्तौ, क्षमं भवेऽनन्तश आहतं यत् // 6 // // 4 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। तपो भवेदेतदुदारनिर्जरा सिद्धयै जिनोक्ताव्ययसाध्यबुद्धया / सूर्यस्य सङक्रान्तय इद्धरूपा, भिदोऽस्य भाव्या द्वयधिका दशैव / / 7 // अनशनादिमयं तप आहतं, भवति मोक्षपदाय शमात्मनाम् / अयनयुग्ममिवाऽस्य भिदाद्वयं रवेरिवाऽस्ति तपो बहिरान्तरम् / / 8 / / आये पट्के पूर्व पूर्व, धार्य साधोरादौ शक्तेः / पूर्वं पूर्वं चान्त्ये फलदं, पट्केऽन्यस्मिन्नान्तरमेतत् // 9 / / घनं प्रसक्तं वृजिनं त्रियोग्या, मिथ्याऽव्रतक्रोधमुखाश्रिताऽङ्गी / तच्चेत् क्षयेन्नैव तपोऽन्वितेन, सुसंवरेणाप्यत आत्मबाधा // 10 // ज्ञानान्वितो हि भगवानपवर्गसिद्धिं, जानाति निश्चयगतां निजके भवित्रीम् / . तीव्र चकार तप आत्महितैषिभावात् , कार्यं न जात्वकरणं तप एव तद्धि // 11 // मोहं निनाय नितरां क्षयभावमाप्य, सर्वाघनाशनपरां क्षयिनीमिहाऽऽलिम् / प्राप्यापि केवलमनुत्तमयुग्मरूपं, यावत् परं तप उपैति न विमुच्यतेऽङ्गी // 12 // अबोधितान्वितेन यानि जन्तुना निकाचिता। न्यघानि तानि भस्मसात् करोत्यसौ तपो धृतेः / योऽन्तराकृतिद्विधा तनोति तादृगंहसां, विनाशमाप्यते गुणो न भेदमन्तरांऽहसाम् // 13 // न चेत्तपः स्यादहनोपमानं, प्रबद्धकर्मेन्धनदाहदक्षम् / कथं चिरातीतकृतांहआलिः,. क्षिप्येत, मुक्तिं प्रगुणेच्च साधुः।।१४।। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। तपः क्षिणोति चेदघं पुरा भवार्जितं नहि, कथं प्रमुच्यते जनः कृतांहसां क्रमाद् भुजेः / अबुद्धवोधसङ्गतिर्न कर्मनाशमन्तरा, यथैन आत्मवीर्यजं तपो हि नान्यथा यतः // 15 // ज्ञानं सर्वपदार्थसार्थगमनं यावद्भवेत् केवलं, चारित्रं विगतातिचारसुभगं यावद्यथाख्यातिकम् / आगच्छदुरितौघसंवृतिकरं स्थाने कपाटो यथा, प्राकचीर्णाघसमूहसल्लयकरं शुद्धं तपः पावनम् // 16 / / सत्यं तपोऽस्त्यसुखरूपमिदं तु किञ्चित् , कर्मापसारणपरे मुदितात्मताऽत्र / कोटया ऋणं विनयते ददताऽल्पमेव, (जन्तुः) लाभस्ततश्च भविता वृजिनौघनाशात् // 17 // सत्यं दुःखं न भवति दुरितोद्रेकशून्यं कदाचित् , कर्माभावो मनसि समितः प्रेप्सितस्तद्धि धर्मात् / यावन्मोक्षो विमलनसहितो जातिमृत्योर्न जातस्तावत्सर्वे दधति मलिनं तत्तपो मुक्तिहेतुः // 18 // यावान् कश्चिजगति जनितः कर्मजातः समग्रो, नैवोत्थानं जननविगमयोः पापसङ्घ विना स्यात् / मन्ताऽऽपत्तेविलयपटुतां सन्दधात्यान्तरेऽस्याः , कर्माणूनां विलयनपटुता सत्तपस्येव साक्षात् // 19 / / मोक्षो भवेद्भवभृतां समये तु यस्मिन् , तस्मिन् भवेत् तपस एव परानुकाष्ठा / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता।' लब्धेऽप्यशेषगुणजात इयं न यावत्, तावन्न मोक्ष इति सन्महिमाढ्यमेतत् // 20 // वह्नाला कर्मकाष्ठालिदाहे, मेघो देवो ज्ञानमुख्याऽऽयवल्लयाम् / संसारार्णःशोषणेऽगस्तिरूपो, निर्वाधार्थं सत्तपोऽस्त्युक्तरूपम् // 21 // भावः शुद्धो विमलमतिमतां, दानमायादराढयं, शस्यं शीलं मदनहतिकरं वाक्पथातीतभावम् / धर्मस्यैषाऽघनिचयहरणी शुद्धगङ्गा त्रिमार्गा, यात्रास्थानं तप इह गदितं सत्प्रयागाभमेतत् // 22 // एवंविधं तप उदारधियां प्रशस्य, मत्वा निरन्तरमिहार्चति तद्वतो यः / इच्छेदोऽप्युपरताघसमूहमग्न्यं, जैनः स एव ननु मोक्षपदैकलक्ष्यः // 23 // एवं नवपदविमलां बुद्धिं धत्तेऽत्र देवभिदि युग्मं, भेदत्रयमथ सुगुरौ निर्वाणपदैकसाध्यपरम् / पूज्याः परमपदयुता इमैः सहाराधनीयता युक्तां, धर्मचतुष्कयुतां नवपदीं सदा संश्रयेजैनः // 24 // - इति नवमोऽध्यायः / / दशमोऽध्यायः / (जीवाधिकारः) जागर्ति जैनत्वमनुत्तरं तद्, यत्राऽस्ति पूज्याः परमेष्ठिनः परा / आराध्यताऽग्य नवपद्यनुश्रिता, जीवादितत्त्वानि नवैव चित्ते / / 1 / / P.P.AC. Gunratnasuri MUS.Gun Aaradhak Trust Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। सर्वेऽप्यास्तिकतां श्रिता मतधरा जीवं परं मन्वते, . षटकायाश्रितमङ्गिनं यदि परं जैनाः सदा मन्वते / संसारं सरतां भिदा दशचतुःसङ्ख्या हपीकादिगा, नैगोदान् भवधारिणो गतमितीन् जैनो भवेद् धारयन् // 2 // . औदारिकादिपरिणामतया तनूनां, . भूम्यादिपु प्रकृतिभेदमपि प्रयाति / अन्नादितः प्रभव एष तनुस्तथापि, नृणां समस्ति नहि चैकविधो गृहीता // 3 // क्षि यम्बुवद्विमरुतो वनकाययुक्ताः, पर्याप्तभावमयिताश्च परस्वरूपाः / एकेन्द्रियाः क्रमगतेः करणाधिकाः स्युः, . अन्त्ये मनोऽमन उदित्वरपञ्चवन्तः // 4 // जीवाः समस्ता अविभिन्नरूपाः, सर्वज्ञताद्यैः सहिता गुणेश्च / कर्मावृताः संसृतिसारिणः स्यु-वैचित्र्यभोगास्तु विदश्योगः // 5 // विशेषशक्त्यन्वितजीवघाते. पापस्य बाहुल्यमतो मनन्ति / ततस्त्रसानां वधतो विरामो-ऽनिवृत्तपृथ्व्यादिवधस्य योग्यः // 6 // नृपाः प्रजारक्षणतत्परा यद्, धनं च राष्ट्र च तदुत्थमग्यम् / गवादिकं साधनमध्यवन्ति, महाजनास्तद्वधकाँस्त्यजन्ति // 7 // कुतीर्यसम्भार इहारटेत्तु, वसं चलन्तं जीवरूपभाजम् / अनोभरैतद्वधपापमन्ता, हहा ! परे स्वल्पमुशन्ति जीवम् / (बह्वपलापिनस्त्विमे) // 8 // . वधस्त्रियोगान्वितसत्क्रियाभि-स्तदुत्थमंहः शुचितामुपैति / त्रियोगजातात्तपसः प्रभावा-ल्लुब्धाः कुतीर्थ्या धनशोध्यमाहुः / / 9 / / . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 14203 जैनगीता। सर्वेऽप्यघेभ्यो जीवजातघातान् , महत्तरं पापमुशन्ति विज्ञाः / आत्मोपमानेन सुदृक् समाचरेत् , परेषु चेष्टां जिनमार्गमग्नः // 10 // स्वकीयपापेन भवन्ति दुःखिताः, संसारिणस्तत्र हृदुक्तिकायैः / यस्यास्ति वृत्तिः स दधाति पापं, मत्वेति हिंसाविरतो हि जैनः // 11 // मषोक्तिमुख्यान्यपि जैनमार्गे, मतानि पापान्यधमोदयानि / परं प्रतीकारनिवृत्तिहीनं, हिंसोत्थमेनस्त्वतिदुस्तरान्तम् // 12 // कर्मावृता निर्मलतेक्षिणो जना, देवान् गुरून् धर्मपदानि नित्यम् / सेवन्त आदर्शतया व्यघानि, यथा प्रदीपान्नवदीपजन्म // 13 // व्यक्त्यादि भूतं नहि जैनमार्गे, देवादितत्त्वं स्वगुणापकं न / निमित्तभावेन गुणान्वितत्वात् , फलन्ति सेवाश्रयिणां नराणाम् // 14 / / लोकानुभावान्वितभव्यताया, योगात परावर्त्तमुपेत्य चान्त्यम् / आलम्ब्य देवान् गुरुधर्मयुक्तान् , भव्या लभन्तेऽव्ययधाम वर्यम् / / 15 / / कालेन मोक्ष गतवन्त इष्टैः , सुसाधनैर्य ननु ते घनन्ताः / भयो न तेषां, गमितार एवं, जीवाननन्तान् मनुतेऽत आप्तः // 16 / / सूच्यग्रवारः प्रलयेन वार्धेः, क्षयं प्रकल्पेत यथा न विज्ञः / कालेन सर्वेण न मुच्यमाना, असङ्ख्यभागप्रमिता निगोदात् // 17 // अज्ञाः परे जीवविहिंसनादि-कार्यः समुत्पत्तिमुशन्ति धाम् / रक्षापरा ज्ञानसुदृक्चरित्रे, जैनास्ततस्तेऽनघमोक्षगामिनः // 18 // भूतोत्थो नैव जीवो, न च समुदयजो, नैव भागोऽन्यसत्को, नाकर्ता भोगहीनो न च, न च कलितोऽज्ञानमूर्त्या, न चान्यः / क्षित्यादेर्भूतवृन्दात् न न परभवगो नैव जातो न नाशी,. प्रत्यक् चैतन्यधर्तन् शिवपदपरमान् जैन आख्याति जीवान् / / 19 / / PRATYASHRIKANLASSAMARTHAT GYN इति. दशमोऽध्यायः / Canchinegar 332007. .. R. AC.GuiratnasuriMS.Gun Aaradhak Trust Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। / एकादशोऽध्यायः / ( अजीवाधिकारः ) RU नामसदि जैनः सदा मनुत आत्मविभिन्नरूपान् , धर्मतराभ्रसहितान् विविधाणुसङ्घान् / जीवाणुसङ्गम इहानुविशेत्तु युक्ति, मन्येत लोकमितरं क्रमतश्च चेद् ज्ञः धर्मों गतौ भवति हेतुरिहाङ्ग-यणूनां, तेषां स्थितौ प्रभववान् इतरो ह्यधर्मः / अभ्रं तृतीयमवकाशमथो ददाति, वर्णादियुक्तमिह नास्त्यपपुद्गलं तु भवेयुस्त्वणुभ्योऽङ्गवाङ्मानसादि सुसौक्ष्म्यादिबन्धान्तयुक्तास्त एव / / द्विधा तेऽणवः स्कन्धरूपा ह्यनन्ता, हि द्रव्यार्थताभेदयुक्ता अनाशाः . . // 3 // अभ्रे जीवे पुद्गले चाम्तिकायेऽनन्ता अंशा एकजीवे त्वसङ्ख्याः / / धर्मेऽधर्मे पुद्गलेऽसङ्ख्यकास्तु, कालो द्रव्यं मानुषे लोक एव // 4 // यञ्चन्द्राद्या गगनगमनतश्चारिणोऽत्रास्ति भागे, घस्राद्यास्तद्भुव इह मताः कालभागास्तथैव / वृत्तिर्नामः कृतिरधिकृता सर्वदा सर्वभागे, . कालस्ययोपकृतिरपरा केन नैवाद्रियेत ? प्रतिक्षणोत्पादविनाशनित्या-वस्थास्वरूपं सकलं हि वस्तु / किञ्चित् स्वरूपेण पराश्रयेण, किश्चित्त्वजीवा अपि तत्स्वरूपाः // 6 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। 10 परे कुतीर्थ्याः प्रतिबोधशून्या, नवत्वजीर्णत्वमुखाः क्रिया हि / अर्थपु साक्षात् सकलेषु पश्य-न्त्यपि प्रवादं न वदन्त्यनेकम् - राजा सदेव सर्वं जगतीह वस्तु. द्रव्यप्रमुख्यैर्निजपर्ययैः स्यात् / पराश्रितस्तैरसदेव नात्र, विरोधभावोऽस्ति विचक्षणानाम् // 8 // नामाकृतिद्रव्यपदार्थरूपैः, समन्वितं सर्वमपीह दृष्ट्वा / नोरीकरोत्येप कथं कुतीर्थ्यः, स्याद्वादमुद्रानतिपाति वस्तु // 913 सत्त्वं पदार्थ सहजं न चान्य-सम्बन्धभाघि प्रसिते गुणक्रिये / तुरङ्गशृङ्गेण समानमन्ये, सम्बध्य तद्वन्तमुदाहुरर्थम् // 1 // विचित्रभावाः खलु पुद्गलाः समे, जीवग्रहे सन्ति विधाः प्रसिद्धाः / औदारिकाद्या अमिता परा हि, स्वयं क्रियावन्त उमापतेर्नहि // 11 // अणोः स्वरूपं न विबुद्धमन्यै-रनन्तभागात्मकमेव दृश्यात् / तद्वत्प्रदेशस्य न चैभिरूढः, कालस्य सूक्ष्मः समयः कुतीथ्र्यैः / / 12 / / जीवस्य वाधे सकले ह्यनुग्रहे, क्षमं ह्यदृष्टं तदिदं तु पौद्गलम् / आवार्यशुद्धेः क्रम आवृतीनां, क्षयक्रमे तच्छिवमात्मभावि // 13 // अजीवशब्दे परिदृश्यमानो, नशब्द आहाऽन निषिद्धदेशम् / चैतन्यभावप्रतिषेधरूपं पदार्थरूपं न तु शून्यताङ्कम् . // 14 // नित्यान्यवस्थानयुतानि पञ्च, धर्मादिकानि प्रविभक्तिभाञ्जि / रूपादियुक्तं परमाणुमुख्य-मेकं स्वयं पौद्गलिकस्वरूपम् // 5 // यद्यपि चेतनविगुणा एते, ह्यास्पदमेतदिहास्ति विहानेः / मोक्षपथैकसहायकराणि, नृत्वमुखानि विवेकभृतां स्युः // 16 // यावल्लोकं धर्माऽधर्मों सिद्धिशिलां यावत्तौ च, . परतोऽलोके नहि तदभावाद् गमनं जीवाणूनों धावात् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। मृल्लेपादियुतं वरतुम्ब ब्रजति तले धृतजलनिकुरम्यं, अपगतलेपं तिष्ठेदुपरि तद्वन्मुक्तो भुवनतलोपरि // 17} ! तत्त्वे द्वे जगति स्तः तत्त्वात् जीवाजीवौ भिन्नाभावात , नह्येतावन्मात्रोक्तौ स्याद्धेयाऽऽदेयविवेकाभावात् / ___ मोक्षपथप्रथनं, तत उक्ता सप्त सुतत्त्वी तत्त्वार्थोक्ता // 18 / / अपेक्ष्यवादः सदसत्प्रवादो, विभज्यवादः परिवर्त्तवादः / ' वादा अनेके जगतीह मूर्ध्नि, स्याद्वाद आख्यद् द्रविणे त्रिकालम्।।१९।। ..... एवं जैनो जिनवरगदितेष्वागमेष्वेकचित्तो, : जीवाजीवौ मनुजमतिगतौ मन्यते शुद्धभावः / 1 एवं साध्यं प्रवरमतिमान् रत्नत्रय्यात्मकं तु, चित्ते धृत्वा नियवमुदयवान् जैनमायाति मार्गम् // 20 // इति एकादशोऽध्यायः / . / द्वादशोऽध्यायः / (पुण्याधिकारः ) . पुण्ये भेदा भविसुखकृतये विंशती द्वे द्वियुक्ते, वेद्याद्युत्था यदि च भविनो ह्यानुकूल्ये ह्यपेक्ष्यम् / सम्यक्त्वाद्याः प्रकृतय उदिताः सर्वमेतद्धि सत्यं, जैनो जैनं प्रकृतिसुभगं त्वाश्रयेत् स्यात्पदाङ्कम् // 1 // अकामनिर्जरावलाच् चिनोति पुण्यमुत्तमं, निगोदतः प्रयात्यसुस्ततो बहिर्निगोदताम् / ततस्ततोऽनुयात्यसौ दशां च व्यावहारिकीमुपैति सूक्ष्मबादरक्षितिप्रभृतिभावताम् ... ||2|| P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगोता। अनन्तपुण्यलाभतो ह्यकामनिर्जरावला- . .. दुपैति वैकलीं दशां क्रमाक्षवृद्धिशालिनीम् / .. अनुक्रमेण पञ्चकं यदेन्द्रियाश्रितं भवेत् , पुण्यलाभसम्भवेऽधिकेऽत्र सज्ञितोद्भवो, नरत्वमार्यदेशजातिगोत्रधर्मिसङ्गमः . // 3 // य एव यात्यनावृतेः पदं समस्तकर्मणां,, क्ष्यादनावृतो भवी भवं विहाय चोपरि / प्रचण्डपुण्यलाभजं यदाद्यमश्नुते तनौ, शुभं तु कीकसाश्रयं शिवेऽपि साधनं ह्यतः // 4 // अभव्या अपि प्राणभाजो ह्यनन्ताः, समुपेत्य मार्ग जिनेन्द्रोक्तिशुद्धम् / कृष्टं समुद्भाव्य पुण्य ह्यगुस्तत् , सुधामोपरिप्रैव्यविवर्त्तमानम् / / 5 / / अनुप्तं चेद् बीजं भवति जलदो नैव फलदः , शुभेऽप्युर्योधाम्नि प्रबलतरयत्ने कृषिवले / तथैवैषां प्राज्यं (तथा नैषां मोक्षः) प्रचुरतरपुण्यं च दधतां, सुसम्यक्त्वाभावाद्भवति शमिनां तद्गुणभृताम् // 6 / / यथा यानं ग्रामान्तरमुपगते नैव फलदं, परं तद्धेतुस्तत्तदिव सुकृतानां ततिरिह / न सा स्यान्मोक्षाप्तो नियतमसकौ कर्मविलयात् , परं सौख्यं मुक्तौ भवति निजभावोपगमितम् // 7 // तृण्याया नैव वाञ्छा भवति कृषिकृतेः सोद्भवेनिश्चयेन, धान्याप्तेः प्राग् जगत्यां विदितमनुपमं सदृशां पुण्यमेवम् / मोक्षार्थं सच्चरित्रे प्रतिकलमुदितां सत्प्रवृत्तिमितानां, मत्वैवं मोक्षसिद्धयै सततमभिरताः पुण्यभाजोऽध्यवश्यम् // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैतगीता। आस्तिकवर्गः सर्वः पुण्यं मनुते काङ्क्षासिद्धथै चारु, अष्टविधा न मता पुनरेषां कर्मण आवलिका ह्यनुमेया / जने धर्मे ज्ञानादीनामावृतिगमनात् साऽष्टविधा वै, पुण्यं तत्राघातिनिबद्धं पापमघातिनिबद्धं कर्म / / 9 / / वेद्ये नाम्न्यायुषि गोत्रे स्युः शुभसंयुक्ता अशुभास्तास्तु, शुभ्रा नामाद्याः पुण्यात् स्युः पापात्त्वशुभा एताः सर्वाः / योगात् कर्माश्रवति प्राणी पुण्यं तस्मात् सुन्दररूपात् , न विरुद्धं निर्जरया यस्माच्छ्रेणिं त्यक्त्वाऽनुत्तरजन्मा // 10 // मन्वानाः पुण्यतत्त्वं कतिचन विबुधा मन्यते पापतत्त्वे, हान्याः पुण्यं प्रकृष्टं परिगतमुदयेऽस्मिँस्तथाऽल्पं तकत्तु / नेतद्युक्तं यतो वै परिजनविभवाद्यं सुखस्यैक हेतुनैंतच्चाभावजन्यं न च दुरितहतेः पुण्यमेतद्धि कुर्यात् // 11 / / पुण्यं त्रिधा मतिमता गदितं त्रिधा तु, पुण्यानुवन्धजनकं निरवद्यवृत्तेः / पापानुबन्धमपरं जनयत्कुदृष्टेः, श्रीवीतरागपदगादनुबन्धशून्यम् // 12 // // 12 अज्ञो नरः फलमुपेत्य भवेत् प्रसन्नः, . पुण्यस्य, वेत्ति न तु पुण्यविकाशहानिम् / भुक्त्वा फलं दुरितसन्ततिजातमज्ञ, उद्विग्नतामुपनयत्यघहान्युपेक्षः / __ // 13 // शिशोर्न जातिर्जनकाद्यभीष्टया, शिशोरभी'साऽपि न तत्र हेतुः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। तन्वादिहीनस्य न चेश्वरस्य, किन्त्वेकमेवाऽत्र सहं हि कर्म // 14 // आत्यम्य रोगै रहितस्य कश्चित् , कुले जनिं प्राप्नुत इष्टदात्रीम् / परोऽपरस्मिन्नहि तत्र मुक्त्वा , कर्मैव, हेतुः प्रवरोऽस्ति कश्चित् / / 15 / / अक्षाणां पटुताऽऽयुषः सबलता शत्रौ जले जङ्गले, रक्षा सङ्गरसार्थजातविपदि चौराग्निजाते भये / दुष्टेभ्यो नृपतिभ्य ईतिसमितौ व्यालाहिनागोद्भवे ऽक्षेमेऽजायत इष्टितो नरभवे तत्पुण्यविस्फूर्जितम् // 16 / / तनोति भक्तिं जनता मुदाढ्या, कुर्वन्ति विद्यानिपुणं हि पाठकाः / लभन्त आध्यत्वमुदारनेतुः, सुखाकरं सत्कुलमेव पुण्यात् // 17 // अशुभवन्धानि समस्तपुण्या-न्याहारयुग्मं जिनतां विहाय / आये निदानं शुचिसंयमो यत् , सम्यक्त्वहेतु जिनताजने हि // 18 // पुण्यं प्रधानं भरतानुजे य-दलं नृपेन्द्रादधिकं द्वयाऽऽहवे / रूपं हि नाकोकस ईहनार्ह, सनत्कुमारे न ऋतेऽतिपुण्यात् // 19|| पुण्यात् पृथिव्यादय आनुकूल्यं, नयत्यमिष्टेऽतुलहेतुतां दधुः / यक्षादयो न प्रभवन्ति तस्मिन् , मोक्षस्य मार्ग च सहायिताऽस्य // 20 // सर्वार्थवेत्तार उदारभावाः , सर्व समानाः परमग्यपुण्यम् / जिनेश्वराणां निखिलोक्तिसारा, वाणी जने संशयभेददक्षा ||21|| अतीर्थपा यद्यपि साधुवृन्द, प्रव्राजयन्त्येव परं प्रवाहः / व्याप्येह तीर्थ जिनराजभूता, प्रभाव एषोऽमलपुण्यसंहतेः / / 22 / / मैत्रीमुदिताकरुणोपेक्षाः, सत्त्वाऽधिक-दुःखि-कुपात्रे धर्म्य शुक्लं जिनगुरुसेवा, पुण्याङ्गान्युपकृतियुग् रक्षा / / 23 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। .................. सम्यक्त्वं चरणं विनयाा, वैयावृत्त्यं सह पाठादोः / यान्यहत्पदकारणभूता-न्यहत्पूजादीन्यमितानि // 24|| यद्यपि पुण्यापुण्यक्षयतः , साध्या मुक्तिः शासनशस्ता / * तदपि च जिनपाऽऽदेशाः पुण्ये, कारणभूता न पुनर्दुरिते // 25 // अणिक्षय्याः प्रकृतयः पापाः, सर्वत्रास्ति क्षय आप्तोक्तौ / ...............प्रतिपदमेनोवृन्दस्यार्थः . // 26 // कपायतो भवति कर्मणां रसे, बन्धने विमात्रया सदाङ्गिनाम् / तदुक्तिरेनसो रसेन पुण्यगे, मन्दताऽनुगो रसोऽत्र गीयते // 27 // निर्जराकृते कृतान्यशेषधर्मसाधनान्यबन्धकानि सन्ति नो परं तदर्थिताऽत्र न शुभोऽपि पुद्गलाश्रयो निमित्त्यपीष्यते नहि // 28 // जिनेन्द्रवाङ्मयेष्वघानि निन्दितानि विस्तरात , कृपापि पापमाश्रितेपु दुःखितेपु सम्मता / . पुद्गलैः सुखं भवत् प्रशस्यते क्रियादरे, फलं वृषस्य मुक्तिवत् सुरालयोऽपि शम्यते // 29 // * मुक्त्यर्थमुदातमतिर्यदि सावशेपाऽ दृष्टो भवेत् सुरनराधिपऋद्धिपात्रम् / अत्रैत्य मुक्तिमपि साधयति प्रधानां, ....... मत्वेति पुण्यपथभृत्तु भवेत् स जैनः // 30 // . .... ..: : इति द्वादशोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। .... / त्रयोदशोऽध्यायः / (पापाधिकारः ). जैनो भवेत् सकलकालमपायभीरुनँवापयान्ति भयतोऽनुगता अपायाः / नैमित्तिनो न भवति प्रलयो निमित्तनाशं विना भवति सोऽपि च पापभीमः // 1 // यद्यप्यनिष्टफलदं सकलं हि पापं, ' तत्त्वं तथापि यदिदं प्रचुराङ्गिसंस्थम् / बाधाकरं जगति मोक्षविधौ च नित्यं, नाज्ञातमुज्झति न च प्रयतेऽत्र लाभः : IR.. यापोपभोगमखिलेऽव्यवहारराशौ, पर्याप्तिहीन उदितेऽघफले भवेद्धि / एवं परापरदशासु सदोपभुङ्क्ते, पापानि तत्फलयुतानि भवेऽखिलेऽन... ॥शा भवेदकामनिर्जराबलादयस्य सञ्चयो, भजेत नैव पुण्यमत्र पाप्मनां विरोधिताम् / ..... विशुद्धसाधना नरा. न सर्वशुद्धसाधना, .... बन्धनेऽपि नानयोर्विरोध इष्यते बुधैः // 4aa यतोऽनुसार्यदः पुरातनांहसां सदोदयः, . समं तु पुण्यपापयोः न केवलस्तु कस्यचित् / बन्धके कषायितेऽयमिष्यते सपापकं, चरमयोगिनं समेत्युदय एनसां पुनः // 5 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। पापं स्वतन्त्रमणतीह च वावदूकः , कश्चिद्यपि च पुण्यपदार्थसंस्थे / अल्पेतरत्व उदितेऽघचयः क्रमोत्थ- .. - श्चिन्त्या. तु तत्र विपरीतपदार्थभूतिः // पुण्यस्यास्ति निबन्धनं शुभतरा योगाः शरीरादयो, मन्दत्वं च कषायसन्ततिगतं पापे परे हेतवः / बन्धोऽस्याशुभपुद्गलाऽन्दनभवो योगादनिष्टात् पुन मिथ्यात्वाऽव्रतकोपनादिसहिताद्यावत्कषायोदयः // स्थानानि पापस्य मतानि विज्ञ-रष्टादश प्राणवधादिकानि / आद्यानि पञ्चाऽत्र तु हेतुकार्य-स्वरूपभाञ्जीति पुरा त्यजन्तु // 8 // स्वाभाविका नहि मताः सुगुणाः कुतीय निं शिश्च चरणं भवभृत्सु मोहात् / :तन्नावृतीरनुसृता गुणसङ्घहय॑(/) स्तत्तत्त्वभूतविभूतिर्न मताऽऽत्मनोऽन्यः // 9 // विचित्रतैपां परमेश्वरे वित् , स्वभावभूता करणाधभावात् / / सैवाऽऽत्मनीटेन्द्रियसार्थसिद्धा, न तत्त्वतश्चेतन इष्ट आत्मा // 10 // नातीन्द्रियार्थमतिभिर्विततानि तेपा, यदर्शनानि, तदिमेऽपलपन्ति वस्तु / घातीनि कि निजमतो दधते ह्यघाति // 11 // सप्तभिराढ्या चत्वारिंशन् , न मताऽघांशानां तैस्तीथ्यः / न च तन्नाशपरोद्यमकथनं, झंमन्यानां नहि तच्चित्रम् // 12 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। तद्देवेन हि विदितं नैतत् , यन्नातीन्द्रियवेद्यात्मा सः / जिनपाः सकलज्ञास्तद्विविदु-निन्युर्मार्ग तद्घातोत्कम् // 13 // पापापहृतौ शक्तं मार्ग, विदितं जगतीजनहितकारम् / सम्यग्दर्शनबोधचरित्रै-युक्तं स्वात्महितैषी श्रयते // 14 // पापानां यन्निदानं वधविरतियुतं व्यर्थवागादिहानं, विज्ञायाचार्यपाच तदकरणविधौ सन्त्यजेत् सर्वथा तत् / हेतूनां सर्वथा यत् परिहृतिरमला शङ्कनादौ गताना, - त्यक्त्वा पापौघमेवं स्वगतमुदयते रूपमात्मा स्वभावात् // 15 // पुण्यं च पापं च न तत्त्वशास्खे, तत्त्वे पदे नैव विचारिते यत् / बद्धं परावर्तयतेऽपि पुण्यं, क्षमादियुक्तः सुकृतं च तद्वत् // 16 // | तथा स्वरूपेण विपर्ययेणा-नुभूयते कर्म समं द्विधाऽपि / " प्रवेद्य पापं तपसा विनाश्य, द्विधा भवेनिमल एष आत्मा 17 // / परस्परं सङ्क्रमभावभाजो, मूलादभिन्नाः खलु कर्मभदाः / .. अन्यच्च जीवादय आप्तभेदाः, परस्परं युग्ममिदं न चैवम् . // 18 // भिदा या मता आश्रवे बन्धने च, ता एव भक्ता द्वयेऽस्मिस्ततो न / ' प्रतीत्य भोगं प्रतिघातशून्य, सम्यक्त्वमुख्याः सुकृतेऽपि गम्याः // 19 // . आत्मस्वरूपे प्रतिवन्धकत्व-मपेक्ष्य पापेऽधिकृता मुनीशैः / / सापेक्षभावे हि विरुद्धता न, विरोधदोषप्रतिपादिनी स्यात् // 20 // - शुभाः पुद्गलाः पुण्यरूपेण जी-र्य आत्तास्तके पुण्यमन्यत्तु पापम् / चयो योगतः कर्मणां च स्वभावो, यथा काययोगाद् बहिः पुद्गलानाम् / मतं नो कृतं नो न चोक्तं तथापि, पुराणम्य पाकेऽविरतोऽषमन्देन // 21 // P.P. Ac. Gunratnasuri Mis Gun Aaradhak Trust Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। बन्धोऽघानां विरमति यदा रुध्यते तद् गुरुभ्यो, .. .. ज्ञात्वा रूपं विरतिनियमं धारयित्वा त्यजेज्ज्ञः / नामाक्षिप्तं भवति जनता गोविधानेषु तेन, ... 11) सत्यङ्कारैर्विहितशपथैस्तोधमानेय आप्तः // 22 // सूक्ष्मत्वं स्थावरत्वं विकलितकरणं कायपार्थक्यहानि-... दौर्भाग्यं दुःस्वरत्वं स्थितिरहिततनुर्वाक्यमादेयशून्यम् / अङ्गोपाङ्गादिघातं गतयश उदिति सर्वमित्यादि पापान , .. मत्वा सुज्ञो विरज्याज् जिनमतनिपुणो जैन एनःप्रयोगात् // 23 // यथाऽऽकरोद्भतगुणप्रशस्यान् , महार्यता मौक्तिकमालिकायाः। तथैव पूज्यो नर उच्चगोत्रा-द्विश्वेऽनुपूज्योऽस्ति परप्रभावः // 24 // दृश्यन्ते जगतीह सौख्यधनिकाः शून्या वरैः साधनै... : स्तद्युक्ता अपि दुःखभारकलितास्तत्स्फूर्जितं वेद्ययोः / ... सद्रव्ये वरयाचके न वितरेत् प्रेस्यं लभेतापि नो, वीर्ये भोगयुते भवेद्विमथनं तद् दुष्कृताजन्मिनाम् // 25 // लोके लोकोत्तरे चाध्वनि परिहरणस्याहमेतन्न शङ्का, लोकास्तत्त्वार्थमुक्ताः परिभवपदवीं पापिनः प्रापणीयाः / आत्थेति क्रीडयेदं प्रभुरभिनयते पुण्यपापक्रियासु, विश्वं तल्लोकसधः कपिवदभिधरत्येष चेष्टाऽसमर्थः // 26 // 1. चिन्तयन्ति नैव ते दयोक्तयोऽतथाभवा, .. . 2 : व्यथोद्धरे भवेत्पदं कृपालवस्य सा परम् / ........ ....... पुराणपापपाकजाऽपरं च निदेयः प्रभुः, ...... करोति जातमङ्गिनं महाव्यथाऽर्भकादिषु // 27 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 जैनगीता। . पुरातनस्य कर्मणः फलं प्रवेदयज्जनो, . नवीनमन्दतीह पापमेव दीर्घकालिकम् / ततो विधातृतेशितुर्न शोभते सतां गणे, न चेश्वरे पदं भवेद्भवस्थवालकोचित, .. तदेतदुक्तमहतां विमुच्य फल्गुवादिभिः // 28 // जैना 'ब्रुवन्ति जगतीसकलासुमत्सु, . मैत्र्या यदत्र भुवने दुरितं न कोऽपि / भो! सन्दधातु, यदि चाऽकृत पाक् तथापि, धर्मात् प्रणाश्य फलवेदनभाक् तु माऽस्तु * // 29 // . भावानुकम्पनयुता मनसा स्पृहन्ते, यन्मुच्यतां जगदिदं सकलाघभारात् / ... नास्तीह यद्यपि समस्तजनस्य मुक्तिः , . सम्बन्धिजीवनपरोक्तिरिवेह योग्यम् // 30 // यन्मुच्यते मनुजभावगतो हि जीवस्तस्मिन् सतीह जगतीतरसत्त्वसत्त्वम् / आवश्यकं, न च भवन्ति समे मनुष्या स्तन्नास्ति सम्भवि परं करुणोक्तिरेषा // 31 // जैनः स्यात् सो विविधविधितोऽघौघभीतः पुरापि, लब्धे धर्म प्रचुरकरुणासङ्गतेलब्धमैत्री / मान्योऽस्य स्याद्विविधविधिना हिंसनाघादिवर्जी, देवः साधुः प्रवचनरतो धर्मधुर्योऽव्ययार्थी // 32 // / इति त्रयोदशोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 जैनगीता / / चतुर्दशोऽध्यायः / (आश्रवाधिकारः) वेद्यते सकलजन्तुभिर्भवे, कलां कलां प्रति सुखं व्यथान्वितम् / कर्मणामुदयतो, न चाप्यसो, बन्धमन्तराऽऽश्रवानृते न सः // 1 // जैनो मनुते : तत्त्वावल्यां, तद्योगानाश्रवहेतूनग्यान् / आश्रवभेदौ द्वौ शुभमङ्ग कायोक्तिहृद्योगद्वैध्यात् : .. // 2 // दुःखे च सौख्येऽसुमतां समस्ति, यथानुभावः सततं निजऽङ्गे / तथैव बोधावरणादिजाते, स्वभावरोधाद्विदुषाऽभिमान्यः // 3 // सुखद्वन्द्वमाविश्वकास्त्यात्मनोऽन्त-स्तथैवात्मवोधादिनाशात् पराणि विपाकप्रविष्टानि विज्ञस्ततोऽष्ट-कर्माणि मन्वान उदारदर्शी // 4 // एको वधो हेतुफलानुयोगी, चेत् त्यज्यते, त्यक्तमघं हि सर्वम् / / स्वरूपहिंसा प्रथमं हि पापं, भिन्नानि मिथ्योक्तिमुखानि तस्मात् / / 5 / / मुनिर्भवेत्सर्वत एनसो वृजौ, क्षमो, ह्यशेषा न पुनस्तथा क्षमाः / अभ्यासधामान्य आप्तवर्या, अणुव्रतानीह परेषु रान्ति // 6 // तथाऽत्र शेषाधविलोडनाय, मतानि पञ्चाश्रवद्वारि विज्ञैः / योगाः कषायाः करणाव्रतानि, तथैव शास्रेण प्रणोदितानि // 7 // जीवा बध्नन्ति कर्मोदयमनु सदृशं तद्भवेदाश्रवेषु, भागोऽपीष्टोऽत्र कर्मस्थितिमितिसदृशो योगमानाः प्रदेशाः / प्राच्यैः क्रोधादिभिस्तु भवति रसचयस्तन्न भेदोऽस्य बन्धात् , बद्धं कर्मानुभाव्यं न च परजनितं ह्याश्रवास्तन्न योग्याः // 8 // कर्मवेदनं भवेद्यथाकृतं पुराङ्गिभिस्तदाश्रवा न तत्त्वगा भवेयुरोप्तसङ्गिनाम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। हेतुकार्यभेद एव चेत्तदा न ; संशयो, .. न जैनमार्गगा नराः श्रयन्ति जातुचिद् बुधाः // 9|| न चास्ति जन्तुजात एष एक एव सम्भवो,... यतोऽङ्गिनां क्षणं क्षणं नवा नवाऽस्ति भावना / भवन्ति वीर्यशालिनोऽङ्गिनोऽहमार्गगाः परं, पुरातनं घनं विनाश्य कुर्वतेऽल्पमेव तत् // 10 // प्रहश्यतेऽबुधोऽपि विज्ञसङ्गतो बुधीभवन् , प्रजायते जडोऽपि बुद्धिमाननिष्टसङ्गमात् / यदा तु कर्मबन्धनानुसारि कर्म नूतनं, .. . तदाऽखिलोऽपि धर्मवाह ईक्षणीयो मुधोदितः / // 11 / / विज्ञैः सदाऽन्तरमुखैरुदयागताना, प्राकर्मणां प्रतिपदं क्रियते निरोधः / आचर्यतेऽघहतये विविधो हि धर्मः., .. सर्वं तदेव पृथगात्मकता द्वयोश्चेत् // 12 // ज्ञानादिघातकरणप्रवणां हि योगा, ज्ञानादिघासकरसप्रभृतीन् दधानाः पूर्वं कृतं दुरितमाप्तचयं दुरन्तं, कुर्वन्ति तत् पृथगिदं मतमाश्रवाख्यम् / [ हेतुममुमाश्रयते पृथक्त्वम् ] // 13 / / मुक्तये जिनोपदेश आश्रवेभ्य उत्सृतो, ' संवरोऽथ तद्भवः क्षयोऽथ कर्मणां ततः / : तदेवमाप्यते यदा तु बन्धशून्यताऽखिला, :::.' पुराणकर्मनिर्जरा तदाऽव्ययं पदं भवेत् / - // 14 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। ततोऽवधानमाप्यतां सदाऽऽश्रवावरोधने, . न तद्भवेद्विनाऽऽश्रवावधानमन्तरा पुनभवेत्तु तच्च शास्त्रकृयदाऽऽश्रवान् विबोधयेत् ... // 15 // अकामनिर्जरागुणाल्लंभन्त आर्यमार्गगा, उदित्वरां दशां न सोऽन्तराभवप्ररोधिताम् / क्रमाच्छमित्वमाप्यते ततः परम्परा शुभा, ततोऽवमान्यते बुधैर्न भिन्नताऽऽश्रवाश्रिता // 16 / / भवेन्नरोऽत्र धर्मभाग् यदीष्टमार्गमागतो, निरोधने सदोद्यतो वधादिसङ्गताश्रवात् / जिनोऽप्यशेषबोधवान् सुदीर्घकालरोगयुग्, . न चान्ध आत्तवान् विकर्मिकं दयोद्यतः खलु // 17 // आश्रवे पुराणकर्म जन्तुना निकाच्यते, हस्वकालमियते प्रदीर्घकालभाविताम् / महारसं नयेत्परं बहुप्रदेशमल्पकं, .. . यतो निरोधनेऽस्य. तु प्रधारयेद्विपर्ययम् // 18 // जीवोऽनीशोऽयमात्मप्रतिनियतविधौ सौख्यदुःखैकहेतौ, .. प्रेयोऽसावीश्वरेणाशुभशुभकृतये हीत्थमाहुः कुतीर्थ्याः / तेषां वार्ताऽऽश्रवाणां न भवति सुखदा कर्णयोः श्राव्यमाणा, स्यादेषा कर्णरन्धेऽमृतरसतुलिता येन दासत्वलीनाः . // 19 // यथाऽऽतुरो वैद्यनिवारितोऽपि, जानन्नपथ्यं परिहर्तुमिच्छुः / रसेप्सुरत्त्यन्ध उदस्तवीर्य-स्तथैव जीवः सुखकाम्यघेषु // 20 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। श्रुत्वा कर्णरसायनं वच इदं यः श्रद्दधीताश्रवान् , रुन्ध्याद् दुष्कृतवारिधेः समगुणान् मत्वा जिनेन्द्रं वचः। स स्यादात्मनि गुप्त उत्तमतिको धर्माहतोऽनेकशः, स्याच्चासौ वर जैन एव नितरां गच्छेदनाबाधताम् // 21 // एतज्जैनस्य शुद्धं जिनपतिगदितं सर्वशास्त्रेकसारं, / हेयाः संसारवासे प्रतिपदमटनादिष्ववस्थास्वपीह / पापानामाश्रवा ये हृदयत्तनुवचोभिर्वधायेषु ये स्युः, कोधायेषु प्रयुक्तैर्न भवति परथा भावजैनस्वमुच्चैः // 2 // ___इति चतुर्दशोऽध्यायः / शा / पञ्चदशोऽध्यायः / (. संबराधिकारः) मन्याज्जैनः शुचितरमुदितं संवरं तत्त्वभूत, पापं यस्माद्विरतिकरणादन्तरेणैति नित्यम् / मिथ्यात्वाका मननविषयं नैव तां सन्दधीरन्, यस्मात्तेषां न भवति दुरितं पापकार्ये प्रवृत्तौ | जगति जैनवृषादपरे वृषाः, 'करणमात्रजमाहुरघं परम् / अविरतौ यदि पापमपाम्यते, कथमनादिभवे विकलेन्द्रियाः ? सुप्तो यथाऽभिमरको विगतक्रियोऽपि, . छिद्रं प्रवीक्ष्य वितनोति परस्य घातम् / जीवास्तथैव रहिताः क्रिययाविरत्याः, पापप्रचारमुदितेऽवसरेऽपशङ्कार . सा . // 3 // P.P. Ac. Gunratnasuri Mu8l Gun Aaradhak Trust Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। निरोधः सर्वेषां मुनिभिरुदितः शास्त्रविधिना, - परित्राणायाऽघात् सततमुदितादाश्रवकृताम् / . . परं योगाः पापा वधमुखगता रोध्यपदेवी, ..! गता रोध्या विज्ञनिखिलदुरिताध्वरुधिकृते // रुगद्धयक्रतान्यिव्रता]न्युग्रपापानि साधु. . रशुद्धा निरुद्धा भवेयुस्तु योगाः / ... कफाया हपीकाणि रोध्यानि पङ्कतो, ... .भवेत् सा तु मध्ये मुहूर्त्तस्य साधोः (जन्तोः ) 51 विवेको हि तेषां यतो यत्न एपु, विपक्वैपु कार्या कृते निष्फलत्वम् / प्रवृत्तिश्च तेषां यथा नोदयः स्या-- दिति प्राप्तधर्मा निरन्ध्याद् वधादीन् // 6 // ईर्याभाषेषणाऽऽत्तिक्षिपति-परिहरेपूद्यतो योगकार्य- .. गुप्तो वाक्कायचित्तैः क्षमणप्रभृतिभिर्धर्मभेदैर्धतात्मा / ... क्षुत्तृड्मुख्या विबाधाः सहत उदयगा भाक्यन् भावनोपं, चारित्रे चारुरूपे चरति दुरितहासं वृतोऽवश्यमेषः // // एवं योगेषु शुद्धेष्वनुगतसुविधिः साधनं चारु धत्ते, श्रेण्याः कर्मक्षपण्या यदि परमनणुः कर्मभारश्चिरत्नः / .. - सर्वार्थान्तेषु देवो भवति स सुयति विभद्रो विशेषात् , सर्वाङ्गापूर्णवंशे जनिमुपसरिता सिद्धिमेता ध्रुवं सः ICE यद्येषोऽनल्पकर्मा परिपतति वृषात् संवराद् दर्शनाच्च, नैवासौ संसृतौ स्याद् भ्रमणमनुगतोऽपार्धवाधिकं तु / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। उत्पद्यताऽयमेनोनिचयमनुगतो जातु साधारणत्वे, . . निर्गस्याऽरमात् प्रयात्याखिलगुणशुचितामेति शी शिवं सः // 9 // नालम्भूष्णुः सकलविरतये भोगसक्तिप्रसङ्गाद् , रक्तस्तस्यां विरमति स परं देशतो हिंसनादेः / शुद्धथै तस्या गुणकृदणुयमी दिग्चतादित्रयों स, प्राप्त्यै सम्यग् मुनिगुणनिचिते साम्यमुख्यं चतुष्कम् // 10 // यद्यत्येवं द्विकदशनियमाः श्राद्धधुर्येषु योग्या, " एषैव स्यादणुयमधरणादीप्सितोऽणुव्रतित्वे / तेनान्येषां सुरवरकृतये पौषधे नेष्यते तद्, मिथ्यादृष्टौ धरति मुनिकृति साधुता नैव यत् // 1' यः स्यात् सम्यक्त्वमात्रो विगममनुसृतः. शुद्धदेवाविरक्तः, सम्यक्त्वे मोहनाशान्न च धरति यमं शक्तितो द्वादशानाम् / देहं गेहं कलवं द्रविणसमुदयं प्रेक्षते सारहीनं, .. प्राणान्तेऽसौ न जह्यात सुरततिविहितेषूपसर्गेषु साम्यम् // 12 // अणुव्रतानि धारयन् सदैव सुव्रते रतो, यदा यदा क्षणो भवेत् तदा तदा स नित्यशः। * चतुर्विधेऽपि पौषधे च निश्चयात्त पर्वसु, नितान्तमाश्रितो भवेच्छतादिकार्यसिद्धये // 13 // स इत्वराणि धारयेदणुव्रतानि यः पुनः, परम्परां समाश्रयेत् श्रुते तु याचदस्तिताम् / ' गुणेषु शिक्षया युतेषु काल इष्यते लघु- ...: __रिणे समानये तु यावदस्तिता भवे // 24 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। दुःखित्वान्नरकाश्रिताः परकृतं तन्त्रं वहन्तः पुन'स्तियश्चोऽमरतां गता अपि पुनः सामर्थ्ययुक्ताः समे। स्वीकुर्वन्ति न सर्वसंवरविधिं वाचः क्षणे साधनात्, .. तन्नैकां नरतां विना कचिदपि स्यात् संवरः सत्तमः // 15 // धर्माचारधरः सदाऽनुमनुते पाथेयमामुष्मिकं, देवाचार्यसुकृत्यपूजनविधौ शुद्धा भवेद् या कृतिः / तीर्थानां परिषेवणा, वृषवतां भक्तया समाराधना याऽन्ते स्याच्च समाधिना मृतिरिति प्रध्वंसि शेषं पुनः // 16 // जीवेषु क्लेशवत्सु व्रजति करुणया रक्षणे सत्प्रयत्नं, यस्माद् दुःखान्वितेषु प्रयतत उदिते ह्याभावोऽवनाय / यत् तच्चिह्न प्रसत्तेरधिकृतसुविधेर्भावसम्यक्त्वजाते रहीँ तल्लक्षणं चेतरमिषचयतो जैन वंशे विशेषात् // 17 // सुसंवरास्ते यदि भावनाभि-र्यदात्मना स्वाभिरनुश्रिताः स्युः / महाव्रतेषूद्यतधारणायां, यथा तथाऽणुव्रतधारणायाम् // 18 // सदा प्रतिज्ञा सुकरा सतां स्या-न पालना सवृषमाश्रितेष्वपि / योगास्ततो धर्मपरैरमूभिः, सद्भावनाभिः सततं. प्रवाः // 19 / / योऽणुव्रतानां यमिनां समक्ष-मारों विधत्ते भयतोऽघसन्ततेः / दिने दिनेऽसौ मुनिताधिगत्यै, प्रतिव्रतं संस्कुरुते ह्यमूभिः // 20 // महाव्रते स्युः सततं समुद्यता, ये तेऽयमूभिर्न निजं वसीरन् / आसूर्यकाद्याभिरुपासयेयु-ढेिधा विहारार्हसुभावनाभिः // 21 // सुसंवृता बिभ्यति नैव मृत्यो-यतो यतानां सुगतिः पदाम्बुजे / विमोहतः शोकमुपैति सक्तः, क्षणः परः सोऽनघजीवितानाम् / / 22 / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। न जीवने स्युः प्रतिबद्धभावा, यथायुरेवाणनमङ्गिनां यत् / क्षणो हि धर्मस्य परं दुरापो, मत्वेति रत्नत्रितयावधानाः // 23 // भाव्यं समैः सद्धदये रिपौ च, स्त्रैणे तृणे चाऽश्मसुवर्णयोः पुनः / भवे च मोक्षे च विभाव्य मार्ग, संवेगवैराग्यपरं निजेप्सितम् // 24 // परे समस्ताः प्रसृता हि धर्मा, वदन्ति दौर्गत्यगमोदितानि / दुःखानि वैराग्यकराणि जैन-श्चतुर्गतीनां तु भयानि वेत्ति // 25 // बिभेति सर्वोऽपि भवाश्रितोऽङ्गी, मृतेन सोऽपैति भयाद् विभीतः / सम्यक्त्ववास्तूज्जननाद् यतस्त-निवार्यमेतच्च विना न मृत्युः // 26 / / ध्येयं सदैतत्परिसंवृतानां, कदा ह्यसङ्गो दध (वस) दल्पवासः / मलाक्तदेहो भ्रमरोपमानां, चर्चा कदा सद्गरुसंश्रितं श्रये // 27 / / सदा श्रियै गुरोः कुले निवास आर्हते मते, गणाधिपास्तथाविधा अपि श्रुतं पदं जगुः / अभिन्न एव तद्वहिर्गतैस्तु मोहतस्कर स्तदाश्रयाश्च तद्विधास्ततो गुरोः कुलं श्रयेत् // 28 // यद्यपि देहो गुणकुलयुक्तो, मोक्षपदावह उक्तमुनीनाम् / तदपि निराबाधं पदमेतुं, व्युत्सृजतीह समं मुनिरन्ते // 29 // आजीविताद्धर्मपरो हि जैनो, रत्नत्रयाराधनया कृतार्थः / / तत्त्वत्रयीं मानसकोशदेशे, सदा दधत् प्राप्स्यति शाश्वतं पदम् / ( मग्नः सदानन्दपरे समर्च्यः ) // 30 // इति पञ्चदशोऽध्यायः / P.P.Ac..Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / .. / पोडशोऽध्यायः / ( बन्धाधिकारः) .. जैनः सदा भीतिधरोऽघबन्धात्, मुमुक्षतां निर्मलचेतसा धरन् / / प्रतीयमानोऽङ्कमुदारभावाद्, मुक्तेरबन्ध भविनां तु बन्धम् // 11 // आश्रुतं यदाश्रवैरदृष्टमात्मनाऽऽत्मसु, विकीर्णमेव चेत्तकन्न यात्यदो भवान्तरम् / क्षीरनीरवत्पुनर्भवेत् तकत्तु सङ्गतं, ___फलेत्तदा भवान्तरेपु विपाकसाधनानुगम् // 2 // परिश्रवा भवन्ति ते स्वरूपतोऽपि संश्रवा श्चटन्नपैति यान् सितान् शुभात्मभावुकांशान् / पतन्नपीह तान् प्रयात्यसौ भवी न संशयः // 3 // धर्मसाधनोद्यता नराः सदा भयानकान् , पराहरन्त आश्रवांस्तथापि सम्प्रयान्ति तान् / / देवसाधुधर्मभक्तिकारणात्तदा शुभान् , 1. विधाय प्राक्तनं दुरितमुद्धरन्ति तत्क्षणे // 4 // प्रकृतेर्बन्धं योगाः कुर्युस्तनौ यथा धातवः , पूर्वैः सहशास्तेषां देशास्ततो नहि सार्थकम् / बन्धनतत्त्वं यत्तद्वन्धो भवेदमुतोऽखिलः, _ स्थित्यास्तेपामनुभावाच्च क्रियाननुबन्धतः / // 5 // योगकरणावधिं श्रयन्त्यमी, आश्रवाः सयोगितान्तमाश्रिताः / सम्परायिकी समाश्रिता नराः कषायितानुगास्तावदेष तु // 6 // यदपि च योगा आत्मायत्ताः परं गृहिताणुपु, अपरसमुत्थाः सर्वेऽप्येते भवन्ति कपायकाः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 जैनगीता / परतोऽतस्ते विकृतिं कुर्युः परेष्वणुपूदिता, आश्रवबन्धनयुग्मे स्पष्टो भेदो जिनराड्मते // 7 // आयुषः प्रतिभवं विभिन्नता, बध्यते भवेऽपि सकृदेव हि / परापरायुपां यदोदयो भवे, कं भवं व्रजति जीव आत्मना // 8 // नव्यं नैव पदार्थवस्तुसमितं सत्त्वं कदाचिद् भवेनाशो नैव च सत्त्वधारणपटोरर्थस्य विश्वत्रये / यन्नो वस्तु जगतत्रयेऽपि भवति प्रक्षीणसत्त्वं नवं. तज्जीयोऽयमनादिकालललितो नाबन्धनः सोऽपि च // 9 / / ग्रहीणकर्मा न करोति कर्म, नव्यं न चाकर्मण आप्तिरस्य / सर्वज्ञतायै रहिता अमी तद्-भवादनादेनु कर्मसंयुताः // 10 // जीवो ज्ञानमयो दृशिं दधदथो दुःखं च सौख्यं सदा, पर्यायेण भजन भवाहतरतिः प्राणप्रधानो भवे / तन्वादीन् स्वगतौ गतान् धरति चायाति प्रकृष्टेऽवरे, गोत्रे दानमुखैर्गुणरनुगतः किं नाष्टवन्धो भवेत् // 11 / / यथा रसास्तु कर्मणां स्थितिस्तथैव यद्वयं, कषायतः प्रकुर्वते भवेऽगिनः प्रतिक्षणम् / हढा गुणा यदात्मनां न हानिमाश्रयन्त्यमी, रसैस्त्वनल्पकैविना स्थिती रसानुगामिनी // 12 // विचारयन्ति चेद्वधा रसे स्थितौ च कारणं, . . : न घातिकर्मणां स्थितौ रसे च दीर्घकालिके / त . व्रते शमे च वारका शुभेऽन्यतीथिका ततो.. sनयोः प्रदीर्घिका स्थितिर्मता बुधैः श्रुतोद्धरैः / : / / 13 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। एकशो विधाय पापमेत्यनन्तकावतो, महत्प्रदीर्घकालिकी स्थिति तनोति तत्तथा / ... दृढं विपच्यते यतोऽहसां चयो न तामृते, अनादिकास्तु तन्वते मुहुर्मुहुस्तकां - लघुम् .. // 14 // बद्धमंह एत्यलं विपाकदानदक्षता, . ! स्थितेः आये परं द्विधाऽस्ति कर्मभोग्यमात्मनः / प्रदेशतो विपाकतश्च न भूयः प्रदेशतो, यथोषधेन हन्यते विपाक आमयाविनाम् // 15 // अतः कृतस्य कर्मणः भयो न जातु जायते, परः शतैरपीह फल्पकालसङ्गतैरपि / / प्रदेशमार्गमाश्रितं वचस्त्विदं बुधैर्मतं, गतस्पृहं तपस्तु तद्विपाकतोऽपि नाशयेत् // 16 / / यथा रसोज्झिताणवः शटन्ति शीघ्रमाश्रयात , तथा विपाकशून्यतां गताः समेऽणवोंऽहसाम् / निकाचितानि कानिचिद् भवेयुरंहसां पुन-. बजानि तानि नाशयन्ति ये स्थिता महाव्रते // 17 // यदाऽघबन्धान विभाय जन्तु-विपाककाले भयधारणात् किम् / किमातुरोऽपथ्यविधौ प्रसक्तो, वृद्धौ तु रोगस्य रवैररोगः ? // 18 // बिभेति चेदाश्रवबन्धकाले, पापात्तदा नैव तकद्विदध्यात् / स्वायत्तवन्धेन च जैनमार्गे विबन्धके नास्ति फलोपभोगः // 19 // यथा कपायो विविधा जनानी, स्थितौं रसे तद्विविधाः प्रकाराः / कषायहीनाः स्थितिबन्धका नहि, रसस्तु तद्धानिभवोऽस्त्यसीमः॥२०॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता निरुद्धयोगो भगवानयोगी, न बन्धकः सर्वनिमित्तशून्यः / सैवैति मोक्षं प्रलयात् समस्त-कर्माणुसङ्घस्य विशुद्धरूपः // 21 // अनादिकालीनचिरप्ररूढा-ऽदृष्टावले श उदीयते यः / यथा स वीजाङ्करसन्ततेः स्या-नाशस्तथाऽत्रापि निमित्तहानेः // 22 // मीमांसका विश्वविधानशून्याः, सुवर्णयोग प्रवदन्त्यनादिम् / मोक्षापलापे प्रवणास्ततस्तान् , प्रत्येष दृष्टान्त उदीरितः श्रुते // 23 // यद्यस्ति कर्मानुभवः समन्ता-दणावलेनौद्भव आत्मभूतेः / स पूर्ववन्धोदयजो न चास्ति. विशुद्धपूर्वस्य पुनः प्रबन्धः // 24 // यथैक आहार उपैति भावं, सप्तप्रकारं रसमुख्यरूपैः / .. तथा गृहीतं व्रजतीह कर्म, सप्तप्रकारं समयेऽजताद्यम् // 25 // आत्मैपोऽनन्तकणशः प्रतिसमयमहो सूक्ष्मरूपावगाढान् , गृह्णात्यंशान् समन्तात् परित्त उपधृतोऽनन्तवगैः कणैस्तु / यस्माज्ज्ञानादयोऽस्मिन्नमितपरिमितास्ते ऋते तान्न रोध्या, जीवत्वाधारभूता मलततिरहिता निश्चला अष्टदेशाः // 26 // आत्माऽस्त्यरूपो हगवस्तु कर्मणां, तथाविधा नेति कथं तयोर्युतिः ? / न चिन्त्यमेतद्युतिरच युग्मे, द्रव्यस्य धर्मादिषु सा यथा स्यात् / / 27|| स्थूलं शरीरं यदि जीवयोगि, प्रत्यक्षमेतहि कदाशयोऽन्यः / अनुग्रहे शक्तिभृतश्च निग्रहे, कर्माण्यतस्तानि रसादिमन्ति // 28 // अज्ञानान्मतिविभ्रमाद् व्रतहतेः क्रोधादितो योजनात् , हिंसारिघसञ्चयस्य सुचितेर्बन्धो न वार्यः कचित् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। वृद्धत्वेऽधिगतेऽङ्गपीडनमलं बाल्येऽनुभूताद्धते-...स्तद्वत्कर्मविपाकमेति विहिताऽवाधासमाप्तौ दृढम् - 29, प्राक् संसारे भवमनुसरता दुष्कृतं बद्धमल्पं, .: पाकस्तस्यानणुरिह भवति प्राप्तकालोऽसुमत्सु / .. वीरे देवे मदवधविमति श्रोत्रपीडाकृतेर्यद् .. .... ___ बद्धं तीर्थङ्करभव उदितं नात्रकं नैव पापे : // 30 // जैनः सम्यग् जिनपतिगदितं बन्धतत्त्वं विजानन् , नित्यं चेतोऽघरहितजनतापादपीठे विदध्यात् / साशङ्कानां भवति दुरितं निर्जरान्तं विवेकात् , सोऽमुत्र स्यादुपरि सुरवरे निश्चयाच्छुद्धलेश्यचुत्वा तस्मादधिगतनृभवः शाश्वताऽऽनन्दमेता (लाभः) 131 . . .. इति पोडशोऽध्यायः / सप्तदशोऽध्यायः / (निर्जराधिकारः जैनः स स्याद्धतिधनिकवरः सात्त्विकेषु प्रधानः, संधत्ते यो निखिलभवगतं कर्मणां प्राज्य (पूर्ण) राज्यम् / चेतो क्ते निखिलकुवृजिनोद्घातहेतौ सुधर्म, - मन्ता यद्वद् वृजिनसुविलयः - पाकतस्तद्वदेव, .. चीर्णात्तीवात्तपस इह कृतान्निर्जरायाः पदं तत् // 1 लग्नं जीवे पापमग्रे प्रभावा-दाहारादेः सर्वभेदेषु भावात् / यावन्न स्यात्सर्वथैतस्य नाशो, मुक्तेराशा तावता नैव सिध्येत् // 2 .P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199737 जैनगीता। यतो जातो व्याधिः कुपथचरणादेरनुपमो,. . . निरोधस्तत्त्यागान्न च कुपथकृद् रोगरहितः / / परं व्याधे शो विकृतिहरणे ये पटुतरा स्तदा जीवात्तद्वद् भवति विहतिः कर्मविततेः // 3 // मोक्षं न यः शिवमयं मनसाऽऽस्तुमिच्छेद् , . दुःखं क्षुदादिसहितं विविधं सहेत / सोऽघं क्षिणोति परमाश्रितमङ्गमार्ग स्तीनं करोत्यघमियं त्वपकामनाङ्का सूत्रे यतोऽग्नितपनादिकमाचरन्तोऽ.. धोगामिनोऽपि कथिताः प्रविराद्धभावाः / गार्हस्थ्यलीनमनसोऽपि विरक्तिकामा, आराधकाः परभवे कथिता जिनेशैः.. . मुक्त्यर्थता यदि भवेच्छिवधामसिद्धथै, ___कार्य भवेद्धविजनैभृगुपातमुख्यम् / वादाश्च सन्ति सम आस्तिकताञ्चिता ये, या मुक्त्यर्थिनः ततः इमे शिवभाजनं स्युः // 6 // मुक्त्यर्थिनश्चरमवर्तगताः प्रसिद्धा, वादान्विता अपि परे चरमावृताः स्युः / तद्यो जिनेन्द्रकथितं मनुते हि मोक्षं, ___ भव्यस्तदर्थनिपुणाश्च परत्र शुद्धाः / अकामनिर्जरावतां व्यथाऽमिता फलं लघु, . (जांधीनगर .... सकामनिर्जरे पुनर्महत्फलं व्यथाऽल्पिका हासागर हारसूरिटी श्री वि.३४२००७ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। श्रुतादयो यथा शमे हिं हेतवोऽनियन्त्रिता स्तथानुकम्पकादयो भवेच्छमो नवा ततः // 8 // . अकामनिर्जरां पृथग् जगाद बालतापना-. च्छ्रतं तदत्र कारणं बुधैः सुखेन गम्यते / इहत्यभोगलालसा नराः प्रथमपङ्क्तिका, द्वितीयपङ्क्तिकाः पुनः सुरर्द्धिभोगवाञ्छकाः // 1 // निर्जरा तपोबलं तपस्तु संवराश्रिते, कुतीर्थिनां पुनः प्रदाय नाकिता परां, च्युते / दुरन्तसंस्मृतिरभव्यसाधुता यथा // 10 // जिनेन्द्रधर्म आप्यते मले घने क्षयं गते, तथापि नैव लभ्यते शमोऽङ्गिना विनिश्चयाद् / भिनत्ति सप्तकं यदीह, सङ्गतः कुले वरे, ___ दर्शने विघातिनां तदा ध्रुवं शमं श्रयेत् // 11 // पृथक्त्वपल्यमानगा यदा ततः स्थितिः क्षये दयस्य तद्विरोधिनस्तदा मुनेः पदार्चकः / सदा हि श्रेणियुग्मयुग्मुनित्वलाभ आप्यते, . , .... : या च सयवार्धिमानगः क्षयो भवेत् स्थितेः // 12 // अन्धः कर्मततेः सदातनभवश्चेन्निर्जराऽकामिका, स्यादुरा स समेति देशकरणं मुख्यं यथावृत्तिकम् / अग्रे याति ततो विशालगुणभृद्भट्यो द्वितीयां कृति, - जन्तु विशमस्तृतीयकरणं याति प्रशान्ताम्तरः // 13 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। विमोहमुख्यकर्मणां ततः प्रभृतिवन्धनं, .. न कोटिकोटिसागरप्रमाणतोऽधिकं भवेत् / गते गुणेऽपि लङघनं न तस्य जातु जायते, रसोऽधिकस्तु पाततः समुद्भवेद्गणावृतेः // 14 // यथा यथा गुणावृतेः क्षयोऽङ्गिवीर्यवृद्धिज स्तथा तथा गुणावलेः समुद्भवो निरर्गलः / परे परे गुणे यथा गुणावलेः समुद्भव स्तदा तदाऽघवन्धनं गुणप्रभावतः क्षयेत् - // 1 // कषायाणां नाशो यदि च शमनं स्थान (श्रेणी) प्रभवं, - तदा बन्धः सर्वो विलयति भवाब्धिप्रजननः / परं बध्नात्येषोऽविरतयुजि यत्न उदितः, __ परं सा तं वेद्यं क्षिपति दुरितं प्राक् त्वतिघनम् // 16 / / यद्यप्येषा शुभगुणजननी निर्जरा पाप्मनां स्या- नैवाम्नाता शिवपदपरमे निर्जरा पुण्यभागे / बन्धाभावो यदपि सुकुतेरात्मशुद्ध युद्भवोऽसौ, . शुद्धं वस्त्रं स्वकगुणनिरतं नैव कौसुम्भवसनम् // 17| समस्तकर्मनिर्जरा सदा जनुष्मतां भवे, . भवेन्नवा विपाकभाग निर्जराविनाकृतः / देशतः परं सकाऽवशेषकर्मणां स्थितेः,. पुनश्च बन्धनं न तद् द्वयं शिवं गमे नरि (समस्तनिर्जरे)॥१८॥ उपात्तकर्मजारणं तु निर्जरास्वभावज, . . नवीनकर्मबन्धने न जायते ततोऽन्तरम् / ....... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। अतः समस्तकर्महानितो भवेद्गतार्थता, विमोक्षतत्त्वसम्भवस्य नव्यबन्धविच्युतेः // 19 / / समस्तकर्मनाशनान्मतं जिनेश्वरैः शिवं, परं न तत्स्वतत्त्वतो निजान् गुणान् सनातनम् / दधात्यनन्तमव्ययान् , स्वरूपतः शिवं नु त- . जीवरूपमेव तत्कृतिस्तु निर्जराश्रिता // 20 / / यथा हि निर्जरा शिवस्य साधनं कृतौ स्थितं, . तथैव बन्धनोद्धतिः परा शिवस्य साधिका / . परं न बन्धनोद्धतिर्विनास्ति कर्मनिर्जरां, परम्परा यतोऽनयोस्ततो द्वयं हि साधनम् // 21 // तपोऽघनिर्जराफलं द्विधा तपस्तु तत्पुनः , स्वरूपतोऽन्यतीर्थिकैः कृतं समं तु बाह्यतः / विचार्यतेऽनुबन्धिता न चात्र बाह्यताश्रिते ऽनवद्यतेतराश्रिता शरीरतापनाद् द्वयोः // 22 / / बाह्येऽस्मिन्नुदिता भिदो मुनिवरैः षट् तत्र मर्यादया, ....! तीर्थानां, क्रियतेऽनशनादिविरमो वीरस्य सच्छासने / पण्मासी प्रमिता, न चेद्भवति तां कर्तुं सहो मानवः, स्यात्तपसः परिपारणेऽवमपरो भुङ्क्ते प्रकामं न वै // 23 // बह्वाशी न सहो भवेदवमतां कर्तुं तदा सक्षिपेद्, वृत्तिं, वर्जति तत्सहो न विकृतीस्तद्धावितश्चेन्नरः / कुर्यात् क्लेशभरं तनोर्मदहरं, चेद्भावितोऽसौ सुखैः, नातं रौद्रसमश्चितं न च भवेत्तन्वेन्द्रियाणां क्षतिः // 24 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। कुर्यादिन्द्रियकोपनादिदमनं मोक्षाध्वहेतुं परं, ___ तत् षोढा तप उच्यते बहिरितं शास्त्रे पवित्रेऽनघम् / __एवं पूर्व विधानमार्ग उदित उत्सर्गतः सत्तमै . रन्त्यान्त्यादरणं परे पथि परं सेव्यं श्रुतोक्त्याहतैः // 25|| यद्वाऽव्ययार्थ प्रयतो नरः स्यात् , पापस्य रोधे विगमे च सक्तः / भवेत्तथा चेन्छुचिभावनो भवेत् , स चेन्द्रियादेर्दमनान्न चान्यतः / / 26 / / सिद्धिस्तदीया तनुतापनादे-भवेद्विरामे विकृतेस्तु तत्पुनः / .. सङ्क्षेपणेऽसौ भविताऽटनादेः, कुर्याच तच्चेदवमोदरश्रमः // 27 // कुर्यात्स एवं मतिमानवमोदरारों, यः स्यात् क्षमोऽशनमुखोद्वमने समर्थः / सम्बद्धता यदि मता विधयाऽनयाऽपि, क्षुण्णं न चैव जिनमार्गमुपाश्रितानाम् // 28 // आन्तरे तपसि पड्विधेऽहंतां, योगमुख्यजातमह उज्झितुम् / शासने विधिः समुद्घतो, न स, स्वप्नगोऽपि तीथिकेषु दृश्यते / / 29 / / . गवादिपोषणैः परेऽघशून्यतां, वदन्ति तामुपोषणादिभिर्जिनाः / योग्यतां विनीतगां गृहेशि परे, जिनास्तु पापवर्जकाश्रिताम् / (गृहाश्रमित्वमेव वीजमुद्धतौ, गुणैर्युतत्वमाहताः सुकृत्यगैः) // 30 // वधादिदेशिकाः श्रुतिस्मृतीः परे, शिवाध्ववाहा गमांस्तु पाठने / क्षितीश्वरोर्ण संश्रितं परे जगुः, जिनाः पदार्थपापनिश्चयादिचिन्तने / / 3 / / / त्यागमेकमेव जीवने जिना उपाधिमान्तरेतरं पुनस्त्यजौ। : तदेतदान्तरं तपस्तु पड्विधं, सदाऽऽश्रितं जिनेश्वराध्वगामिभिः // 32 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। आश्रवाः समुत्थिता अघोदयात् , केचन क्षयमुखोद्भवा अपि / ' संवराश्चरणमोहनाशजाः, बन्धनं शमादिमोहजं पुनः / , नु भावमाश्रयेत्तपरित्वदम् // 33 // चरणमोहनाशतस्तपो ननु स्थायि यत् शिवे पदेऽघभावतः / नोदितं ततोऽद आर्यसत्तमै-हेतुकार्यहानितः शिवाध्वनि // 34 // जैनो मोक्षाध्वयायी न च भवरतिमान् चारके यद्वदाढ्यः, क्षिप्तो निस्सर्तुमिच्छेद्विविधविधिपरस्तदेषोऽपि नित्यम् / कर्मान्दोभञ्जनाय सततमुदितधीः संवरे निर्जरायां, बुद्ध्वा मोक्षाप्तिवीजं सरति तप इदं निर्जरानन्यहेतुम् // 35 // इति सप्तदशोऽध्यायः / अष्टादशोऽध्यायः / (मोक्षाधिकारः) जैनो यः स्पृहयेन्ननु सदा मोक्षाय संवेगभाग , निर्विण्णो भवचारकात् करुणया सिक्तो द्विधा दुःखिपु / / आस्तिक्यादिगुणान्वितः स्वरमणः शान्तारपदं निस्तुषं, . भक्त्यहाँ गुणकाक्षिणां शिवकृते स्वर्गादितुच्छं फलम् // 1 पर्यन्तभागे गदितोऽयमाप्तैः, परं तदाप्तेन हि संश्रवाः किल / तदाश्रिता नैव परेऽपि भावाः , सनातनो मोक्ष इतः शुभं न वै // 2 अनन्तविज्ञानमनन्तदर्शनं, सातं ह्यनन्तं निजरूपजातम् / / अनन्तसम्यक्त्वमनन्यरक्तिं, समग्रशक्त्याव्यमजं यजेत् सदा // 3 HILLILITIE P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। न गर्भवासोद्भवमस्ति दुःखं, न जन्मभावोत्थममानरूपम् / च्याधिन शोको न च नैव वाय, न चान्तकोऽस्मै प्रभवेत् कदापि // 4 // न चास्ति संसारभरेऽपि (च) किञ्चित् , स्थानं जनुमत्युविहीनरूपम् / भयं च सर्वासुमताममूभ्यां, न वारणीयौ भवतोऽव्ययं विना // 5 // अस्मिन् भवे नास्ति चतुर्गतिष्वपि, स्थितिवेद्यत्र सदैकरूपिणी / पूर्णाग्न्यनित्या रमणी स्वरूपे, सा सिद्विभाजामपुनर्भवानाम् / / 6 / / अतीतकालेन शिवं गताः पुन-स्तथैव भाविन्यपि भव्यजीवाः / अनन्तमाना न तथापि भरै-विनाकृतः स्याद्भव एव नूनम् // 7 // यथाऽन्त्यवार्धेः पृपदुद्धतौ न, क्षयो न चोनत्वमपारभावात / असङ्ख्यभावान्तरिता तु तत्र, भागो ह्यनन्तस्त्विह सर्वकाले | कल्पे प्रयात्येक उदस्तमृत्युः, शिवं तदा तेऽतिगता अनन्ताः / अनन्तविज्ञानवियुक्तिभाग्भि-मुक्तिं गतानां मतमत्र जन्म // 9 // सञ्जायते जनिरमुत्र दधाति कर्म, सत्तागतं तदपि चाष्टविधानरूपम् / * यस्यैकमस्ति न तु कर्म स जन्मधारी, स्पष्टोऽकृतागमभवः प्रबलो हि दोषः / // 1 // आकस्मिकी भवंति चेजनिकर्मसत्ता, निर्वाणमेव न भवेजनिकर्मभावात् / दानादियुक्ता निखिला हि धर्मा, कर्मद्रुमाम्बुदसमा न तु मुक्तिनिघ्नाः // 11 // मोनो न चष भवगामिदशायतश्चे ____ जन्मादिदुःखखनिरेष भवोऽन्यथा न / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। ज्ञानाद्यमोघगुणसङ्गतिरत्र नार्हा, ...यत्रास्ति कर्म भवसन्ततिकार्यदक्षम् // 12|| मुक्तानां नहि मोहनीयसदृशा दोषा भवेयुः क्षणं, .. ____ तन्नायुनं च जन्मजातिसहितान्यहांसि लेशादपि / तेषां चेद् भवकूपपातविपदो देयोऽञ्जलि स्तिके, _ यन्न्यायेन हि तेन सिध्यति वचो राद्धान्तशिष्टं क्वचित् // 13 // सूर्यादयो मास्वरभावभाजो, यथाऽनपेक्षाः परकार्यभावे / मुक्ता अपि स्वात्मरमा न किश्चित् . कदापि कार्य परमुट्ठहन्ति // 14 // वस्त्वस्ति विश्वे त्रितयोन्मुखं य-जन्मस्थितिक्षीणदशानुयायि / ज्ञेयाद्यपेक्ष्या गुरुलाघवादि-व्यपेक्षया काऽव्ययमाश्रितेषु // 15 // स्थिताः शिवे यद्यपि मुक्तिमाप्ता-स्तथापि भव्येषूपकारमग्यम्। वितन्वते यद्वदिहेतिहासाः, पराक्रमन्ते परवीर्यवत्सु // 16 // पदं न मुक्तेर्यदि चेन्न सम्भवि, मार्ग दिशेयुर्जिनफा नु कस्य / सञ्चालनं सूस्विरा अधीति, श्रीवाचकाः साधवः साधनं तु // 17 // यदाऽव्ययं नैव पदं भवेत्तदा, धर्मक्रिया नैव फलाय योग्या / यतो दिवौकःप्रभृतिर्न नित्यं, शस्या न विद्वद्भिरधोमुखी श्रीः // 18 // परैः कृताऽतुल्यसुखा सुसम्पत्, न तोषदा वीर्ययुजां नराणाम् / संसारचक्रे निखिलेऽप्यसूनां, विचेतनार्थप्रभवा सुखश्रीः // 19 स्वाश्रितेषु रमणं शिवाश्रिते-निदर्शनमुखेषु वस्तुषु / सर्वकालभाविषु वरेषु तु, धर्मिणां परं धृतेः पदं नहि // 20 // रूपिणामपि न काचिदाहतिः, सूक्ष्मताधरेषु तेजसामिव / मुक्तिमाश्रितेष्वमूर्तता गुणात्, स्थानमप्यमितजीवसंश्रितम् // 21 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनमीता। | यथाऽग्निधूमादिषु पूर्वयोगा-गतिस्तथैपामपयोगयोगात् / धर्माद्यभावात् परतो न लोकाद्, मुक्ताँस्ततोऽग्रे स्मरतु स्वलीनान् // 22 // यथोपनेत्राद्विपुलं समीक्षते, सदोषदृष्टिः पुरुषस्तथाऽत्र / अचेतनेभ्यः सुखसम्पदिद्धा, निरङ्कदृष्ट चा तुलितं शिवे सुखम् / / 23 / / आत्मैव कर्म कलयेदणुसंहतत्वा-द्यत्रास्ति नैव कलनाऽणुसमूहजाता। नित्यं शिवं शिवपदं कलुषादिहीनं, मुक्तेः पदं ननु निरञ्जनमीहनीयम् // 24 // प्रत्यात्मदेशं निखिलार्थवित्त्वं, परं न चैकार्थगतो विभिन्नः / कस्यापि जन्तोरुपयोजनादर-स्ततोऽखिलात्माऽखिलवस्तुवेत्ता // 25 / / अक्ष्णोर्यथा भिन्नतमो न चैवो-पयोग उक्तो विगुणात्मनोरपि / तथा समस्तार्थविदां क्षणे क्षणे-ऽभेदो भवेज्ज्ञानहशोः सदैव // 26 / / प्राक्केवलात् स्यादुपयोगयुग्मं, मिश्रोऽस्ति भावो मनसश्च वेगः / शिवे न तावात्मस्वरूपभावाद्, भवेन्न बाधा क्षणवोधदृष्टयोः // 27 // भिन्नेऽथ कालेऽप्युपयोजनं चे-नासौ प्रभावः परभावजातः / जीवस्वभावोऽत्र तथाविधाने, हेतुर्न चैवं शिवरूपबाधः // 28 // न जन्म तत्रास्ति ततो न काय-स्ततश्च संयोगवियोगजन्यम् / दुःखं न सौख्यं न निजात्मरूप-सुखोपभोगैकवसुः परात्मा / / 29 / / शिवं स्वरूपात्मकमेव तत्त्वा-नोत्पाद्यमाविर्भवति स्वरूपात् / न तत्र यत्नः पुरुषार्थभावात् , समग्रकर्मप्रलयः ततः सः // 30 // बन्धाभावो यदि च सुगुणतो निर्जरा चेत् समस्ता, श्रेण्याद्याप्तेः प्रवरगुणगणोल्लासिवीर्यप्रभावात् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। नव्यानां चेद् भवति न युतता. कोऽत्र मोक्षे विलम्ब............. स्तत्प्राज्ञानां शिवपथचरणे शस्त एवोद्यमोऽत्रः ||31|3= हितावगूढा हतकर्मशात्रवा-प्राप्तस्वधर्माः शिवधामसङ्गताः / / भवन्ति. संसारभृतां सुमङ्गला, अर्थात्रयस्तत्र सुमङ्गलस्य वै // 32 // स्वयं भवेद्यो भयलेशवर्जितो, भयं परेषां क्षपितुं क्षमः पुनः। . शरण्यमेषोऽत्र शिवं गतास्ततः, सर्वाघभीतेर्व्यतीताः शरण्यम् // 33 // लोकोत्तमत्त्वं गुणराशिलभ्यं, निष्पक्षकेषु. प्रवरात्मभावात् / सदातना ऊनविपर्ययोज्झिता, आप्ता गुणा येन कथं तथा ते ( तदाश्रयाः) // 34 // प्राप्त्यै शिवस्याऽलमुदासभावो, रत्नत्रयाराधनसम्प्रयुक्तः / नाग्न्यं न वेषों न विशुद्धजाति-वंशः कुलं नो भरतादिजन्म // 35) यथा गुडस्यापगताश्रयस्य, पूर्वाश्रया स्याद्विविधाऽसमाऽऽकृतिः / शिवं गतानां चरमाङ्गतुल्या-ऽऽकृतिः परं पूरणतोऽवमा स्यात् / / 36 / / ज्ञाने सदा दर्शनसंयुते परे, प्रयोगवन्तः सुखसम्पदाव्याः / / सदैकरूपाः स्मृतिजापचिन्ता-पूजापदार्हा भविनां तु सिद्धाः // 37 // जैनः स एप परमार्थतया शिवैषी, ' ' मोक्षस्य मार्गमनिशं पुरतो जनानाम् / .. यक्ति प्ररूढरतिको मुनिमार्गमर्थ, शेषं त्वनर्थमहितं दृढमार्गधारी.... // 38 // ____ अष्टादशोऽध्यायः // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। / एकोनविंशोऽध्यायः / ( अहिंसाव्रताधिकारः) / जैनो मन्यत आस्तिकेषु परमो नैवाघमुक्तिनणां, पूज्याराध्यपदालिलीनमनसो ज्ञानाच्च तत्त्वावलेः / / शुद्धं तन्मन उज्झतीह दुरितं ज्ञानं तथा तत्फलं, धर्मो हि प्रथमो मतः स विबुधैर्यः स्यान्छुभाचारवान् / / 1 / / / वृन्दे सोऽधिपतिर्भवेद्य उदित-स्वाचारमग्नो भवेत् , सर्वज्ञो विगताघसन्ततिमलश्चारित्रमन्त्यं दधत् / ख्यातं रूपमलङ्घयत् सुविहिताचारं कषायोज्झितं, प्राप्त्यै तादृशमीश्वरं जनिरियं मे धन्यतामाश्रिता // 2 // अभ्यासयत्नोभयसाध्यमाय - राख्याय्यनुष्ठानमुदितिप्रतिष्ठम् / कार्ये समस्ते द्विविधो भवेत्तत् , सिद्धस्तथा साधकभाववर्ती // 3 / / सर्वज्ञा जितरागमुख्यदुरितास्त्यक्ताऽशुभध्यायिता, आचारेषु निरङ्कचारुचरणास्तत्सिद्धतामाश्रिताः / ये तु स्युः सततं चरित्ररमणाः कर्मापहारेप्सवः, किञ्चिच्चित्तमवाध्यकर्मविहिताद्वाध्यं धरन्तः परे // 4 // परस्तीध्य देवा अभिमततमाः स्वर्गशिवदा . स्तथा ये चोपास्यापदमनुगता गुरुपदगाः / / न केषाञ्चित्तेषां दुरितरुधिपरावृत्तिरणुरपि, तथापि प्राबल्याज (प्यर्हा वृत्तिर्ज ) ननिचयगता - जैनकृतीनाम् // 5| जीवानां हननं मषोक्तिरपरर्दत्तं न यत्तद्ग्रहो- . . / ब्रह्मार्थग्रहणं च पापसचिवास्त्यागरत्वमीषां वृषः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.SJun Gun Aaradhak Trust Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। . एवं सत्यपि ( वस्तु ) चिन्तनपरास्तेषां वचो मन्वते, मिथ्या यन्न परीक्षकेषु लभते ख्यातिं व्यलीकोक्तिमान् // 6 / / आये तत्त्व (धर्म) तया मते वधयमे नोक्तं परैः किचन, __तादृग्वाक्यमुदारभावभवनं नैवाहिताः पालकाः / नोक्तान्येव वधस्य शुद्धविरतौ सत्साधनानि श्रुते, मोक्षादिर्न फलं मतं वरतमाऽहिंसाहतानां कचित् // 7 // जीवानां हनने सदैव निरतास्ते धिक्कृता नैव तै नैवैषां दुरितार्द्रचित्तवचसां प्रेत्याऽशुभोक्ता गतिः / संसारे सरणं भयङ्करतरं दुःखौघसंदीपनाद्, दिष्टं जीववधावलीढकृतिभिः शास्त्रे स्वकीये क्वचित् (नहि) // 8 // स्वरूपं जीवानां विदितममलं नैव कुमतै र्यतः प्रोक्तं भिन्नं तदिह भवभृत्सु प्रभुपदे / ततो भाव्यं तैः स्राक् त्रितयदलवाग्भिरनिशं, भवेत्तत्त्वं भिन्नं किमुत नहि संभिन्नपदगात् // 9 / रारट यतेऽशेषकुतीर्थिकैरिदं, हेयो वधः प्राणभृतां प्रकामम् / परं यथा नाऽस्य फलादिवाच-स्तथैव भेदोदितयोऽपि नैव // 18 // गतीन्द्रियाद्या जिनपस्य शासन, भेदाः प्रगीता न तथा परस्मिन् / प्रत्यक्षतन्वादिपरिणतीनां, क्षित्यादिषु प्रेक्षणतोऽसवस्ते // 11 // ये स्थावराणां पृथिवीमुखाना, जीवत्वमाहुन विमुक्तबोधाः / ते निष्कराशिं प्रविमुच्य शुद्धा, भवन्ति कार्षापणदानदक्षाः // 12 // यो जीवराशिः स्थिरताश्रिताना-मनन्तभागेऽस्य परोऽस्ति राशिः / अन्योऽन्यगाहस्य परे न सत्त्वं, भवन्ति तत्तेऽनिधनाः कथं स्युः // 13 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। सत्यं गृहस्थैः कृषिमुख्यरक्तै-धो न चैषां परिवर्जितुमलम् / तथापि किं दोषकरैरदौष्ठयं, वक्तुं न शक्यं शुभबुद्धिमद्भिः // 14 // पट्कायगं ये परिवर्जयन्ति, वधं व्रजेयुर्मुनिभावमुग्रम् / / गृहाङ्गनाद्रव्यशरीरमौढणं, त्यजन्ति मोक्षाध्वगमैकबुद्धयः // 15 // महाव्रतं प्रोक्तमिदं त्वमीपां, त्रिधा विधा कालमशेषमूढम् / घटकायिकानां वधमह आढयं, त्यजन्ति यावज्जीवमुद्धताघाः / / 16 / / नालम्भविष्णव इमां निखिलाङ्गिहिंसां, हातुं न ते शुभहृदः प्रतिजानते ताम् / शक्यं न यत् प्रतिपदं पचनादिसक्ते मिथ्याव्रतं च नहि ते प्रतिजानते वै // 17 // वधं ते बसानां विकल्पान्निरागो-गतं युक्तमुद्धाय सास्त्यिजेयुः / परं भावनां ते सदा धारयेयुः, समाङ्गिश्रिते घात आप्ता मतान / / 18 / / गार्हस्थ्यमाश्रित्य सदा विहिंस्युः , क्षित्यादिकान् स्थावरभावमागतान् / पटकायरक्षोद्यतचेतसोऽमी, नानर्थकं स्थावरगं च हन्युः // 19|| एतेऽणुव्रतधारका यदि परं स्युः साधुभावोद्यता, - आरम्भादि विहाय संश्रितकुलाः कुर्युर्दशैकाञ्चिताः / शास्त्रोक्ताः प्रतिमा यदा स्थिरहृदो गृह्णन्ति सत्साधुता1. मन्ये तद्रहिताः पुनमुनिपदं शीघ्र ग्रहीतुमलाः // 20 // नन्वेकत्र विशेषणं भवतु वो हिंसादिपापोज्झितौ, - श्राद्धानामणु वा महन्मुनिवरे सार्थक्यमेवेदृशे / सत्यं तद् गृहिणां न सर्वनियमाङ्गीकार आवश्यकः, ___ साधूनां निखिलात्रिधा त्रिविधया त्रैकालिकास्ते यमाः // 21 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनगीता / अन्यच्चातिचरेद् व्रतं मुनिवरो ह्येकं तदा सर्वगो तिचारो न परेषु शीलनिचयः स्युः सर्वदा सर्वथा। तद्योग्यं गृहिसाधुगं सुपुरुषैर्युग्मं विशेषान्वितं, .., याऽपेक्षा श्रुतधारिभिर्नियमिता तां वेत्ति तात्पर्यवित् / / 22 न सर्वतः पापविवर्जनं मतं महाव्रतं किन्तु परापि सक्रिया / / :: यतोऽभ्युपेत्यैतदुवाच साधुर्विहारमहँ ननु योजयिष्ये / / 23 शय्या भूमौ नियत उपधिर्जुश्चन केशतत्या, वैयावृत्त्यं सकलमुनिगतं सर्वदा पाठयत्नः / आचार्येषु प्रथितगुणगणेष्वर्पणीयः स्व आत्मा, धार्यः सर्वो मुनिगण उदयी मोक्षमार्गे सहायः // 24 गृहस्थानां कश्चिन्न च परिचयो याचनमृते, :: यतः सेव्यास्ते स्युर्दहननिचयं यद्वदितरे / / सदाचारा रक्ष्याः शिवपदकृते पञ्च विधिना, .. / न काप्यर्हे स स्यात् प्रमदसहितः शास्तृकथिते // 25 ज्ञातं स्नुषाया मनसि प्रधार्य, पैशाचिकज्ञातयुतं मुनीन्द्रः। .. सदा भवेत् पाठविधौ प्रवृत्तः, कथानके सत्पुरुषावलेश्च // 26 यथा नृपः स्यात् प्रथमं प्रजाया, हितैषितागू र्मुनिराडपीह / घटकायराशेः प्रयतो हितेषु, लोकोत्तराचाररहस्यमेतत् // 27 नैवाऽस्य शत्रुर्न च मित्रमस्ति, समश्च भावस्तदिवाहतेषु / जगज्जनस्तस्य हिताप्तिपात्रं, मानेऽपमानेऽपि समश्च स स्यात्॥२८ असंयमाद्यं विधिना प्रजह्या-दाशातनान्तं मुनिरुग्रवीर्यः। - संलेखनाद्यं च मृतेः समीपे, शिवैककाङ्क्षः कुरुतेऽप्रमत्तः // 29 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। प्राणातिपाताद्विरतिः श्रुतोक्ता, भावी घधो नैव च जीवतत्त्वे / / भाधान्वितेषु प्रलयोऽत्र दृश्य-स्तक्तमेतद्धयभिधानमस्य -- // 30 // अतः प्रयुक्तं श्रुतवारिराशौ, शुद्धः पदं प्राणवधानुसृत्या / नो चेत्समग्रेऽपि समानभाचे जीवे हते स्यात् कथमंहसां भिदा ? // 31 // पुण्यानां निचयः क्षयोपशमिताऽनन्ता च चेदात्मनि, ___स्याद्वृद्धिः करणस्य सन्ततिगता स्पर्शादिकं संश्रिता / तन्नाशे सकलं बलं विलयितं तज्जीवगं हन्तृभि रेवं च गृहिणां सेषु विरतिः शोभास्पदं गीयते // 32 // शाघायां ननु जङ्गमेपु विरतेः स्यात् स्थावराणां वधे, साधूनामनुमोदना भयवती त्यागस्त्वमीषां यतः / सर्वस्थावरजङ्गमाङ्गिविषयो ( हनने ) यावद्भवं सर्वथा, स्याञ्चषाऽनुमतिस्ततश्च विरतेर्भङ्गोऽतिदुःखावहः // 33 // श्राद्धाः किं त्रसराशिसङ्गतवधं स्वीयेन तन्त्रेण ते, प्रत्याचख्युरुताऽनगारसमीपे द्वेधाऽपि नाहँ त्विदम् / .. यस्मात् स्याद् व्रतधारणं गुरुमुखान्नैव स्वयं साधनं, .. तब स्यादनुमोदना स्थिरवधे दुष्टा गुरूणामपि // 34 // सत्यं चेद् गुरवो दिशेयुरखिलं घातं प्रतिज्ञोचितं, नो प्राक् तत्प्रथमात् परं यदि तके प्राहुः पुरस्तस्य चेत् / __ त्याग स्थावरजीवगे पहनने स्युस्ते तदा दोपिता, . आदावस्य समर्थने न शकितस्तत्कर्तुमल्पोद्यमः // 35 / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता ततं स्थावरहिंसनेऽसुनियमं कर्तुं गतोत्साहर्क, दृष्टा जङ्गमजीवनाशविषयां दगुः प्रतिज्ञां पराम् / पुत्राणां हनने नृपः प्रयतते घण्णां लघुन्यागसि, :-. : श्रेष्ठयेकं तनुजं धरन्न भवति द्विष्टोऽपरेपूद्यमात् // 36 // प्रव्रजतां यतिनां कुलं प्रजहतां दोषो न कि क्लेशज-.. . स्तस्येत्थं लपतो भवेद्गणपतेहत्या समा मोहिता। - यद्भावावनमेव तद्विधिकृतं हानं न सङ्कलेशिता, ..... ना. मत्तेप्सितवस्तुदाननिपुणाः प्राज्ञा भवेयुर्जने // 37 // प्राप्तो दीक्षा निवृत्तिपदक- सद्गरूर्णा प्रसादात्, त्यक्त्वा हिंसां सकलतनुभृतां याति देशान्तराणि / नद्योऽनेकाः स्वपरविषयगा उत्तरेत्स प्रचण्डा, ... इत्यादीनि हननविरतेर्वाधिकानि न किं स्युः // 38 // सत्यं हिंसा सकलतनुभृतां त्यक्तवान् प्रव्रजन् सन् , तत्रोक्ते द्वे मुनिपतिमहितैः कारणे कर्मबन्धे / रागो विट् का नहिं भवति मुनिः संयमी तद्विलिप्तो, यद्वत् सिध्यन् हृदमुखमयितो नाघलेशेन लिप्तः // 39 // जैनः स स्यात् प्रथिततममिदं रोचयेत् सव्रतं यो, क्यः कुर्याद्विगतरतिको वर्जन घातनायाः / / सत्यं यद्वत् प्रतनुबलभृज्जायते मलयोधी, ... . यः स्यानित्यं पटुतस्करणोऽभ्यासमेषोऽपि तद्वत् // 4 // . . . . . . . इत्येकोनविंशः अध्यायः / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / जैनगोता। 67 / पिंशोऽध्यायः / (सत्यव्रताधिकारः) . द्वितीये व्रते योऽभिसन्धत्त आप्त-स्त्यागं मृषावादसत्कं प्रगीतम् / जैनत्वयुक्तो मनुते मुनीशं, यः स्यात् सदा तद्धरणेऽप्रमत्तः // 1 // यदत्र लोकाः प्रवदन्ति सत्यं, निरूपणीयं, तदिदं न चारु / .. त्रैलोक्यबोधोद्धर आह विश्वे, कथं समग्रं विदितं प्रतिक्षप्पम् // 2 // चाच्यं तदेवात्र यदेव सत्या-ञ्चितं न सत्याञ्चितमुच्यते खलु ! एवं व्रतं चेन्न वरं यदेवं, न निर्धनो वाच्य इहामरेशः // 3 // सत्यामृषालक्षणविप्रमुक्ता, भाषा सदा विज्ञवरैः प्रयुक्ता।.. लोकप्रवृत्तं व्यवहारमाप्य, कथं तदेतद् व्रतभृत् प्रवति / ...|4| मृषावादयुक्तं वचो वर्जनीय-मिहेति व्रते प्राहुरत्युग्रबोधाः / विरुद्ध प्रतीतिं विदध्याद्वचो य-द्वाच्यं तदेतन्नहि शुद्धचेतसा // 5.3 अतत्त्वं तत्त्वं यो निगदति परान् बोधविमुख- ....... ___ स्तदाऽसौ मिथ्यात्वी भवति नियतानन्तभरिकः / सुषावादोऽप्येवंविध इति पृथक्त्वं किमु तयो- .. न सर्वोऽस्मात् सहम् भवति विरतस्तत्कथमिदम् / 36 // उपादेयमर्थं वरे मोक्षमार्गे, वदेद् यस्तकं हेयतारूपरन्तम् / हेयं तथा वक्ति पुरः परेषा-मर्थं झुपादेयतयाऽऽप्तमार्ये // 7 // प्रत्याख्येया मृषोक्तिर्भवति जनहदि बोधध्यान्न्यं च्या सा, .... प्रोक्तं तस्मान्मुनिपतिभिरिदं सद् द्वितीयं तु / एवं शुद्धं वचस्तु प्ररहितमणुशो लोकमिथ्याप्रकार- .. निश्शेषे द्रव्यभागे रागरोषप्रयुक्तम् // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। चतुर्विधं गीयत एतदाप्तैः, सल्लुप्त्यसद्वादनतो द्वयं भवेत् / द्वयं तु गर्दाऽर्थपिधानतस्तथा, यथायथं तद्वयवहारमार्गे . // 9 // तत्त्वस्य गानेऽपि चतुर्विधं तद्, हेतुः फलं चास्य सुमार्गलोपः / / गीता ततः सत्यतया गिरा सा, याऽऽराधनीति प्रतिबुद्धमार्गः।।१।। लोके यथाऽनुगत आह सूर्य, समुद्गतं ह्यस्तमितं त्वस्तमेतम् / / गवादिवस्त्वाश्रितमन्यथार्थं गुणान्वितस्यापि तथैव गर्दा // 11 // आराधनापक्षमुपेत्य योक्ता, जीवादयः सन्ति न चैव लोके / असङ्ख्यमाना भुवि लोकभागा, सतामपभ्राजनमार्षलुप्त्यै // 12 // सदृष्टयो ये वितथोक्तिशून्या-स्तथ्योक्तिशून्या अपि शुद्धदृष्टयः / या गीः समाराधनमार्गरूपा, न लेशतस्तत्र विरुद्धवादः // 13 // शस्यौघवज्जीवदयाऽत्र मुख्या, व्रतानि शेषाणि वृतेः समानि / ' सद्घातकाले ह्यपवादभाञ्जि, मृगादिरक्षार्थमतो मृषोदितिः // 14 // कृत्वा निवृत्तिं प्रथमाघधाम्न-च्छद्मस्थभावाच्च भवेद् व्यथाऽस्याः / तां शोघयेन्नैव मृषोक्तिमान् ना, त्याज्या ध्रुवं सा वृजिनोघभीतैः / / 15 / / यधादयः कर्तृविबाधकाः परं, गणस्य बाधां तनुते मृषोक्तिः / ब्रुवन्ति विज्ञा व्यवहारजातं, सत्यप्रतिज्ञं प्रकृते विवादे // 16 // एकत्र सर्वाणि भवेयुरहः - स्थानानि, पक्षे पर. उक्तिरन्या / तयोर्मपोक्तावधिकाऽघताति-यंतो न तद्वान् व्यवहर्तुमर्हः // 15 // जिनेन्द्रसूत्राद्विपरीतवादी, भजेदनन्तानि जनूंषि नित्यम् / बोधिर्भवेदस्य यतः सुदुर्लभः , परानृतोक्तौ तु विकल्पधाम // 18 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / अन्तर्मुहूर्ताद्भवतीह मुक्ति-मिथ्यादृशां यद्यपि शुद्धमार्गात् / उत्सूत्रवाचां तु स एव दुर्लभो, भवेऽत्र तद्वद् च भवान्तरेष्वपि // 19 // अतीतसङ्ख्याः परतीर्थिका जने, श्रुते तु सप्त श्रुतमार्गबाधकाः / प्रोक्ता यतः स्युर्गृहभेदिनो जनाः, प्रचण्डदस्युभ्य उदारचण्डोः // 20 // गोशालको यद्यपि मृत्युकाले, सम्यक्त्वमाप्तस्तदपि प्रयाता / भवाननन्तान् जिनवीरवाचो-ऽन्यथाकृतौ सन्ततमाप्तमोदः // 21 // उत्सूत्रवाचो न नराः पराक्या-स्तत्त्वेऽपि यन्नैव तदुक्तिमाश्रिताः / श्रुतोक्तिबाह्या इति ते न जैना, अव्यक्तताढ्या इति शास्त्रकाराः / / 22 / / यत्र पृथक्त्वे न जिनेशमार्गाद्, वित्ता जनेषु व्यवहारिकेपु / तत्राऽन्ययूथीयवदेव तस्मै, कृते कृतं कल्प्यत आर्हतानाम् // 23 / / जनो भवेद्दष्षमयाऽर्हदुक्त-मार्गावबोधी सुरुचिश्रितश्च / अल्पः, प्रभूताश्च भवेयुरई-दुक्तेतिमत्या विपरीतवृत्ताः // 24 // यथा ह्यशक्तो निखिलाङ्गिहिंसा-विवर्जनेऽसौ सघातवर्जी। तथाऽत्र संसारगतो न सर्वा-नृतोक्तिहानौ प्रभुतापदं स्यात् / / 25 / / स्थूरानृतोक्तेविरतः स जह्यात् , कन्यापशुक्षित्यनृतानि नित्यम् / लोके यथाऽसौ भवति प्रतीतो, न स्यान्मृपावादपरः पुरुषः // 26 / / जनेऽपराधस्य विनिन्दितो यथा, कर्त्ताधिकस्तत्र भवन् हि साक्षी / सञ्चिन्त्य न स्यात् प्रतिभूस्तथात्वे, न्यासे न लुभ्येच्च परेण दत्ते // 27 // विवर्जयन्नेवमसत्यमुग्रं, क्रमेण सर्वानृतवर्जनाय / भवेत्समर्थो विदधाति दक्षता, लघौ कृतोऽभ्यास उदारभावे // 28 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। ज्ञेया जिनाः सुगुरवो विविधाश्च धमैं-. .. .... ".. . भव्यैर्जिनेशगदिताऽऽगमशुद्धवाण्या / चेत्तां करोति विपरीतपदार्थनिष्ठां, . . . .. कोऽन्यो भवेत् सुकृतिनामपरो हि वैरी // 29 // त्यक्तं गृहं धनयुतं निजका जनाश्च, .... दीक्षा धृता गुरुजनः परिचारितश्च / तप्तं तप उदितमोहरजो विधूतं, कृत्वा पुरो जिनपतेर्वचनानि चित्ते / // 30 // ___ चेत्तानि लोकवचनैर्न हृदि ध्रियन्ते, लोकानुसारकृतये निजमानसाऽऽस्थाम् / त्यक्त्वाऽर्हदागमगतां त्रिविधेन वृत्ति - हाहा हताश ! तटमाप्य पुनर्निमग्नः // 3 // दुर्वारजन्मजलधौ शिवमार्गदायि, जन्माऽऽश्रितो यदि तनोपि कुकर्मनाशम् / मार्गे जिनेशगदिते हृदयं समेति, भ्रान्तः सुभाग्य उपयाति सुवर्त्म वक्तुः // 32 // यद्येकमेव जनमानयतीह मार्ग, दत्तोऽखिलेऽपि पटहो हमारेः / लुप्त्वाऽहंदागमवचो भववारिराशौ, स्वाऽन्यान् जनान् निविशतो भविता गतिः का ? // 33 // लोकोपकारकरणैकनिबद्धकक्षा, . मोक्षप्रवीणमतयोऽङ्गमुखं वितेनुः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। शास्त्रं विबुध्य तदपि वितथोक्तिलीना: मन्धानुकार उदितेऽर्थकरे मणौ हा ! // 34 // त्यक्त्वा राज्यं राष्ट्रकोशादि दीप्तं, हत्वा मोहं निष्कषायं प्रयातः / कैवल्यं सन् देशयामास तीर्थं, तल्लुम्पन् हा [ भवगतिरमणो] . . निर्धनो देवतुष्टौ // 35 // एवं सत्ययमं सुधर्मपदगं मत्वा सदा तन्मना, यो जैनः स भवेद्भवेच्च मुनिषु प्राप्तप्रमोदोदयः / ..... तद्वत्सु प्रभुतापदेषु निहताघेषु प्रकृष्टां स्तुति; सर्वेषु स्वजनेपु मुत्कलमना यो वर्णयेत् सर्वदा // 36 / / ....... इति विंशोऽध्यायः // * / एकविंशोऽध्यायः / (अस्तेयव्रताधिकारः) . जैनोऽसौ मनुते तृतीययमने त्यागं परं दुष्करं, यत्स्यादर्पणमन्तरार्थधरणं तस्याहंदुक्त्याश्रितम् / चेत्तद् गृह्यत आत्मलाभरसिदत्तं तदीशैहुंदा, - न स्याद्दोषभरस्ततोऽतिबहुलो वज्यं ततो धार्मिकैः ||1|| चौर्य त्याज्यतया मतं परमतैः सर्व तथाप्येतक:: विप्रेणाहतकादि नोदितमिदं सौस्थ्यं न तस्येक्ष्यते / यद् व्यवहारपरायणेन गदितं चेद् गृह्यते सार्घकं, . . चौरोऽसाविति नो कथेत्तृणमुखेऽदत्ते गृहीते जनः // 2 // ग्राह्ये च धार्येऽपि भवेददत्ता-दानं तदीशेन यदा न दत्तम् / रदावलेगुह्यत' उद्धृतं न, तृणाद्यपि लेखकृते ह्यदत्तम् // 3 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। तिलापहाराय सुतः प्रवृत्त-श्चकार चौर्य नृपदण्डयोग्यम् / स्मत्वा स्ववृत्तं जननीविक्लप्तं, स्तनस्य मातुः परिकर्तनं यतः // 4 // समुत्सृष्टं स्वाम्यं स्वधनजनगतं सर्वविधया, . गुरोः पार्श्वे दीक्षां यदि च चरितुं स्वीयकथनम् / गृहीता यावत्तदपरजनगतं जीवनकृते, भवेद्याच्यं सर्वं यदि च भवतीहार्पितभुजः // 5 // अतोऽहिंसां धर्मे मुनिपतिरिहोक्त्वा वृतिकृते, जगौ साधोभिक्षाचरणविधिगं वाक्यनिचयम् / परस्तीय स्त्विष्टं सकलखदनं स्वीययमने, .. यतः प्रोक्तं प्राणावनकरणतोऽघं नहि भवेत् // 6 // भवेद् गृहस्थेषु परं मुनीनां, भक्तादि याश्चार्थगतौ विमानम् / तथाप्यदत्ते च परिग्रहेऽपि, व्रतोद्यतानां नहि दुष्करं भवेत् // 7 आश्रयाशनवसनपात्रगं, न केवलं मुनिस्त्यजेदनर्पितम् / अर्पितेऽपि धनिना तदिच्छया, भोग एव यतिनां व्रते हितः // 8 यत्र नास्ति धनिनः कचित् पदे, सत्त्वमाश्रितावनाय तु / / योग्यमेव तदपि याचितं भवेदवग्रहग्रहणमित्युदीर्य च // 9 // जिनेन्द्रशासने मताश्चतुर्विधाः, समर्पकाः धनी भवी जिनो गुरुश्चतुर्विधः। ततश्च तेषु याचना // 10 अन्तरायहानितो भवेत्तु लाभ आत्मन: स्ततस्तदर्पणाद्विना आहे तु लाभबाधनम् / परस्य सत्कमीप्स्यते विना व्रतस्य साधनं, तदापि लाभवाधनं भवान्तरेषु लाभहृत् // 11 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 73 जैनगीता। यदपि साधनमिष्यत आईतात् , तदपि संयमपोषणकार्यतः / गृहीतमप्यणु तद् भवेत् , कुलगणाश्रितमुज्झितमाश्रयैः // 12 // तनुमनोवचनानि परिग्रहो, गुरुपदेषु समर्पयतो न हि .... अननुमत्य गुरून् स्फुटमादात् , कृतिरदत्तपरिग्रहसङ्गकृत् // 13!! अनुदिनं तत आदित आहेता, मुनिजनाः सततं नितरांश्रिताः / .. गणिपदे वहुवेलविधि व्यधु-र्भवति चैवमदत्तसमुज्झनम् // 14 // स्वामिता तिरश्चि यावदात्मजीवनं भवे-.. ..... / - नरस्य पोडशाद्विका प्रसू पितुस्तु लौकिकी (ऽम्बयायुते च वप्तरि ) 1.... मतेत आरतः श्रुते मुदा हि शिष्यचोरिका, ...... सुसंयमार्पणं न तत्र रक्षणं तथाविधेः .. // 15|| याचित्वाऽऽहृतिवस्त्रपात्रनिचयं साधुन विज्ञापये-. ..... ... .. दाचार्यप्रमुखं स्वलाभरतिकस्तत्तद्महायार्थनात् / श्रेष्ठोऽसौ न मतः शिवाध्वगमने यत् सा महारोधिका , / 16 / / श्वासोच्छवासोऽपि साधोर्न भवति गणिनामाज्ञया वर्जितो नु, का वार्ताऽन्यस्य करणे चरणगतविधौ तस्य यन्न प्रभुत्वम् / . :कुत्राऽप्यर्थे यतोऽसौ न धरति तनुकं नैव गृह्णात्यदत्तं, . दुःशक्यं चेत्तदेतद् जिनमुनिविधयः सर्व एवंविधा चै - // 17 / / मुष्णाति धाटी विजने धनेशान् , मुष्णन्ति चौराश्छलमाप्य लोकान् / विमुष्य लोकान् छलशक्तिहीनाः, सर्व मदीयं कथयन्ति विप्राः // 18 // न चोपकाराय जनस्य चौर्य, यतो भयात्तस्य भवत्यतन्द्रः। ... * अनर्थकृन्नैव परार्थकारी, तथाऽत्र मुष्णन् परकीयमर्थम् // 19 // सर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 / जैनगीता। राज्ञोऽपि देशेषु परेषु सत्ता-कृते समित्यादिकृतिर्न युक्ता / ... चौर्ये कृतेऽन्योक्तिविरोधरोधौ, न्यायादपेतौ किमुत प्रशंसा // 20 // मुग्धान् प्रतार्यार्थक्षयं प्रतन्वन् , एतत् सहस्रैर्गुणितं प्रदाता / भवे परस्मिन् भुवनेश इत्यपि, वदन्नहा! किं जनतारिताभाक् / / 21 / / कार्य : निजैः श्राद्धमवश्यमायः, परेतमातापितृपुत्रमुख्यैः / इत्थं वदन्तो नहि दग्धवृक्षं, निषिच्य लोकान् फलभाजनं व्यधुः / / 22 / / मत्वा पापं चौर्यमाचर्य मूर्खाः, पातं श्वभ्रे निश्चितं ... . . लम्भितारः ( कुर्वते ते ) / चेद्धर्मेति प्रोच्य मुष्णन्ति मुग्धान् , काऽमुत्र स्यादर्गतिस्तादशानाम्।।२३ ये स्वं निगद्य परमेशतयाऽवतीणं, -'... भक्ताजनाद् द्रविणधान्यवराङ्गनानाम् / आदाय विष्णुवदिहाऽधमकार्यवाहा, __ हा हा ! स्वभक्तसहिताः कुगतौ कथं स्युः // 24 // भक्तान् मृतान् परगतौ सुखसाधनानि, - लेखं विलिख्य परमेश्वरतोऽर्पयामि / उक्त्वा. हरन्ति धनसञ्चयमाश्रितेभ्यः, . केऽन्ये मलिम्लुच इहाग्र इमेभ्य आत्थ (विधर्मवन्तः)।२५ एवंविधेषु कुमतेषु पटचरत्वं, दृष्ट्वा श्रयेद् व्रतपरान् गुरुदेवधर्मान् जैनः परत्र सुगतेनियमाद्धि पात्रं, यस्माद्विशुद्धमतयः ...... . . सुरसिद्धसौख्याः // 26 // यद्यपि शुद्धं धर्मं मत्वा, तद्वन्तं समुपास्य सुभक्त्या | गच्छति दिवमुदितात् शुभपुण्यात् , किमुताणुव्रतधरणे लीनः // 27 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। शुद्धो यो विदधाति संव्यवहृति तस्यैव धर्मों वरः, -1 पूजायामित उक्त एष शुचितां भावाधिकारे सदा / शुद्धिं सङ्गत एष एव मुनिभिर्धर्माधिकारी मतो, जैनोऽतो भवतीह सद्व्यवहृतौ रक्तः शिवेप्सुर्यतः // 28 // कलामधिकां व्यवहारमार्गाद् , गृह्णाति जैनो न परस्य पार्धात् / कलार्थिनोऽन्यस्य न दुर्दशायां, घृणा भवेत् किन्तु परो हि तोषः।।२९॥ द्रव्यादिनाशे जनिते कुवृष्टया-दिभिर्न लाभं प्रबलं प्रतीच्छेत् / भवेत् प्रशंसा जनिते ह्युपद्रवे, पापं च तस्या अपि घोरदुःखम् // 30 // प्रयोजयेत् स्तेनविधौ न चौरान , आनीतमर्थं न च तैः समर्घम् / ज्ञात्वाऽऽददीताल्पधनेन नैव, समानरूपं न दधीत वस्तु // 31 // प्रजाभिषिक्तो हितकृत्प्रजाया, नृपस्तनोतीह सुनीतिमीम् / व्यतिक्रमेनैव जिनेन्द्रधर्म, ज्ञात्वा सुनीतिप्रवरं स जैनः // 32 // मानं तुलां नैव धरेद् विहीना-धिकां यदेतद् व्यवहारि चौर्यम् / समाचारन् सद्व्यवहारमेन - मुपार्जितार्थेन सुपात्रपोषी // 33 // न चैष धर्मार्थमुपार्जयेद्धनं, चेत्तर्हि धर्मार्थमघानि सृजेत् / मृत्योविभीतो वृजिनाप्तिवर्जी, भवेत् सदा न्यायपरः स जैनः // 34 // कर्तारं प्रति गच्छतीह दुरितं नाकर्तृकं कर्म यत्, सत्यप्येवमसौ सदा विहरति प्राप्याऽऽर्हतं शासनम् / न स्यात्तस्य विगर्हणं नयपथोल्लङ्घात् परबाहतो, धों येन भवेत् सुदुर्लभतरो जैनो रतः स्यान्नये // 35| अन्यायागतमर्थमर्पयति सोऽर्थशान् नयेप्सुर्यकः, स्याच्चैत्यस्य विधौ क्षमो जिनपतेरा विधातुं यतः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___जैनगीता। सङ्घस्याग्रत उच्यते विधिपदेऽर्थस्यास्य शुद्धिः कृता, तत्तत्स्वामिसमर्पणाद्भवतु मे मत्स्वार्पणात् सत्फलम् // 36 // अन्यायोपगतं धनं न यमिनोऽर्थाय व्ययाय क्षम, यच्चौर्यागतगोमयेन विहितं भोज्यं परां विकृतिम् / गत्वा चौर्यमतिं चकार मुनिपे हारादिराशेः स्फुटां, वान्तेऽस्मिन् प्रतिसञ्जहार वणिजं तं तन्नयं साधयेत् // 37 // जैनो यद्यपि साधनं विमनुते सांसारिकी सक्रियां, . सल्लोकानुगतश्च नीतिसहितां द्रव्यस्य सिद्धौ तकाम् / तत्त्वेनायमुदाहृतिप्रचयतो द्रव्यागमं बुध्यते / . लाभस्य प्रतिबन्धके विलयिते जैनः परोऽसौ मतः // 38 - जोयायः॥ द्वाविंशोऽध्यायः / ( ब्रह्मवताधिकार) मतं ब्रह्मचर्यं समैस्तीर्थनाथैः , सदा मूलभूतं सुधोंडुराणाम् / शिवाप्तिसुवृक्षस्य तज्जैनवर्य-स्तुवीतैतद्धरणोद्यतं च प्रकामं // 1 / / जायन्तेऽसुभृतामसङ्ख्यविकलाक्षाणाममेया व्यथा, गर्भोद्भतिभृतां नृणां नवशती बाध्येत सज्ञायरैः / लक्षाणां विषयेप्सया नरभवे दुर्धार्यमेकं व्रतं, तत्पष्ठप्रतिमाश्रितेऽपि कथितं यावद्भवं धारणम् // 2 // P.P. Ac. Gunrattasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। देवाः स्वनायकयुताः प्रणमन्ति नित्यं, वैमानिका भवननाथसुवर्णसधाः / ये दुष्करं व्रतमिदं शिवसाधनोत्का, नित्यं सुचेतस इह प्रविधारयन्ति // 3 // श्रीमज्जिनेन्द्रविततो दृढ एष पन्थाः, शुद्धागमेन यशसां पदमानीतश्च / विद्वद्वरैर्द्वयमयोऽत्र पुनश्चतुर्थे- ..... ऽन्योऽध्वा मतोऽयमपवादपथस्वरूपः ..... // 4 // मोक्षाध्वयायिजनताविदितं समस्तजैनागमैः सततवारितमेतदंहः / रागद्विषालिमृत एतदुदीर्यते न, म . ... मोक्षाध्वयानपरमारिसमौ यतस्तौ (च तौ स्तः) // 5 // वेदत्रयं सकलजातिगतिश्रितानां संसारिणामिह परं नरजातिसंस्थः। शक्नोति रोद्धमलमेनमुदित्वरश्रीराप्तागमोदितमरं व्रतमादधीत // 6 // कस्याश्चिन्न विवेकसम्पदमला तत्पूर्विका च क्रिया, कस्याश्चिन्न विचारवर्तनगतं सम्पत्ततेरान्तरम् / नृत्वे ह्येव भवेन्मतेरनु पुनश्चेष्टा विचित्रास्ततो, . ब्रह्म स्यान्नरजन्मसु न तु पुनः शेषेऽङ्गिसार्थे कचित् // 7 // मोक्षो यद्यपि लभ्यते व्रतधरैराप्तागमोदीरितैस्तत्रापि प्रशमैकहेतुरमलं ब्रह्मैव सत्कारणम् / यत्तिष्ठन्नरजन्मधारणपरो मुक्तिं न चैवाश्नुते, कामोद्रेकपरस्तदत्र न मतं सिद्धं द्वितीयं पदम् // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। संसर्गतोऽत्र वनिताजनसम्भवात्तु, र शेषाघसङ्गतिपदानि न दुर्लभानि / . पापप्रचारणपदं प्रतिबुध्य तत्तत् , व त्यागो जिनेश्वरमते प्रथमो मतोऽस्ति // 9 // मैथुनं भवति तत् त्रिधा त्रिधा मनोवचस्तनुभिराप्तसङ्गमे / यत्कृतं स्वयमपि च कारितं शस्तमेतदपरं त्रिधा पुनः // 10 / / यद्यपि पुनरिदं त्रिधा भवेत् मानुषामरपशुप्रभेदतः / / वर्गणाधिकारतः पुनर्द्विधा वैक्रियं परमुदारकायजम् // 11 // भेदा अष्टादशामी प्रवरवृजिनदास्तेन तावन्त आप्तै भँदा अब्रह्मजाताः श्रुतततितनने स्पष्टमुक्ता मुनीनाम् / भेदास्तावन्त एव प्रवरमुनिवरैर्ब्रह्मचर्ये हि प्रोक्ता, आदेया धर्मधुर्यदि शिवगमनं प्रेप्सितं स्यान्निरागः // 12 // स्त्रीणां कृते जगति देशधरेषु पूर्व सङ्ख्यातिगा जनविनाशकरा महान्तः / यद्विग्रहास्तवबुध्य नरः सुखार्थी, कुर्यात् सदा विरमणं परदारसङ्गात् // 13 // विद्येश्वरोऽथ वचनातिगकीर्तिपात्रं, सानिध्यसम्पदधिको नियमादृतोऽपि / सैन्यं प्रचण्डबलवत् सततं दधानो, हा ! रावणः क्षयमितः परदारक्तेः // 14! श्रेष्ठ्यासीद् दृढशीलमानसधरो राज्या कृतान् सोढवान् , ... उपसर्गान् विविधान् सुदर्शन इति प्रौढेन नाम्ना पुरा / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। ___ 79 यद् दृष्ट्वा नृप आश्रितः मुनिसमं तं क्षामयित्वा भृशं, 1. जाता चाऽमरसंसदस्य मुखरा गाने व्रतस्य स्थितेः // 15 // यद्यपि प्रतिव्रतं मुनीश्वरैस्तु भावनाः,. .. ... ' पञ्च पञ्च कीर्तिताः स्थिरत्वसाधनाय ताः। दुराचरं मतं त्विदं जिनेशशासनाधिपै१स्ततोऽधिका मता नवैव वृत्तयोऽत्र वाङ्मये // 16 / / बतेपु शेपेषु विबाधनोत्थितौ, यथा मताः साधुपदेकभावनैः / / प्रोच्याऽत्र तावत्य उदित्वरो नहि, वेदो यथा स्यान्न हि वृत्तयस्तथा।।१७।। नैकत्रवासो ललनाजनेन, नाऽस्याः पुरो वा कथयेत् कथां न / नासीत साधुस्तकयैक आसने, विलोकनीयानि न चेन्द्रियाणि // 18 // कुड्यान्तरस्थो न भवेत्तु तस्याः, स्मरेच्च नैवाग्ररतिक्रियायाः / उन्मादकारीणि न चानुवीत, बह्वाशनो नैव भवेच्च साधुः // 19 // उदीरिते वेद इमा न किन्तु, प्रागेव रक्षाकरणे समर्थाः / ता वृत्तयो यत्प्रभवे कणानां, क्षेत्रस्य शिष्टा वृतिराप्तमुख्यैः // 20 // मुनीश्वराः पञ्चमहाव्रती सदा, शिवाप्तिकामा निरघां वहन्ति / तथाऽप्यनन्यं जगुराप्तपादाः, सद्ब्रह्मचर्यं वहनीयमग्यम् // 21 // स्थितो जिनेनोदितसाधुमार्ग, तपःप्रभावात् शमिताश्च घोराः / तथापि योषेप्सुरवाप पातं, धर्तार एतस्य सुदुष्करक्रियाः // 22 // गुरोः कुले वास उदीयते ज्ञैः, सद्ब्रह्मचर्य मुनिमार्गलीनैः। साधोः समग्रा मुनिमार्गचर्या, क्षान्त्यादिधर्मे दशसङ्ख्यमाने // 23 // स उत्तरत्वेन मतं तु धर्मे, गुणोऽयमुक्तो मुनिमूलमार्गे / तथा च तत्त्वेन विरक्तताया, मूलस्य रक्षाकरणाय तत्तु // 24 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / निवृत्तिरूपाणि महाव्रतानि, ततो मिथुनाद्विरतिय॑गादि.. ब्रह्मार्थकत्वे गुणताऽऽत्मतत्त्वे, न तत्प्रतिज्ञा न भवं च यावत् // 25 // हिंसादिवच्चेदमघस्य धाम, लोके प्रतीतं मिथुनं ततोऽस्मात् / प्रसिद्धरूपा विरतिर्जनेषु, लोकोत्तरे चाध्वनि सुष्ठ गीता // 26 / / मानुष्यकं ब्रह्म समाचरन्तो, गवाश्वगं तत्तु विहेडयन्ति / . तल्लोकवृत्तेर्विहितं न तत्त्वाद्, वधादसूनां विनिवृत्त्यभावात् // 27 // ये ब्रह्मचर्यात् परिभ्रष्टिमाप्ताः , सद्ब्रह्मचर्यान् यतिनः पदेषु / स्वीयेषु भ्रष्टाः परिपातयन्ति, प्रेत्यापि तेषां न वृषाप्तिरीं // 28 // अमैथुनाः सन्ति दिवौक आद्याः ( सुधाशनाद्याः), . . . . . परं न तेषां वृषलाभ उक्तः / .. भवस्वभावाद्विरतिर्न तेषां, - तस्या अभावे न च संवृतत्वम् / / 29 / / कृतेरभावे यदि स्यात्तु संवरो, व्यङ्गेन्द्रियाणां सविशेपतः स्यात् / . एकेन्द्रियाः सूक्ष्मतरा न कञ्चि-निघ्नन्ति ते नैव परैश्च हिंस्याः // 30 // प्रतिक्षणं स्युः परिणामभेदाः, स्थास्नुव्रते स्यादुररीकृते तु / विना प्रतिज्ञा करणिर्न चोक्तं, प्रामाणिकत्वेन लिखेत्कदाचित् // 31 / / ननु व्रताज्जीववधाद्विरक्ते-र्गतार्थमेतत्कथमुच्यते वै / यतोऽङ्गिनां स्थावरजङ्गमानां, वधाद्विना नैव भवेत्तु मैथुनम् // 32 // सत्यं जिनानां पृथगेतदस्ति, न मध्यमानां जडताभृतां पुन राद्यन्ततीर्थे यतिनां विभिन्नम् ... // 33! गच्छत्सु घातं न ऋजुः प्रयोगः, कायेन वाचा मनसा च कश्चित् : न चात्र वीक्ष्यन्त उपद्रुताङ्गा-स्तेनेदमुक्तं पृथगेव विज्ञैः // 34 / P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगोता। परिग्रहः स्याल्ललनाङ्गसङ्गो, स्वीये पराक्येऽपि समानमेतत् / . ततः श्रुते तव्रतपाठ एवं, विभिन्न उक्तो मुनिभिर्द्वयोस्तु / भवेद्विरक्तियतिनां बहिर्द्धा-दानाद् द्वयोश्चात्र समागमः कृतः // 35 // त्रिधा त्रिधा यतिनामिदं पुनः, श्राद्धास्तु विविधैरभिग्रहैः / अणुव्रतेऽत्रास्त्यतिचारभावना द्विधैकधाश्रित्य धुरंधुरोदिताः // 36 // - जैनः सम्यग विशदमनसा संस्तुवीताप्तवर्ग, यावज्जीवं धरति शिवदं ब्रह्मचर्य परांश्च / श्राद्वान् काँश्चिद् व्रतरतिमनसः शक्तितस्तद्वतच, संसाराब्धौ जनुरिदमनघं दुर्लभं प्राप्तुमेतत् / // 37 // इति द्वाविंशोऽध्यायः / / त्रयोविंशोऽध्यायः / (अपरिग्रहव्रताधिकारः) जैनः स. एव मनुते गतकिञ्चनं यो, . मोक्षाध्वसाधनपटुं निजमुक्तिसिद्धथै __ (रागद्विषादिकृतमेतदपूर्वजालम् ) . यस्मिन्नरेश्वरसुरेश्वरसन्ततिः स्यात्, प्राप्तावतारमृतिसङ्कलिताऽघपूर्णा . अन्ये ग्रहाः परिमिताभ्रविचारिणः स्युः, कालं चरन्ति निजराशिगतास्तु तं तम् / चकां गतिं कचिदमी दधते स्वराशी, . किन्त्वेष सर्वविषमो ग्रह उग्ररूपः // 2 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। प्रेत्य ग्रहारते न तु सार्द्धसंधाः, न गर्भगानां प्रचरन्ति सार्धम् / / स्वस्यैव ते तन्वत आधिजातं, कदापि सम्पत्तिमतुल्यरूपाम् // 3 // अयं तु सर्वासु चरन् दशासु, किम्पाकवत् स्याच्च मुखे सुखाय / अनन्तदुःखार्पणतत्परोऽन्त्ये, परो न सर्वज्ञमृतेऽस्ति(स्य)वे (भे)त्ता // 4 // अनादिकालीनसमस्तजीव-राशिस्थ आध्येकपदं नराणाम् / एकादशं स्थानमितोऽपि साधुः , प्रत्येति तस्मादपि मूलमाद्यम् // 5 // अभव्यजीवाः परिपाल्य शुद्धं, चारित्रमग्यं सुभलेश्ययाऽऽव्यम् / पुनः पुनर्धान्तिमनन्तकालां, सदा धरन्तीह परिग्रहेण // 6 // सदा ग्रहं विष्ट उदित्वरं न, नरः प्रयातीह सदा ग्रहं त्वमुम् / स्यादात्मतन्त्रोऽपि गतात्मतन्त्रो, वेत्त्यात्मतत्त्वं विदितात्मतत्त्वः // 7 // लोकोत्तरेऽयं त्रिविधे सचित्ते-ऽचित्ते च मिश्रे द्रविणे प्रगीतः / भावे च तत्त्वं कथितं जिनेशैः, मूर्छालयोङ्गं द्रविणं किलास्य ||8|| अशोकवृक्षादिमहर्द्धिमत्त्वं, परःशतानां यतिनां प्रभुत्वे / . अनन्यरूपा बहवोऽतिशेषाः, निस्सङ्गचक्रयेष तथाऽपि गीतः // 9 // अतः स्वकीयाननगारिणो न, हठात् क्रियां कारयतीह सूरिः / एते मदीया इति वक्ति नैष, परिग्रहप्राप्तिभयाकुलत्वात् // 10 // आदेशदाने यतिनां तदीयां, याच्यामधिप्राप्य न चेत्स पिड्गः / आज्ञापयितव्यपदं न तेषां, परिग्रहान्तःकृतिता च नैवम् // 11 / / साधवो विदधति प्रभून् प्रति, मार्गणं प्रतिक्रिय न तद्धठात् / यद् विदन्ति तेन माविनी, व्यथां ततो मुनीशवाचया प्रवर्तनम् // 12 प्रविव्रजन् श्रीजिनराजपाक्षं, यदात्मनाऽऽख्याति भविष्यदिच्छाम् / तदापि साहाऽत्र न विघ्नकार-स्त्वया विधेयस्तव सौख्यवृत्तिः // 13 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैनगीता। 83 / / धर्मार्थपापप्रतिषेधकारणं, महाव्रतोच्चारतदहशिक्षणम् / सूत्रार्थदानं शिवमार्गवार्ता, परिग्रहित्वं नैकतमेष्वमीषु // 14 // स्थानेषु धर्मस्य ममत्वभावं, धरन्नपि स्यान्ममताप्रसङ्गी। : परिग्रही यन्नहि धर्मधाम, प्रमादपोषाय जिनैः प्रगीतम् // 15 // कुलीनता बुद्धिरनुत्तमा यदि, बलं च वाल्लभ्यकमग्न्यमाप्तम् / / पराभिभावाय यदि प्रयुङ्क्ते, तान्येव तस्य प्रभवन्त्यघाय // 16 / / गृहीतिराऽऽदावनगारिणां या-ऽऽहारोपधेःस्वीयशिवाप्तिसिद्धयै / परिग्रहो नैष, यतो ग्रहो न, प्रयुक्त एकः परिणा सहोक्तः // 17 // पराणि पापप्रवणानि यानि, धामानि नो तान्युपसर्गवन्ति / ततोऽपवादीयपदं विरुद्धे. नाशोऽपि नैवात्र परेः परत्वे // 18 // एवं जिनादेवहुमानवृत्त्या, स्मृत्वा च तेषामसमोपकारिताम् / आराधकोऽर्चादिकपूजनाद्य-मर्चामुखस्यादरभृद्विदध्यात् // 19 // न तत्र तस्याघपदं परत्र, वेद्यं न दोषश्च गुणोत्तमानाम् / देवेशचीर्णां प्रतिमाहदा, निषेधयन्नो किमघप्रधानः ? // 20 // श्राद्धस्य धर्मोऽस्थिरजन्तुरक्षा, सदा प्रवृत्तः क्षितिमुख्यनाशे / पूजाकृतौ योग्यपदानुसारा-दर्हद्गुणेष्वेव भवेन्निमग्नः // 21 // यथा त्रसानां हननान्निवृत्तो, मद्ये च मांसे च सदैव भीतः / यथा तथा नो भवतीह मैथुने-ऽधिकेऽपि मानुष्यवधाघलेपे // 22 // नाज्ञानभावो न च निर्दयत्वं, गुणैकरागः प्रभुपादयोः पुनः / न चेन्मुनीशादिनतिः शिवाय, तत् कर्मबन्धस्य यतः प्रशंसा // 23 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। नेर्यापथो बन्ध उदस्य क्षीण-कषायितां सा च न दीर्घकाला / विहाय सार्वघ्यधरं ततोऽमी, सप्ताष्टबन्धा नियमाद्भवावलौ // 24 // मतं न निर्वासस उद्यमान्य, शिवाय योपक्रिययोपयोगि। सत्संयमे स्याटुपकारकं त-ल्लिङ्गाच्च धर्माच्च बहिर्भूतास्ततः // 25 // न भावलिङ्गं नियतं तदेषां, नाग्न्येऽभिनिवेशश्च मते ह्यमीषाम् / ततश्च कैवल्ययुतां शिवाप्ति, निषेधयन्तीह दिगम्बराः स्त्रियाम् // 26 / / नार्या यतः स्युः शिवसाधनक्षमा, विहाय वासांसि तदीयधर्मे / / न चाङ्गनानां गतचीवरत्वं, न तैर्जनेषु प्रसृतैक्षि योगिनी // 25 // सत्साधनानामुपकारकर्तृता-मुदस्यता तेन निराकृताः समम् / ईर्यादिका, येन न ता भवन्ति, विनोपकर्तृन् प्रयतात्मनामपि // 28 // गृह्यन्यलिङ्गेषु शिवाप्तिभावो, माधुकरी या च मुनीशचर्या / तथा जिनार्चा नयनादियुक्ति - न्य॑षेधयेत् सर्वमिदं विबुद्धिः // 29 / / ये लुम्पकाः कुर्वत ऊननाम्ना, तपो यथोक्तोपकृतीः प्रतीत्य / .. दयामुखास्ते वधमङ्गिनां यतो, जिनान् विहायास्त्यवमो न तासु।॥३०॥ अणुव्रतेऽस्याऽऽद्रियते स्वकेच्छा, मानाधिकस्य विरतिं ग्रहस्य / इच्छा यतः प्राप्तधनानुयाता, सदा न सेत्यस्य मतं व्रतत्वम् // 31 // ग्रहेऽप्यमुष्याग्रत आचरेन्न, क्षेत्रादिभेदेषु परिग्रहेपु / अन्यान्ययोगक्रयणप्रकारान् , स्तुत्यः स एवाणुधरोऽपि सद्भिः।।३२। वदन्ति केचिजठरादिपूर्ते - रावश्यकोऽर्थस्तत आदरार्थः / मिथ्या, यतः सन्ति जना अतृप्ताः, समृद्धिमत्स्वीश्वरनिर्जरेषु न / (न्तोऽमरनायकास्तथा ) // 33 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। अन्यानि पापानि समाचरन्तः , प्रवृत्तयोगास्तदुपाददानाः / . गृहीतमर्थ मनसीहयित्वा, पुरश्च पश्चाच्च वृथाधचित्तः (चेताः)॥३४॥ रौद्रं ध्यानं लीनताभाग्धनेषु, धत्तेऽक्षाणां पुष्टयेऽर्थं प्ररक्षन् / मृत्वा याति तादृशः कुत्सितायां, तिर्यग्जातौ लोभरक्षापरायाम् // 35 // जीवो ह्येकः सकलभवगता एति तास्ता व्यथा नु सङ्गाल्लोके स्वजनरहितस्तासु तासु प्रदिक्षु / आत्तः सङ्गः स्वजनविधये नैव (ते) भोगकाले, दुःखं लात्वा ( परवशगता) नैव कुर्वन्ति भागम् // 36 // जैनोऽसौ यः सदा स्याद्गतधनकनके रक्तचेता मुनीशे, दानाहँ सङ्गतं सत्कुरुत उदितभा गेहकार्ये निरीहः / शस्तेऽसौ तोषमेतं कुमरपदगतं त्यक्तराज्याहमानं, सन्तुष्टः सर्वदाऽसौ जिनपदरमणो मोक्षकामो महात्मा // 37|| इति त्रयोविंशोऽध्यायः / , / चतुर्वि शोऽध्यायः / (जिनविम्बाधिकारः) जैनोऽसौ जिनराजिपादकमले भृङ्गोपमानश्चरेत् , धत्ते ध्यानमनारतं प्रभुपदोर्मोक्षाप्तये भक्तितः / / लोकेऽसौ खलु दुर्लभो भविजनाम्भोजप्रबोधे रवि यत्सङ्गादपरेऽपि भव्यनिवहाः स्युर्धर्मसिद्धयै क्षमाः // 1 // प्रतिदिनं प्रग आदरतः पठे-च्छुचिमनास्त नुवाच्छुचितान्वितः।। यदि परं मनसा शयने स्थितः, परविधिश्च परिष्कृततां गतः // 2 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। भवति नैव विधिं चरतां नृणां, श्रुतगताविधिजातमघं पुनः / यदि च कष्टतमा तनुजास्थिति-नहि तदाऽविधिरास्पदमंहसाम् / / 3 / / सा मङ्गलं प्रविदधातु जिनालिरग्ज्यं, स्वर्गापवर्गसुखदानपरा जनानाम् / या दुष्टकर्मकलिलावलितः परस्ता द्यस्याः परा न शिवगा न च पूज्यपादा // 4 // गर्भावतारसमये जननी प्रसुप्तां, याऽदर्शयत् सकलजन्मगताधात्रीम् / चक्रयङ्कितादधिकदीप्तिधरां चतुर्भिः, स्वप्नालिमुद्धुरवृषा दभिश्व युक्ताम् // 5 // जिनवरा जितरागमदाः सदा, भविजनान् सुकृतालिपरोद्यतान् / / दुरितकर्मभरात् सुगमाध्वना, विदधतु प्रवरोद्यमशालिनः // 6 // अतिप्रभाते जनताहृदजे, माङ्गल्यसौख्यैकधनप्रकाशम् / समग्रघत्रं गतविघ्नराजि, कर्तारमाप्तं सुखदं धरेद्वै // त्रिलोकनाथाँस्तत आप्तबुद्धया, हृदब्जकोशे धरति प्रगेऽयम् / / परो न तेभ्यो जगदर्थकारी, स्वर्गापवर्गप्रद एव नास्ति // मुखं प्रगे पश्यति सज्जनः सदा, ससन्ततेरादृतनीतिरीतेः / असङ्ख्यकालं प्रभुता जिनस्य, विचिन्त्य वक्त्राब्जमुषस्य वेक्षे (पश्यामि मुखाब्जमस्य) // 9 // शास्त्रे यद्यपि सर्ववस्तुविषयं न्यासे चतुष्कं मतं, भावोऽर्थाकर उच्यतेऽर्हति परं पूज्याः समेऽमी यतः। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 7 नाम्नि श्रीमति संस्थिता श्रुतमता सञ्ज्ञाऽऽहता नोऽपरे, , तद्वन्तः प्रतिमाः सुरासुरनरैः पूज्या द्वितीये मताः // 10 // विंशत्या वरसाधनैर्जिनपदं यद्धमर्वाग्भवे, ते द्रव्ये न तु तत्त्रयं विरहितं पूज्यत्वबुद्धयाऽन्यवत् / सिद्धाद्येपु चतुर्पु भावगतयेऽवातीयतेऽहत्पदं, .. सर्वाः पूज्यतमा नृणामधिगता निक्षेपसिद्धा विधाः / युग्मम्॥११॥ अन्ये यद्यपि सम्भवेयुरखिला निक्षेपसत्का जिने, / शास्त्रोक्ता विधयः परं न तु पदं तेषां व्यवच्छेदकम् / नार्वाग्विद्यत उक्तमत्र पुरतः किञ्चित्पदं यत्सरेत् , ... तन्निक्षेपगताः समेऽपि विधयो नम्या गता अर्हति // 12 / / तत्प्रातः प्रणमामि शुद्धमनसा श्रीअर्हता सङ्गता, निक्षेपस्य चतुष्टयी महपदं यन्नाममात्रं पुरा / श्रुत्वा धर्ममवापतुः सुरनरौ दृष्टाऽऽकृतिं म्लेच्छसू- . राो द्रव्यजिनस्य भक्तिपरमः किं नो मुकुन्दः पुरा // 13 / / गर्भावतारसमयात्रिविधोऽस्ति गीतो, . . ... यस्यैकजन्म विधिना जिननामबन्धी / प्राग्जन्मतोऽमुमियन् भव इत्थमेतद्, ... __ भिन्नोऽर्हतां भव इतीह भवस्तु भावे // 14 / / इन्द्राः समग्रा भगवन्तमूचु-गर्भावताराद् न विना तु भावम् / कल्याणकानां त्रितयं पुरैव, भवेत् प्रभूणां निखिलप्रबोधात् // 15 // आर्हन्त्यमुक्तं श्रुतदेशनायां, तथैव पूजाऽन्तिपदादिशिक्षा / / स्वोत्प्रेक्षितो लाभ इहोदितस्त-दपेक्षया भाव उदारतीर्थे. // 16 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। तदेतच्चतुष्कं जिनानां नदन् यः, स नित्यं भवेद्धन्यमानी सुजैनः / न धार्यो न नम्यो न जप्यो न पूज्यो, भवेत्तस्य देवोऽपरः कर्मकीटः / / 17 दर्शनशुद्धिकृते करोति सततं तीर्थेश्वराणां महान् , / - संसारोत्तरणैकसाधकतम तीर्थं तदीयं परम् / भ्रान्तोऽयं भववारिधौ जनिमृतीः कुर्वन्ननन्तान् भवान् , - यत्तान् प्राप्य तदीयतीर्थमसमं स्यात्पारगः सेवनात् // 18 // यथा यथा गुणोन्नतान् सुसेवया भजत्ययं, जिनाँस्तदात्मसंश्रितान् गुणान् विचिन्त्य मानसे,। तदेव पूर्वकारणं तथा तथोच्चये यदा . यदाऽऽत्मचिन्तया भवेत् क्षयस्तु तद्विरोधिनाम् // 19 // यथाभिधानस्य महान्त आप्या, गुणाः स्मृतेः सिद्धमिदं जगत्याम् / एकस्य [चत् ] तद्युक्तपदार्थजातेः स्मृतिः स्मृतेः कारकतापदं गता // 20 // अर्थेऽसौ भवति प्रतीतविषये कोशान्न सर्वो विदन् , सिद्धायां तु जने भवेत् स्फुटमतेः सत्यां प्रतीतौ गुणाः / चित्ते तत्र गता यदीह निपुणाः किं नाकृतिस्था गुणाः, . स्मर्तव्या हि भवन्ति चेदवयवे निश्शेषशुद्धे किमु // 21 // सर्वैस्तजिनविम्बसन्ततिगता देवासुरैर्मानुषैः , स्तुत्यर्चामुखसाधना सुविदितैः किन्नाऽऽदरादादृता / स्पष्टः सर्वजनेषु यत्प्रतिमया सिंहाद्विबोधोऽर्भके, ' तद्वद् द्रष्टुमिहास्ति नैव जिनपे भावाश्रितं शक्यते // 22 मूर्तिर्जिनानां शमलीनरूपं, मुखेन वक्ति प्रशमं दृशा तु / अङ्कोऽङ्गनासङ्गविरक्तचित्त-माख्याति युग्मं करयोररागम् // 23 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। भासासमेतं जिनदृष्टियुग्मं, दृष्टिश्च कोपादिविमुक्तसङ्गा / . चिह्नं च किञ्चिन्नहि विम्बमाने, रागस्य रोषस्य च लेशतोऽपि / / 24 // तद् दृष्टमेतद् भविसार्थगानां, व्यनक्ति साक्षाद्गत्तरागतां विभोः / न हन्यता जिनराजमुद्रा-मुपेतुमर्हाः शिवदाः कथं ते ? // 25 // सिद्धन रूपेण तदात्मजेन, चथा तथाऽहत्प्रतिमा नु युक्ता / साध्यं तदेवास्ति सुदेवभाजी, स्वादर्शरूपानुगता ततः सा // 26 // यथा यथा तां प्रतिमामनको, जिनेश्वराणां निजभावरूपाम् / तथा तथा तस्य गुणप्रवृद्धिः, पश्येदतस्तां मुहुरात्मरूपाम् // 27 // नामाऽऽकृत्योर्दर्शनात् तीर्थराजा, भव्यानां स्यात् सद्गणानां त्वमीषाम् / स्मृत्या युक्तं ज्ञानमावश्यकं स्यात् , वृद्धं तस्माजिनजनिमुखस्थानदृष्टेर्यदेतद् / वृत्तेनैषां शुभगुणजनकेनाश्रितं सर्वथाऽस्ति // 28 // यथेतिहासोऽप्रजनुष्मतां कुले, गुणप्रदीप्ति तनुते ह्यनूनाम् / यथाऽग्रजानां प्रसवादिधाम, द्वयं तदेतत् खलु तीर्थदृष्टौ // 29 // पाश्चात्यानां वृषमभिलषतां दर्शनस्याग्रशुद्धिं, कर्तुं दक्षाः श्रमणपतिगिरा श्रावकाः सत्प्रभावाः / तीर्थान्यन्याधिकृतसुरकृतीन्यर्थपूरव्ययेन चक्रुस्तेभ्यो भवशतनिचितः पापपुञ्जः प्रयाति // 3 // सूत्रे प्रोक्तं श्रुतधरणचणोऽनेकदेशेषु गच्छन् , ___ लब्धाऽऽगाढं (दर्शन) जिनजनिमुखतः पावनांस्तीर्थवर्यान् / दर्श दर्श जिनगुणगणं धारयन् भूतपूर्वं, यः स्यात् साधुई ढतररुचियुफ सूरिपट्टे स योग्यः // 31 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। श्राद्धस्तस्माद्विमलमतिभिः प्रोज्झ्य संसारजालं, .. तत्तत्तीर्थान्यमलविधिना सेवनीयानि शुद्धथै / . सम्यक्त्वस्येतरगुणसहितस्याप्तिशुद्धी दधानः . युक्तः सर्वैः स्वजननिचयैर्वृद्धिकृच्छासनस्य // 32 // निर्दिष्टा श्रीप्रवचनपटुभिस्तीर्थसेवैव वर्या ऽऽकल्पः सद्दृग्धरणनिपुणमतेस्तत्र यत्कामितानि / स्थेमोद्भावौ प्रवचनपटुता भक्तिरार्हन्त्ययुक्ते, स्युस्तत्कामं सुकृतसमुदयी सेवते तीर्थधाम // 33 // उदयमेनमुदीक्ष्य मनीषिभि-नवकृतेः सुधियां फलमीरितम् / बहुगुणं जिनचैत्यसमुद्भुतौ, प्रयतते यदि तत्र वृपोद्भुरः // 34 // तीर्थानि तत्र विविधानि पुराकृतानि, . स्युर्दीर्घकालललितानि समुद्भूतानि / हेतुः फलस्य भवतीह समुद्धृतिः सा, __ सम्यग् दृशो य इह प्रेत्य सुखाप्तियत्नाः . (प्रध्वरमार्गलम्भाः ) // 35 // यथैवाऽर्हतां भक्तिरत्यन्तभद्रा, भविष्यद्जनतानां समुद्धारिका यत् / तथैवाऽऽत्मधाम्न्यर्घयुक्ता यतः सा, . सदा पुत्रपौत्रादिहितोद्धरा स्यात् // 36 // बालानां सरणि विचारविमुखाऽन्यानुश्रितां तु क्रियां, __ कुर्युस्तद्यदि धर्मकर्मणि रतं विम्बार्चने तत्परम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। पश्येयुः स्वजनं, ततः स्वयमपि तत्रोद्यता स्युररं, तच्चैत्यं गृहदेशभाग उदितं कुर्वन् कुटुम्ब धरेत् / ( निलये दधत् स्वजनगं धर्मप्रचारं ददौ) .. // 37 // जनानां सार्थोऽयं निजनगरगानां समभुवां, स्थितिं वृद्धिं रक्षां यदि च मनुते कर्तुमसमाम् / / तदैकस्मिन् स्थाने मिलति जनतोद्धृतिपरः, तथा जैनः सार्थोऽव्ययकृतमतिश्चैत्यमयति / ( तदर्थं चैत्यं किं न भवति भविनां सुकृतिगतम् ) // 38 // अधिष्ठात्रा शून्यं भवति भवनं नैव रतिदं, :: सदा सेव्यो नाहज्जिनपनिचितेरस्ति मनुजः / .... - ततः स्थाप्यो भव्यैः स्वजनवृपकृतेऽस्मिन् जिनपति .. स्ततश्चार्चा नित्यं तनुत उपमायाः पदमिताम् . // 39 // आकल्पोऽद्यतनः सुखायति नृणां यद्वन्न जीर्णस्तथा, तद्वच्चैत्यमनूतनं तत इहोद्धारः प्रतिष्ठापदम् / श्राद्धश्चेतसि तद्विचिन्त्य नियतं चैत्यं नवीनोपमं, .. धाम्नि ग्रामतले च शास्त्रविधिना कर्तुं भवेदुद्यतः // 40 // नैवोपकारः यजने जिनानां, यतो हि ते रागरुषादिशून्याः / कर्तुस्तथाप्येष यथा प्रयुक्ते, ज्वरादिरोगप्रशमाय रत्ने // 41 // वधोऽगिनां पापभरैकहेतु-न तं विना नार्चनमर्हदादेः / एकाक्षजीवोद्धनने घृणा चेत्, स्थितिPहे नेतरथा विमोहः // 42 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। तन्वङ्गनाऽऽलयमुखार्थमनन्तकायान् , - द्राग हिंसतां मनसि यस्य न कापि शङ्का / सैषां व्यथा यतनया ह्यपराङ्गिनां स्यो मिथ्यात्वमोहजनितं कुमतोत्थमंहः // 43 नरेन्द्रदेवेन्द्रसमूहसत्कृता-मर्चा जिनार्चामधिकृत्य सिद्धाम् / विलोप्य संसारसमुद्रगानां, करोति भक्तिं स कथं विवेकी ? // 44 जिने वर्तमाने चिदानन्दपूर्ण, कृता देशनाभूमिकार्य सुरेशैः / जनौ निष्क्रमें मोक्षसिद्धौ च या तां, सुभक्तिं विलुप्याघमारै भ्रमी च ( भवे) // 45 / त्रिधा पञ्चधाऽर्चा पुनश्चाष्टभेदा, दशान्वितैः सप्तभिश्चाहतां या / श्रुतोक्तिप्रपञ्चैः प्रबोढा विलोप्य, गतिं लां च गन्ता दुरावापधर्माम्।।४६ त्रिसन्ध्यं जिनानां विधायार्चनं यः, स्तवैरुत्तमैः संस्तवं चापि कुर्यात् / सुसौख्यानि देवस्य चिन्तातिगानि, स लब्ध्वा शिवं शीघ्रमाप्नोत्यवश्यम् // 47 // कृतं सत्फलं तेन जन्म स्वकीयं, नरेणाहतां भक्तिकृत्येन वंशे / समारोपितः कल्पवृक्षोऽनुजानां, सदा स्वर्गमोक्षकफलप्रदायी // 48 // यद्यपि पूजा फलविधये स्यात् , पौद्गलजाले धनकनकाद्यैः / सत्तृणमात्रं शिवफलसिद्धे-स्तत्स्याद्विबुधजनस्तन्मात्रः (द्वाञ्छः)॥४९॥ जैनोऽसावाहतानां प्रवरगुणगणं क्षेत्रमेतच्छ्येत, - मूलं यत्सद्रूणां प्रवरगुणभृतां धर्मकार्यस्य वर्यम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। कल्पातीतं फलं यद् भवति नरगणे तन्निदानं जिनार्चा, ध्यात्वेति शास्त्रवाचाऽनुगतमतिकृतिः साधयेच्छ्रीजिनार्चाम् / / 5 / / .. इति चतुर्विशोऽध्यायः / / पञ्चविंशोऽध्यायः / (चैत्याधिकारः) . स स्याज्जैनत्वधारी जिनपतिचरणप्लावितं चैत्यमाढयं, मामे वा पत्तने वा यदि भवति तदा वासमादातुमिच्छेत् / निष्काणां चेच्छतं सद्धरति निजवशं कारयेद्वासधाम्नि, चैत्यं नूनं यतः स्यादविरलगुणभृत्पुत्रपौत्रादिवंशः // 1|| जिनेश्वराणां महनेन भावो, यथा विदां श्राद्धवृषोद्वहानाम् / तथादिधर्मश्रयणान्वितानां, भावाय चैत्यं सुकृतोद्वहाय // 2 // वंशानुवंशागतसज्जनानां, गृहस्थिताहन्निलयेक्षणेन / दिनं दिनं स्याज्जिनधर्मबुद्धे-दूर्वव शुद्धक्षितिरोपिता या // 3 // निजाग्रजानां परिमाननीयः, स्मार्यश्च जाप्यश्च निषेवणीयः / को मङ्गलार्थं परिपूजनीयो, देवोऽभवत्तत्स्मरमिद्धचैत्यात् // 4 // जिनोपदेशं विनिशम्य दृब्धा, येनाऽऽगमास्तीर्थविबोधनाय / गणेशिता सोऽहंदुदारचैत्य-ततिं पुरस्थां परिकीर्तयेद्धि // 5 // जगत्यस्मिन् सर्वं नगरवरनिगमग्रामसदृशं, जनानां भूपानां निवसनजनितगौण्यमहिम / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। क्षणाद् दृष्टं नष्टं जनपदजननाशेन नियतं, .. ..तथापीक्षन्ते ज्ञाः पुरवरपरिगतैश्चत्यकृतिभिः // 6 // पुराणामुद्रसानां प्रकीर्णैर्युतानां, मतानां नृपाणां विनाशं गतानाम् / विबोधो बुधानां तदारम्भणैः स्यात् सुचैत्यानि दृष्ट्वा तथैवाप्तराजेः // 7 दृष्ट्वा मूर्ति वीतरागप्रभूणां, स्याद्वै बोधो दृष्टुराप्तस्य शुद्धः / दृष्टे चैत्ये चित्रकीर्णे तदीया, बोध्याऽवस्था प्राक्तनी चित्तचोक्षा |8|| यथा साध्यसिद्धिविना साधनं नो, तथा साधुतां शुद्धधर्मोद्यमाङ्काम् / विना वीतरागस्तदेतद्विधानं, सुचित्राङ्किते चारुचैत्ये समानम् // 9 / / भाषा या लिपिसंश्रिता न नियता कालेन देशेन च, . प्राप्ताऽनेकश उच्छिदं बुधमता चित्रं तु पाषाणवत् / प्रेक्षन्ते समकालगा बुधजडा गच्छन्ति सत्यं पथं, तस्मादाचरितव्यमेतदमलैश्चित्रैर्युते चैत्यके (मन्दिरे) // 10 // घनरिक्थयुतैर्वरबुद्धिधन-जिनवाङ्मयविद्धशुचिश्रवणै ___घननित्यसदागममानधरैः , श्रमणादिसुसङ्घघनिष्ठमतैः / शुभसन्मतिधारकसन्धिजन-जनसार्थगताऽऽदृतिशुद्धरवैरमणीयतरं वरचित्रयुतं चिरचैत्यमुदार ( दीर्ण ) मतैः क्रियते // 11 // तदा सन्मान्यं तद्यदि च विधिना वृद्धरुचिरं, मनोज्ञं चैत्यं चेत् परित उदिताचारततिवृतम् / न चास्थाने सन्तो विहितविविधाचाररतयो, . गतिं स्थानं शंसां विदधत उदा यत उमा // 12 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 95 रक्षाधूलीकीकसादौ विशल्ये, तच्चैत्यं नो दीर्घकालीनशोभम् / शत्रुत्वं नो चेहरेयुस्तदीना, मान्यं नित्यं तन्नरैः सर्वदा स्यात् / / 13 / / सन्तोष्याः शुचिकारवो मतिधनैर्यत्ते क्रियासुर्वरं, चैत्यं सुन्दरचित्रराजिकलित धर्मप्रदं देहिनाम् / कार्याणां रमणीयतामलमिमे कुर्युः प्रसन्नान्तरा, .. यहेहेन कृतिर्भवेद्धृदयभूचेष्टानुगा नान्यथा // 14 // विम्बं यद्यपि शोभनं जिनपतेः कामप्रसत्त्याऽभव न्वाह्लादकरं भवेद्यदि परं चैत्ये सुचित्रान्विते / सच्छ्राद्धैः प्रणिधीयते न विवुधानन्दप्रदे सत्स्थले, - नो दृष्टिं प्रतिसंहरेद्विधिवशः साग्रात्समालोकनात् // 15 / / चैत्येऽधिक्रियते जिनस्तदनुगा चैत्ये क्रिया चित्रणे, नो चेञ्चारुतरं भवेन्न हृदयं तुष्टं भवेत् प्रेक्षिणाम् / तत्तत्कारणयोगिनो जिनपतेराश्रित्य तिस्रो दशा- स्तोष्टव्यास्तदनुश्रितैः प्रकरणैः सर्वेऽपि सत्कारवः // 16 / / विम्बं रत्नसुवर्णराजतकृतं नास्माद्विशिष्टा नृणां, चित्ते शान्तिरनुत्तरा भवति तु सौन्दर्यसत्त्वान्वयात् / तत्तत्कारव उत्तमेन धनिनाऽङ्गाकारसिद्धयै ध्रुवं, '. सत्कार्यास्त्रिदशागतैः प्रकरणः स्याद्विम्बशुद्धिर्यथा // 17 / / यथा नृपाणां प्रजया प्रमोदा-द्राज्याभिषेके विविधक्रियाभिः। ' कृते सदाऽऽडम्बरराजिताभी-राष्ट्र महत्त्वं वचनातिगं स्यात् // 18 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। तथाऽहतां रम्यतराणि बिम्बा-न्यशेषकारुक्रियया कृतानि / विना प्रतिष्ठाविधिमाहतानां, पूजाऽऽस्पदत्वं न हि जातु यान्ति // 19 // चित्रैः सुरम्ये विहितेऽथ चैत्ये, दशाहमध्ये क्रियते प्रतिष्ठा / . प्रभोर्न चेत्तद्भवनं मनोज्ञं, रक्षोऽधमैः शीघ्रमधिष्ठीयेत // 20 // अर्हच्चैत्यप्रतिष्ठासमयमनुसृतं वस्त्रशृङ्गारकार्य, नाटथं धर्माङ्कबद्धं विविधवधयुतेऽमारिघातो निकेते / सन्मानः सर्ववर्गे विविधगुणधरे श्रावकाद्यर्हसो , कार्यों यत्तं निधायाऽव्ययपदगमनं धर्मप्राप्त्यै विशेपात् / / 21 / उक्तं यच्छास्त्रकारैः परिणतिवशतो ह्याश्रवा निर्जराङ्ग, - तत्सत्यं यज्जिनेन्द्रो भवमुखमहसां पापबन्धो विधाने / तद्वत्कार्य जिनानां प्रतिकृतिमहने विद्यतेऽङ्गक्रियायां, __ स घः सर्वोऽत्र तस्माद्विधिवदनुसरेत् सर्वशोभावहत्वम्।।२२ विधौ प्रतिष्ठाकृतिसंश्रितेऽत्र, कृते जिनानां महिमाऽष्टघलान् / विशेषतः श्राद्धवरैविधेयो, यथा मुदायै जिनविम्बचैत्ये // 23 // चैत्यं विहितं विम्बैर्युक्तं, सङ्घप्रहितां पूजा प्राप्तम् / नाप्यं निजके धार्य सधे, व्याख्या मुनिभिः कार्या सूक्ता // 24 // भव्या अत्रागत्याऽनङ्का, दृष्ट्वा मूर्ति धर्माऽऽरामाम् / बोधं यान्तु प्राप्तानन्दाः, शीघ्र यान्तु मुक्तिं रम्याम् // 25 // नैवात्र शङ्कयममलप्रतिवोधसार नैवेदमाप्तविहितं करणीयमार्गे / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' जैनगीता। 97 शल्यादिसाम्यमुदितं रवणादिसल्घे, शास्रेषु नैव जिनविम्बगृहादिकार्ये . // 26 // दत्ते मुनिभ्योऽशनपानखाद्य-स्वाद्यानि यो हि वधमादि कृत्वा / . तत्रापि चेच्छास्त्रकारैः प्रभूता, सन्निर्जरा तर्हि विमोहनं कथम् // 27 // केचिन्मुनीनां स्तवमाश्रयन्तः, पुष्पादिपूजां विहितां गृहस्थैः / पदेऽपवादस्य मनन्ति, तन्ना-धिकारियोग्यो हि विधिस्तथा न // 28 // निषेधो विधिर्वा मतः कर्तृ योग्यो, मुनीशो निषिद्धो गणेतप्तिकार्ये / मुनेर्मार्गगत्यां निपिद्धोऽस्ति पाठो, निपिद्धा स्थितिः कल्पिकी पानबाधे // 29 // दृष्ट्वा जिनं चैत्यविराजितं जना, व्रजन्ति राग जिनशासनेऽनघे / समूल एप क्षयति प्रकामं, द्विष्टः सपक्षे खलु नीतिबाह्यः // 30 // जिनाय शान्तिप्रथमाननाय, नत्वा निजं तद्गदितागमाय / भवेत्प्रवृत्तो नर आत्मतायी, प्रकृष्टशत्रोः पदमाश्रितो यत् // 31 // एका नतिर्या जिनराजभानवे, कृता नरैः साऽष्टविधान्धतामसम् / निहन्ति, यन्नैव हतौ दिनेश-प्रभाऽलसा स्यात्तिमिरावलीनाम् / / 32 / / पूजामष्टविधां तथाविधमतिः प्रातः स्वकीये गृहे, चैत्यं याति मनोहरं पुरगतं श्रीसङ्घसत्तां श्रिते / प्रत्याख्यानपरो विधाय गुरूणामाचारचयाँ वरां, . ___ मध्याह्ने प्रतिलम्भ्य साधुनिचयं जैनोऽशनं खादति // 33 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। सन्ध्यायां गुरुसाक्षिकी विधियुतामावश्यकी सक्रियां, * : ...., ग्लानत्वादिदशाश्रिते. वरगुरौ विश्रामणामाचरन् / / स्वाध्यायं परमं विधाय जिनराट चैत्येऽर्चनां सम्मदात् , .. कृत्वाऽऽयाति निकेतनं शुचितनुः ( स्मृतिधरो ) जैना ... . . .:. नयेद्यामिनीम् // 34 // जैनश्चेत् प्रबलाघसन्ततिभरात् क्षीणेऽथ रिक्थेऽथवा, . हेतौ वा समुपस्थितेऽपरतमे देशान्तरं गच्छति / जानींते स्वकमन्तरांय मुदितं लाभादिधातोद्यतं, क्षीणं नैव भवेत्तकद्यदि परं, लाभो महान् धर्मगः // 35 / / जैनो देशान्तराणि व्रजति यदि तदा चैत्ययुक्तं निवासं, - गत्वावश्यं सुचैत्यं मुनिगणसहितं याति नत्वाऽन्यथा न / पश्चात् संसक्तिरेभिर्भवतिः यदि परं स्मारयेद्वन्दनं तत् , ... . . स्यादेवं जैनमार्गो मिलितविमलहृद्धारकः शासनस्य // 36 // श्राद्धो भवेजिनवरार्चनबुद्धिपूरो, नैतच्च चैत्यजिन विम्बयुगं विहाय / तच्छ्राद्धधर्ममतयः प्रतिपाटकं हि, कुर्युरत्वदो जिनमतेऽतितरां .. : हि रक्ताः // 37 // एवं विबुध्य विबुधैर्जिनरिक्थमेतत् , सङ्घाय दिष्टममलाय शिवोद्यताय / तद्वर्धनावनविनाशफलं प्रदर्य, त्रैधं गृहेऽर्चनविधौ सकले च योगि॥३८॥ यो वर्धयेजिनधनं प्रवरोपयोग, श्रीजैनशासनगतोन्नतिसूत्रधारम् / सज्ज्ञानदर्शनचरित्रविकाशधुर्य, प्राप्नोत्यसौ जिनपदं प्रथितं पृथिव्याम् // 39 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / द्रव्यं जिनस्य न भवेदपरिग्रहस्य, भक्त्यै गृहीतममलेन हृदा जिनस्य / वृद्धौ जिनेशयजनोन्नतिकेऽस्य भावी, सच्छासनस्य भुवि वर्तयिता . ... न चित्रम् // 40 // चैत्यं बिम्बं जिनस्य प्रभवति सकले सम्भेदे हिताय, .. 15. . बाला वृद्धा युवानः सुकृतमतिधराः स्वीययोषाभिरक्ताः / जात्या वंशेन देशैः प्रचुरनिचयिनोऽबाधधामाभिलापाः, . लाभं बोधेर्लभन्ते जिनपतिपठितं सुस्थितं तद्धि दृष्ट्वा / / 4 / / तत्सर्वं रम्यतायां जिन-जिनगृहयोः सुस्थितत्वोद्भवायां, सा स्यात्तद् द्रव्यसिद्धेरिति सुकृतभरा वर्धने बद्धकक्षाः। " न्यायेनाऽऽरम्भशून्या गत विषयवधा धर्ममानार्थवाञ्छाः, .. . सर्वेषां मुक्तिकाङ्क्षा जिनपदमतुलं नाद्भतं यद्धरन्ति // 42 // ये सत्वा नहि तादृशं धनबलं युक्तिप्रयोगं कलां, . . बुध्यन्ते प्रबलं च नो कथमपि वृद्धेः परं कारणम् / देवस्वस्य तदा नरास्तदवने स्युः सोद्यमा मुक्तये, सर्वेषामुपकारकस्य विधिना मुक्ति लभेरन् लघु // 43 // ये तु प्रोत्कटमोहराजजनितप्रावल्यभाजो नरा, . मिथ्यात्वाऽऽकुलचेतसो जिनधनं ताहक् प्रभावान्वितम् / नो वृद्धिं न च रक्षण प्रतिपदं नेतुं प्रवृत्ताऽऽदराः, भक्षन्ति प्रमदाः परैश्च निहते नो वारितुं सादराः // 44 // ते धर्मस्य विवर्धनं स्थितियुतं निर्णाशयन्तीतरे, ... तन्मोहं . समुपायं दुर्धरतरं प्राप्स्यन्ति दुःखान्विताः / P.P.AC. GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100. जैनगीता। संसारेऽधमवृत्तयो नरकगा दुःखेन बोधिं परे, जन्मन्यासुरभावनोद्यतहृदो नैव शिवश्रीश्रयः // 45 // युग्मम् श्रुत्वा फलं जिनपतिद्रविणे प्रवृद्धे, रक्षागतं न मनुजाः शुभबोधशून्याः / पूजादिकार्यविधिषु द्रविणं व्ययन्ते, ये तेऽपि नैव विधिमार्गपराः समेपु / चैत्येषु बिम्बसहितेषु यथार्हमाधाः (मय॑म् ) // 46 // देशप्रदेशेषु परापरेषु, बिम्बानि चैत्यानि पुरातनानि / दर्श दर्श भव्यजीवा अनेके-ऽवापुर्बोधिं तभृतश्च स्थिरत्वम् // 47 // प्रमादतोऽकारि सुसंयतेना-ऽकृत्यं कदाचिन्न च तत्परेभ्यः / गीतार्थसंविग्नमुनिभ्य आशु, निवेद्य शोध्यं परतोऽपि जातु // 48 // ततः प्रत्ने चैत्ये भवति जिनपतेर्या प्रतिकृतिस्तदने शास्त्रेण स्वयमपि समालोचयति सः / गीतार्थः शोधीनां सकलशुचिकरान् वेत्ति सुविधीन् , अकृत्यं निर्मायं शुचितरमनाः शुध्यति ततः // 49 // पुराणानामेवं जिनपतिगृहाणां प्रतिमया, जिनस्यात्यानां द्राग् महिमप्रततिं वीक्ष्य सुधियः / . सदा कुद्दुस्तूत्थां निरघमतमुदा पालनयुतां, लभन्ते ते. प्रेत्याशुभमतततिं पापपदिकां / निहत्याऽईच्छास्त्रप्रथितमहिमानं शुचिपदम् / इति वा // 50 // भवेद् जैनोऽसौ यः प्रतिनियतसामर्थ्यसहितो, विधेयाच्चैत्यानां विविधघटनां बिम्बसजुषाम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 101 स्वयं संसाराब्धेस्तरणनिपुणस्तारयति बै, गता धर्मारामं न भवति विदुषां स्वान्यविभिदा. // 51 // इति पञ्चविंशोऽध्यायः / / / पड्विंशोऽध्यायः / (ज्ञानाधिकारः) जैनोऽसौ नियतं तनोति मतिमान् यो ज्ञानकार्य सदा, जैनं यद् भुवि शासनं विजयते हत्वान्यतीर्थप्रभाम् / सोऽनों महिमा प्रचण्डतरको ज्ञानप्रभावोत्थितः, प्राप्तेष्वन्धनरेपु यद्बहुतरेष्वीक्षाधरः श्लाघ्यते . // 1 // ज्ञानेन जातं भुवि जैनतीर्थं, ज्ञानेन तत्स्थापितमर्हता पुनः / ज्ञानप्रवृत्तिं भुवि जायमाना-मपेक्ष्य तीर्थं जगतीह वर्तते // 2 // ज्ञानस्यैष महः परात्परतरो, जागर्त्यनूनः परस्तीर्थेशां परिपत्सु यच्छ्रतधराश्छद्मस्थभावान्विताः / गच्छेशाः श्रुतकेवला निखिलविद्वन्दात् पुरः स्थानगास्तानादौ च नमस्करोति निखिलः शेषः सभासज्जनः // 3 // मुनीश्वराणां गणानायकत्वे, स्थाप्ये मता या निखिला गुणालिः / सर्वाऽपि सा युक्ततमाऽपवादः, परं श्रुताऽऽधारगुणे त्वसौ न // 4 // क्रियाविहीनेऽपि मुनौ जनानां, मिथ्यात्वभावो न तथाकृतिश्चेत् / गीतार्थतायां सुमुनौ (च) तद्वद्, भवेदयं चेच्छ्रतधारको न // 5 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 जैनगीता। गीतार्थनिश्रामभिहत्य ये स्युः , क्रियापराः संयमिनः प्रभूताः / तेष्वंश एकोऽपि न संयमस्य, ज्ञात्वेदमार्यः श्रुतसाधनो भवेत् // 6 // भेदाः पञ्च ख्यातिमन्तो बुधेषु, ज्ञाने गीताः शास्त्रकारैर्हिताय / मत्याद्यास्तु व्याहृतिस्तस्य शास्त्रे, कालायेषु गीयते शास्त्रनिष्ठा // 7 // जैनैः पर्वं राध्यते ज्ञानसत्कं, पञ्चम्यां वै शुक्लपक्षोपगायाम् / तत्र स्थाप्यं शास्त्रवृन्दं पुरस्तात् , तस्याग्रे श्रीसङ्घ आप्नोति धाम // 8 // वर्षाऋतौ स्याद्वरपुस्तकाना-माईत्व तद्धेतु विकुत्थनादि / तत्सारणादावधिकः प्रभावो, मत्वा श्रुताराधनमिष्यतेऽत्र * // 9 // तदाश्रया कार्तिकपञ्चमीयं, मता जिनेशानुगतैः समस्तैः / पर्यायभेदेन मता ततोऽसौ, सौभाग्ययुक्ता श्रुतपञ्चमी. वा // 10 // चिरन्तनानां यतिनां न काचित् , पुस्ताद्यपेक्षा स्मृतिपाटवानाम् / तथापि तत्रामलशास्त्रपद्धति - गीतार्थताहीनजनोपयोगिनी // 11 // देवेन्द्रयुक्ताद्गणिनः पुरस्तादा-ऽऽसन्मुनीनां वचनानि मानम् / परं परस्तात् स्मृतितानवानां, पुस्तानि सर्वेभ्य उदारमानम् // 12 // ततोऽधुना नैव वचांसि मानं, न बिभ्रतीष्टं शुचिपुस्तकानि / महामुनीनां गुणगह्वराणां, नासम्भवी यत्स्मृतिलोप उग्रः // 13 / / प्रवक्तुमेतद् यदि नोचितं न, प्रवच्मिनिःशेषमिदं हि शासनम् / लेखान सुपुस्तप्रथितान् विहाया-परेण नैव ध्रियते कथञ्चित् // 14 // यदा स्मृतीहाधरणादिमेधा-प्राचुर्ययुक्ता मुनयः प्रशस्ताः / तेषां तदा पुस्तकसङ्ग्रहस्य, परिग्रहः कारणमेव नान्यत् // 15 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 103 मेधा यदा हीनतरा मुनीनां, कोशाय नियुक्तिमुखग्रहोऽभूत् / / हानिर्यदा तत्र बभूव भूरि-स्तदा समग्रस्य बभूव सङ्ग्रहः // 16 / / यथा ह्यचेलत्वक्षमे हि वस्त्रं, परिग्रहः स्यान्मुनितापदाङ्कसू / परेषु यत्संयमसाध्यता स्यात् , तेषां ग्रहाच्चीवरभाजनादेः // 17 // अतोऽधुना पुस्तकसङ्ग्रहो यः, स एव बोधं जनयत्यनूनम् / धरन्ति चेत्तानि न पुस्तकानि, हास्यादिसक्ता मुनयो .... ....... भ(वेयुः) वन्ति // 18 // ततोऽधुना ज्ञानगुणे सुना सदा, कार्य द्वयं ज्ञानपदार्हणायाम् / आराधना ज्ञानपदस्य जाप-ध्यानादिभिः पञ्चपदानि लात्वा // 19 / / अन्त्यं मुनीभ्योऽमलपुस्तकानां, विलेखनामर्चनमारचय्य / समर्पणं वाचनमन्ययुक्ति-द्धयोपकाराय सदा प्रयोज्या // 20 // न दर्शनं शास्त्रविहीनमार्ग, शास्त्राणि सर्वाणि समाश्रितानि / . सुपुस्तकालिं गणिना वरेण, ज्ञातुं स्वकान्यानि निदेशनानि // 21 // धार्याणि निश्शेषमताश्रितानि, तत्कालकालान्तरपुस्तकानि / गणी भवेन्नेतरथा स्वकान्य-मतोद्ग्रहे शक्तिधरः प्रकाशम् // 22 // युग्मम् यावत्तीर्थं जिनस्य प्रचलति भुवने तावदेषोऽपि सङ्घो, ... यावच्चाऽसौ जनेषु प्रकटतिमिरहां तावदर्हच्छतानाम् / तत्त्वानां सप्तकस्यानवमपथधृतिप्राप्तिहेतुत्वमाप्यं, तानि स्युः पुस्तकानां निचयमनुसृतान्यर्चनीयानि भव्यैः / / 23 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 जैनगीता। अन्त्याऽऽवर्तप्रमिते (माणे) भवगतिगमने शेष आप्नोति मार्ग, भव्यो जीवः प्रभावात् सुकृतनियतितो जातकालात् प्रधानात् / तत्रानाभोगवान् सन् प्रचरति जिनपोद्भाविते यद्वदन्धो, सद्भाग्यो भव्यजीवश्चरति गतपथो सार्वदेशितमार्गे // 24 // तद्वज्जीवोऽपि मार्गे यदि व्रजति पथि ज्ञानहीनस्तदापि, देवाद्यर्चादिवत्सोऽनुगतविमलभा लेखयेत् पुस्तकानि / अभ्याशेषशिष्टद्रविणनिचयतः सद्गुरुभ्यः समय, सत्याप्य श्रोतृकार्यं गुरुवचनसुधापानमादत्त उच्चः // 25 // देवो गुरुर्धर्मवरश्च बोध्या-न्येषां समासाद्य ऋतां प्रमाणाम् / व्याख्यात्रधीनानि यथा श्रुतानि, विशेषतोऽमूनि तथाङ्कितानि // 26 / / तथापि वाहुल्यमनेहसीय-प्रभावतो बुद्धिधनस्य विस्मृतेः / कुवादिनां कल्पितपाठवादिनां, विलोपकानां च न विद्यतेऽन्तः // 27 एतादृशेऽनेहसि मार्गरक्ताः, कथं श्रयेयुः शिवशुद्धमार्गे / अतो विसंवादहरानऽभिन्न-रूपान् सुपुस्तान् भविनोऽर्चयन्तु त्रिभिर्विशेषकम् // 29 // निशम्य पैशाचिकवृत्तमार्त-स्नुषाकथां च बतिनः स्वशुद्धथै / क्रियातिरिक्त समये विदध्युः, स्वाध्याय एषोऽपि सुपुस्तकाश्रितः॥२९ एवं च ये स्युः सततं समुद्यताः, स्वाध्याययुक्ते वरधर्म्यचित्ते / सुपुस्तकानां धरणे प्रवीणा, ध्यानेऽन्यथा बाध उदियात् प्रचण्डः // 30 तीर्थाधारतचा सुपुस्तनिचयस्तेनैव मल्लप्रभो.. देव्यानीत उपाय आगमविधौ पुस्तस्य वर्षावधिः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगोता। सिद्धः प्रतिबोधनाय गुरुणा रक्तस्य बोद्धे मते, .. न्यस्ता सुन्दरपुस्तिकाऽस्य विमले जैनेन्द्रधर्मे मतिः / पूज्य-श्रीहरिभद्रसूरिरचिताऽस्याऽऽलोकनेऽजायत // 31 // त्रिधोदिता जिनागमा अनन्तर-परम्परा-......: ऽऽत्मस्वरूपभेदतः. पुनर्द्विधाऽर्थसूत्रतः / द्विधाऽपि वर्ततेऽधुना परम्पराभिधानको, जिनेशशासने मुनेः परम्पराविहानितः / सुपुस्तकाश्रितस्ततः स एव पूज्यतामिह मत्वैवं शासनस्यानुपमहितकरं पुस्तकं तत्पुरोगैनके कोशाः कृताः सत्पुरुषवचनतः शासनोत्तेजना नेके श्राद्धोत्तमास्तु विविधविधियुतान्याचरन्ति प्रकामे, तत्तद्वैचित्र्यभानु तप उदयकृते यापने तद्विलेखान् // 33 // यथा जिनेशभक्तितः * बहुप्रकारिकार्चना, . . जिनेश्वरेषु पूजने तदीयविम्बसंहतेः / तथा जिनेशशास्त्रवृन्दभक्तिभारिता जनाः, ...... सुशास्त्रबोधिनस्तदाश्रयाँश्च पूजयन्ति वै // 34 // अतः श्रुते समीरितं विधाऽऽवृतेर्विबन्धन, . बाधनाच्च बोधि-बोध-तद्गताऽङ्गसंहतेः / क्षयं तु चेत्समीहते प्रकाममात्मकाम्यया, . . . निषूद्यमं तदावृतेः क्रियात् सुपुस्तकान्वयात् // 35 / / चैत्यानां नूतनानां वितनुत उदितां सक्रियां यद्धनाढ्या, . उद्धारं प्राक्तनानां विविधपुरयुजां तन्वते भक्तिनम्राः / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 जैनगीता। विम्बानां नव्यजीर्णप्रकरणनिपुणा उद्यमं सन्दधन्ते, सधे जैनेशनम्ये बहुविधविनयं सन्नयन्ते सुधर्माः (बोधाः) // 36 // सर्वोऽप्येष प्रभावो मुनिवरसजुषः सङ्घसार्थस्य तीव्रो, भेर्युक्तश्चतुर्भिः श्रमणमुखगतैः पुस्तकाधारजीवैः / व्याख्यानं सक्रियायुक् प्रवितरणचणैः शासनस्तम्भरूपैर्युक्तस्य पुस्तभक्त्या त्रिकरणविधया संश्रितस्यैव नूनम् // 30 // शास्त्राणां विहिता वरा सुरचना पुस्तेषु विज्ञोत्तमैः, सा चेदाधमियति तर्हि जिनपस्याऽभूत्परं बाधितम् / सर्वं यद्धरति प्रकृष्टमनिशं सर्वत्रगं सद्यशः, सूत्राणां मितबाधने परममुष्मिन् धर्मवार्ता वृथा // 38 // ज्ञानं सर्वमतानुगैरभिमतं धर्माहतौ सारभृज, जैना अप्यभिमन्वते परमिदं तत्त्वाशया नो परम् / जैना वच्छिवसाधनं परतरं मन्वन्त उद्धारकं, ज्ञानं सक्रियया युतं न विकलं चैकं ह्यपीप्स्यप्रदम् // 39 // रोगी नैव निदानरूपभिषजां रोगस्य बोधावेदल्पेनापि गदेन मुक्ततनुकश्चेन्नागदानां क्रिया / वार्धस्तारकतां श्रितोऽपि पटुधीश्वेत्तारणे नोद्यतः , ... पारं नो समियर्त्यसौ नदनदीष्वेवं क्रियाऽऽवश्यिकी // 40 // युक्तोऽपि क्रियया विचित्रविधया रत्नाकरेष्वागतश्वेन्नासाववबुध्यतेऽत्र पतितं सारं गतार्घ च वा / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradlak Trust Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 107 तत्तत्रागतिरस्य मुग्धहसनी सिद्धिर्न काचित्पराप्यर्थोऽस्य सकलप्रयास इह चाऽज्ञानिक्रियायां समः // 4 // प्रागुक्तं श्रुतधारकैः श्रुतिपदं यः संयतः संयतः, गत्यां स्थान उदाहृतौ शयविधौ वाच्यासनेपूद्यतः / / बध्नात्येप (न) पापमण्वपि यतोऽसौ रक्षकः प्राणिनां, चेत्प्राणान्तमिताः परेऽसव इदं पापाय नो तादृशे // 42 // एवं नो विधितत्परोऽपरमुनिः साध्यं विहायाऽऽत्मना, कुर्यात्ताः परमप्रमादसहिता हिंस्यान्न जन्माश्रयान् / : जात्वेषोऽघवितानसञ्चितिकरो रक्षाविधौ न यत, . एष यत्नपरः परेऽत्र न मृताः स्वायुःसमर्था यतः // 43' श्रुत्वैवं चच आदृतिप्रचुरताभागाह शिष्यः परो, ... नो ज्ञाने शिवकाक्षिणा मतिरतः कार्या फलेनोज्झिता / आहात्रान्तिपदां सदा हितविधावालस्यलेशोज्झितो, . यो जीवेतरसार्थबोधरहितो रक्षोद्यतः किं भवेत् 1 . // 44 // तज्जीवेतरवस्तुवृन्दविषयं ज्ञानं परं धारयन् , : पुण्यापुण्यविधानबोधजनितं मुक्त्यन्तसौख्यं श्रयेत् / तत्प्रथमं शिवधाममार्गनिपुणैर्ज्ञानं परश्रेयसे, _ ग्राह्यं यज्जिनशासनं द्वययुतं ख्यात्यव्ययाप्तिप्रदम् // 45 // श्रीजैनशासनमतेऽत्र नराश्चत्तुर्धा, ज्ञानं तु केवलमुपासतमुज्झितेर्यम् / हीनां विदा पर उशन्ति परां प्रवृत्ति, द्वौ चापरौ गुणविशेषतया द्विकं तु, - नैतेषु कश्चन नरो जिनमार्गमेतः // 46 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। ज्ञानक्रियोभयगताः पुरुषेषु भङ्गा, यत्ते नरेषु भजनापदतो विभातः / ज्ञानं लभेत- पुरुषः प्रचुराघभेत्ता, बन्धोऽपि जातु नहि ग्रन्थिपरो हि तस्य // 47 // नैति क्रियाकृतिमसौ मतिरस्य तद्गा, तेनायमेति पदमाराधनया प्रभूतम् / : जैनी क्रियां प्रविदधान उपैति मार्ग, योग्यत्वमस्य न तु सको. नियमात्तमेति // 48 // भव्येतराः केचिदिमा समेता, न तेऽत्र भव्या अपि मार्गहीनाः / . आराधना तस्य भवेद्धि न्यूना, मार्गेण हीना इति दुष्टताङ्काः // 49 // ज्ञानं क्रियां चापि समेत्य युग्मं, सम्यक्त्वचारित्रयुजः पुरुषाः / मार्ग जिनेशस्य यथास्थितं ते, मोक्षं लघुद्यान्ति विशुद्धभावाः // 50 // ने कुले ये जनिमादधुस्ते, यावन्न तत्त्वेतरभावविज्ञाः वृद्धानुवृत्त्या क्रियया विदा च, वृतास्तथाप्यत्र न ते प्रमाणम् // 51 // क्रियायुतो ज्ञानपदार्थशून्यो, निवेदितोऽरण्यगतोऽक्षिहीनः / नियुक्तिकारैः प्रसभं द्वयोस्तु, समत्वमाश्रित्य युगादराय // 52 // द्वयोः परं साध्यमपेक्ष्य तैर्हि, चारित्रहीनः कथितः खरैः समः / ज्ञानं तु दीपैस्तुलितं प्रधान, ज्ञानक्रियाभ्यां सहितोऽहपूर्गः // 53 / / समस्तकर्मक्षयतो विमुक्तिः, श्रेणिप्रभावात्स भवेन्न सा तु / / कैवल्यहीने शिवसाधनं तद्, ज्ञानं सदा श्रेयमिदं तु भव्यैः // 54|| P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / मार्गास्त्रयः सम्मिलिता विमुक्तेः, सम्यक्त्वबोधव्रतरूपवन्तः / सम्यक्त्वलाभात् प्रभृति क्रमोऽत्र, तत्त्वार्थवोधेन विना न निश्चितिः।।५५।। ज्ञानं कुलाचारत एव यस्य, तस्यास्ति साध्यत्वमुदारदर्शने ! . यस्त्वादिधर्मा स नरो लभेत, ज्ञानाद्धि सम्यक्त्वगुणस्य लाभम् // 56 / / जिनेश्वरा यद्यपि गर्भकाला-द्विशिष्टसम्यक्त्वधरा ध्रुवं स्युः / ज्ञानत्रयं तत्र तथापि शंसां, जनैः कृतां प्राप्नुत इन्दुसाम्यात् / / 57|| परित्यजन्ति तीर्थपाः समग्रपापभाजनं, गृहं धनाङ्गनासुतादिसंयुतं स्वबोधतः / तदैव तुर्यमाप्यते समैर्मनःसुपर्ययं, न जायतेऽद आश्रितेष्वगारमात्मभावतः // 58|| कृते तु दीपेन गृहे प्रकाशनं, धूलीप्रमुखस्य विशोधनं परम् / न चेद्भवेत् तत् प्रथमं तदा पुनः, सुवर्णरूप्यादिरपोहितं भवेत् / / 59 / / तथैव बोधेन विना कृतं तपो, भवेदकामेन युतां विनिर्जराम् / हेतुः प्रति, प्राप्तिरतो न मुक्ते-रादेयहेयार्थविदा न तत्र // 6 // निरोधः कृतश्चेन्न नूत्नांहसां त्रा, पुराणाघनाशोद्यम आर्तरूपः / यथार्थपापप्रचयक्षयः स्या-द्विवुध्य तत्तत्करणिं निरन्ध्यात् // 6 // उद्यमो यदि कृतो मनस्विना, संयमे तपसि च श्रुतागमे / . निवृतिः करतले पुनः स तु, ज्ञानिनोह्यपरथाऽन्धनृत्यवत् // 62 // ज्ञानेषु पञ्चसु पुनः श्रुतमेकमेव, व्याख्याति रूपममलं. स्वपराश्रयाङ्कम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 जैनगीता। मूकानि शेषमतिमुख्यविबोधनानि, , स्वेषां न रूपममलं वदितुं क्षमाणि // 63 // ज्ञानं यद्यपि केवलं वरतरं सर्वार्थबोधान्वितं, नित्यानन्दसमन्वितं नियतताभ्राजिष्णु सर्वोत्तमम् / / मेरौ काश्चनसन्ततेः सममिदं लोकोपयोगोज्झितं, तत्स्वर्णं खनिसम्भवाभमनिशं श्रोता श्रुतं संस्तुयात् // 64 // कालोऽयं कलिसज्ञितो न च नृणां ज्ञानानि शेपाणि वै, नैवाकाशविचारिणां गतिरिहासत्त्वं च लब्धिस्पृशाम् / मेधा नैव तथाविधा गणभृतां सद्योगयुक्तात्मनां, तुल्या, शासनमार्हतं विजयते सामर्थ्यमान्य श्रुतात् // 65 / / जैनेन्द्रशासनमिदं सकलान्यतीर्थ्यन्यत्कारकारणसहं जयतीह लोके / सर्वोऽप्ययं लिखितशास्त्रभवोऽनुभावो, ज्ञात्वेदमत्र लिखनेऽलसिता सतां का ? // 66 / / जैनोऽसौ वरभक्तिभाग वितनुते नित्यं महं ज्ञानगं, तत्रापि श्रुतलेखनावनविधौ जैनेन्द्रविम्बेष्विव (म्बाधिके) / देवा यद्वदवाप्य जन्म झटिति श्रौती सरन्त्यर्चनां, तद्वद्यः प्रतिवासरं वितनुते श्रौती सदा मुदा // 67|| .. इति पत्रिंशोऽध्यायः // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 111 / / / सप्तविंशोऽध्यायः / (श्रमणाधिकारः) .... जैनोऽसौ जिनशासनाधिगमतो जन्म स्वकीयं सदा, धन्यं मन्यत आत्ममुक्तिपरमं नास्तीतरच्छासनम् / पूज्यत्वं जिनशासनस्य सकलज्ञोदाहरात् सर्वदा, जीवानां हितदेशनादघटितानुक्तेर्मुमुक्षुग्रहात् // 1 // देवो रागविनाशकृद्यदि न सत्साधोर्दिशेच्छासनं, ज्ञानादित्रयसंयुतं विरमणं पापेभ्य आख्याज्जने / विद्वत्सु प्रतीतं पदं प्रथमतः स्याद्दशकस्तातो, नो चेदेष्टरि नर्तके च विभिदा नैवाहणा सन्नृणाम् आत्मा केवललब्धिमीलनपरः स्याद्रागरोषादिजिद् , यस्माज्ज्ञानहशोन नश्यत इहावृत्यौ कषायान्विते / बन्धौ नैव विगच्छतो भवकरेऽनिष्टे कषायान्वये, तत्कैवल्यधरो जगत्पतिरसौ श्रीवीतरागो जिनः // 3 // महत्त्वं जिनस्यास्ति यत्सोऽखिलार्थान् , समत्वेन वेत्त्येक सामान्यरूपान् / पृथग्रूपधाराँस्तु वेत्ति प्रकृष्टान् , विशेषान्वितान् युग्मरूपः पदार्थः // 4 // वक्रा यथा स्याद् ऋजुतान्विताङ्गलिः, नष्टा स्थिरोत्पादयुता तु सैव / एवं प्रभुः कालभिदोत्थितानां, वेत्तीह पर्यायदशाश्रितानाम्... // 5|| द्रव्याभिधानेन समूहमेवं, स्याद्वाद एवास्ति पदार्थरूपः / बुध्यात्परे नित्यमताः परेशे, स्वस्मिन्ननित्ये न हि कुग्रहाः स्युः // 6 // भिन्ना जीवा भवेयुर्यदि न हि करणैर्ज्ञानसौख्यादिभाजो, ... यातस्य प्रेत्य जन्मासुभृत इह नहि प्रेक्ष्यते किं नु देहः / .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 जैनगीता। जीवे यातेन वेद्यं करणविधिगतं वेद्यते प्राणधर्ता, भिन्नाऽभिन्नस्वरूपौ तदिह किमुत न जीवकायावपीष्टौ // 7 // समस्तमस्तीह जगत्स्वरूपे, सदन्यभावेन सदेव न स्यात् / नोभात्मरूपे विषयस्य भेदो, यदिन्द्रियैर्गम्यत आत्मगम्यम् // 8 // सर्वादिसामूहिकशब्दयोगे, वाच्यं समं नैव तथा ह्यवस्थाः / जीवेषु सर्वेषु गुणाः समस्ता, नाऽजीवगास्ते निजरूपनिष्ठाः // 9 / / कर्मावृतत्वात्कृतिरेतदुद्भवे, कार्य ततस्तद् द्वयरूपमेव / स्याद्वादमेवं जगतो विबुध्य, दिदेश नाथो भविकाच्छिवाय // 10 // नैकस्य सर्वज्ञहशेति शिष्यान् , जगाद निश्शेषविदे सुमार्गम् / सर्व लभन्तां शिवमित्थमुग्रं, जिनेश्वरीयेषु नृषु स्वतत्त्वम् // 11 / / / दिष्टो यद्यपि सर्वभावविदुषा मार्गः कषायोज्झितो, ___ नायं सिध्यति साध्यते क्रममृते तद्धेतवः साधकाः / दिष्टास्तत्क्रमशः समुन्नतिमयाः शिष्येभ्य एतत्पदे, - येनाऽशक्यमिदं समस्तकलनं त्वेतद्धि नो स्याद्रुचिः // 12 // न नित्य आत्मा न च नाश्यनुक्षणं. ततोऽस्य सिद्धत्वमसम्भवन्न / नैरात्म्यवादे न किमु प्रभावो, नश्येन्न पश्येदिति शल्यनाशः // 13 / / निरीहतायां न सतोऽपि रागो, वैराग्यनिष्ठो न च दुःखरोषी / . आत्मा स्यभावेन युतो न सुख्यपि, स्वरूपरक्तस्य न मोहहेतुः // 14 // स्वरूपमालिन्यमतो न तस्य नैर्मल्यसिद्धथै खलु मार्गदृष्टिः / साध्यत्वमत्यत्र तदीयजीवे, तत्रैव सम्यक्त्वमदर्शि विज्ञैः / / 15 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 113 साध्ये निश्चित उद्यमो नु विदुषां मोक्षे त्वनन्यात्मकश्चारित्रं ह्यद उद्यमो न च फलेज्ज्ञानं विना कस्यचित् / हेतोः साधनबाधनप्रचयगं कर्मागमोद्योतने, :- साधनबाधकसार्थगं भवति तत्कर्मागमोबाधने, ज्ञातव्यानि ततोऽघसङ्गमहतौ रूपाणि सत्त्वो रैः // 16 / / मत्वैवं जिनराड़ दिदेश भविनः सम्यक्त्वबोधव्रतान्यन्ये तद्विधबोधवृत्तरहिता देष्टुं न चैवं क्षमाः / / तत् संसारसमुद्रवाह निरतोऽनादेरसौ नासदत् , . . पुण्योदेशपरं समस्तविदमुन्मोहं जिनं दुर्गतः . // 17 // मत्वैवं भववारिधेः परतटं गन्तुं मुनीशो जिनं, दातारं शरणस्य कर्मकटकात् त्रातारमाशिश्रियत् / . सेनानीः सुभटान् रणाङ्गणभुवि प्राप्तश्रियः स्यादलं, कर्तुं चेत्सुभटा रणोद्यमपरा अत्रोद्यमस्तद्धितः .. // 18 // : मत्वेति प्रवरोद्यमा मुनिवरास्त्यक्त्वाऽऽश्रवान् पञ्चधा, . :, संसाराम्बुधिवर्धने पटुतरान् दुःखैकदावानलान् / पोतं संवररूपमाप्य मथने शुद्धे तपस्युद्यताः, . . . बालान् वृद्धतपस्विनश्च सततं ये स्युः सदा सेविनः / / 19 / / शिक्षासु प्रवणो भवेन्न मतिमानाऽऽरम्भतः कास्वपि, .. किं कर्मक्षपणाय सादरतया प्रारम्भतस्तत् क्षिपेत् / सच्चेष्टोऽपि ततो नरो धृतिपरः प्रोद्युक्तयत्नः सदा, काङ्क्षी चेत् प्रवरस्य तस्य यतते काष्ठा परा यावता // 20 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। आजन्मभाविनि कलानिचये यदीदं, किं तर्हि नैकभवसाध्यफले चरित्रे / / तत्राऽस्ति योगजकृतिर्बहिरात्तहेतु रात्मोद्धतिः पुनरिहान्तरसाधनाढ्यः // 21 // छात्रत्वं यदि न त्यजन्ति सकलां विद्यां ग्रहीतुं गता, मन्दं मन्दमनुश्रयन्त उदितां तां शिक्षमाणा अपि / अव्याबाधपदैषिणोऽपि हि तथा श्रामण्यमल्पं गता, यत्कर्माऽस्ति घनं भवैरगणितबद्धं च क्षेयं हि तत् // 22 // ऋद्धौ कीर्ती क्रियायां गिरिवरचटने ग्राममन्यं यियासो, विद्यायां गेहचित्यां क्षितिगृहकरणे कूपभित्त्यां कृषौ च / मन्दं मन्दं प्रवृत्तः स्थिरकृतिरुपयात्यन्त्यमुग्रेऽपि कार्य, किं तर्हि मोक्षसिद्धयै चरणमनुचरन् शस्यते नाल्पमिच्छन् // 23 // यथा जनेषु स्खलना भवित्री, सर्वेषु कार्येषु जनप्रसिद्धा / तथान्तरङ्गारिजयप्रवृत्तौ पञ्चेति भेदाः श्रमणत्व उक्ताः // 24 // अज्ञानसंस्कारविमोहमादैः, कश्चिद्भवेद्रागयुतोऽथ साधुः / शरीरयुक्तेपूपकारकेषु, स संयमी सन् बकुशाभिधानः ||25|| कषायदोषाद्विनिमोहनाच, भवेत्कषायी वितथाढतिश्च / आचारमार्गे ( ज्ञानादिकेपु ) प्रयतोऽप्यरागे, कुशीलसञ्जः स . मुनिर्विगीतः // 26 / / तपस्तन्वतः शुद्धसाधुप्रतिष्ठा- पदस्योद्भवेल्लब्धिरुदाररूपा / सैन्यं नयं चक्रधरस्य दाम्येत् , कुप्येत् कदाचिञ्च कुतोऽपि हेतोः // 27 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 115 कर्तुं क्षमा स्याद्विकलः क्षमस्तथा, समृद्धिपात्रं न तथर्धियोगात् / . एवं मुनिः सोऽनुगतः प्रकोपं, विराधनां विषयुतां प्रयाति // 28 // यथा सुवर्ण मलिनां दृशां गतां, जहाति जातिं न तथाऽनगारः / लब्धेः प्रयोक्ता विजहत्स्ववेषं, सोऽयं पुलाकाभिधया प्रगेयः // 29 // हेयता सर्वथा जिनवरैर्गणधरै - गीतपूर्वा समस्ताऽऽश्रवाणां, तत्र हिंसादिकाः नियमनैः परिहृता इन्द्रियाणां निरस्यैतदर्थान् / क्रोधमुख्यान् पुनश्चतुर उद्धरति स प्राप्तसिद्धनिम्रन्थभावो मुनिस्तुर्यभेदे पुनः शुचितरां परिणतिं प्राप्य निर्ग्रन्थनामा भवेत् // 30) यदा छेदो भवेद्धेतोधुवं कार्यस्य भाव्यसौ, च्छेदात् ततः कषायस्य क्षयो ज्ञानघ्नकर्मणाम् / एवं निश्शेषभावानां ज्ञाता स्नातकतां गतो, __ यस्मान्न लिप्यते जातु क्षीणैः कर्मभिराप्तिमान् // 31 // बाह्याद्धनादेः सुविनिर्गता इमे, ग्रन्थात्ततस्ते व्यवहारनीत्या / : पञ्चापि नैर्ग्रन्थ्यमनुश्रिता हि विशुद्धिवृद्धेर्यकुशादिका भिदः // 32 / / एताः साधकसंश्रितास्तरतमोद्भावाद् मुनित्वे भिदः, सन्त्यन्या अपि पञ्च संयमगताः सामायिकाद्या भिदः / नैर्ग्रन्थ्ये तु पुरोदिता भिद इह स्यात्संयतत्वाश्रया, नोचेद्भद उपाधिषु प्रगुणितो नाऽसौ विशेष्ये भवेत् // 33 // त्यजन् स्वीयं गृहं सर्वावद्यमूलं प्रतिज्ञया, जन्म स्वीयं फलीकुर्यात् तदाऽसौ सात्त्विकः पुमान् / . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 जैनगीता। ज्ञानादिषु प्रतिज्ञां चेद्यावज्जीवितमाचरेत् , स, ततः साधुत्वमागत्य प्राक् सामायिकमाश्रयेत् // 34 // बुद्धा यदा भवगता गुणशून्यताऽग्ऱ्या, ....... जन्मान्तकाऽऽधिदहनेन जगद्विदग्धम् / . त्राणं गुणौघसहितं परिमुच्य धर्म, नान्यत्ततो भवममुं परिहतुकामः // 35 / / गृहं त्यक्त्वा दीप्तालयसममिदं स्वार्थनिरतं, - कुटुम्ब पापालेनियतमनुभूतं भवगतम् / .... मयैवैकेनेदं विविधगतिपूद्दामदमनं, __विनैकं धर्मं नो पर इह परत्राऽपि सुखदः // 36 // ततोऽहं प्रव्रज्यां गुरुवरसमीपाद् वरतरां, .. गृहीत्वा पापालेनिजकमभिरक्षामि झटिति / विचिन्त्यैवं जीवो गुरुपदमितो याति मुनिताम् // 37 / / त्यागः सचित्तस्य समानभावा, भ्रमिस्तु भृङ्गेण धरातले शयः / केशस्य लोंचो भ्रमणं पृथिव्यां, चर्या मुनेस्तद्धरणे गुरुः सति // 38 // तं मुण्डयेच्छुद्धतमे मुहूर्ते, भवेद्विशिष्टः परिमुण्डने विधिः / ततो विधौ शास्त्रकृता विभिन्न-मादेशयुग्मं कथितं यथार्थम् // 39 / गार्हस्थ्ययुगा न सचेतनादीन् , बुध्यन्त आप्ता न यतः स्वधीतिम् / पटकायभेदान् सविशेषबोधा-ज्ज्ञात्वा तदीयां यतनां विसेध्युः / / 40 // महाव्रतानामपि लन्धबोधाः, सम्यक् परित्यागपरीक्षणेषु / सलब्धपारार, श्रमणा द्वितीये, स्थाप्यन्त आयश्च्छिदयाभिधाने।॥४१॥ करन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 117 छेदोपस्थापनीयाभिहितिसुधरणात् साधुपर्यायसङ्ख्या, गण्या यस्मात्ततोऽमी व्रतपरिणतिकाः सद्वितीयाच्चरित्रात् / / . साधूनां सर्वचर्या मुनिपतिगणतद्वासिनां निश्रया स्यात् , पश्चात् प्राप्तः श्रुतालिं परिणमितदशः स्यात्तृतीये चरित्रे // 42 // एवं श्रामण्यचर्यामनुगत उदितो मोहनीयक्षयाय, . तत्रापि प्रान्त्यभागे यदि भवति कणो लोभगो नाशनीयः / तत्राऽसौ शुद्ध आत्मा चरणमनुपमं तुर्यमाधाय तिष्ठेत् , सूक्ष्माक्तं सम्परायं जिनपतिचरणाल्लेशमात्रेण हीनम् // 43 // जिनानां चरित्रं कपायविहीनं, यथाख्यातमेतद्धि वयं समेषु / समग्राः पुरोक्ता अधिकारपात्रं, समाश्रित्य वर्तन्त एतच्चरित्रम् // 44 // एवं साध्यस्य काष्ठां विविधगुणवती लक्षणीकृत्य पञ्च, प्रोक्ताश्चारित्रभेदाः शिवपदपथिकाः संयताख्यां वहन्तः / सर्वेऽप्येते दशापि प्रवरगुणगणा भिन्नभिन्नस्वरूपाः , श्लाघ्यं साधुत्वमेषां निजकृतिसजुपामीर्ण्यया हीनचित्ताः // 45|| नम्याः सर्वेऽपि जैनैः परमपदगता ईशितारो गुणानामन्त्ये स्थाने स्थितास्ते नतिपदसहिताः सर्वशब्दस्तु साधौ / यत्तत्रानेकरूपाश्चरणमधिगता भिन्नभिन्नोक्तचेष्टाः, सर्वेऽप्येते समाः स्युर्द्रमकनरपतिस्थानभेदोऽपि नाऽत्र // 46 // सर्वेप्येते नम्यपादा मुनीशा, धर्मानीके त्यक्तधर्मातिरिक्ताः / मोहोन्माथे बद्धकक्षाः सदैते, नम्याः स्तुत्याः सर्वदा सक्रि ार्हाः॥४७॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 जैनगीता। धर्मातिरिक्तं सकलं समुज्झित-मनन्तरं चापि परम्परं च / तेनैव शास्त्राधिगतावमीषां, स्थानं यदेते दुरितान्निवृत्ताः // 48 // धर्मातिरिक्ते नहि सदृशां स्या-च्छ्रेयस्त्वबुद्धिर्जगतीपदार्थे / तथापि पापप्रवरोऽवसाय इतीह नो तेप्यधिकारिणः स्युः // 49 / / मिथ्यादृशो जीववधेषु सक्ताः, परिग्रहस्य प्रचये च लीनाः / / ते त्याग(मोक्ष)मार्गोदितयः समस्ताः, संसारमार्गा इति सङ्गिरन्ते।।५० न काकवक्त्रे परमेष्ठिवाचो, निष्ठा वधे ये च परिग्रहे च / तेषां हि वक्त्रे शिवसार्थवाचो, भवेयुरा नैव च तासु रागः // 51 // ज्ञानं मुनीनां शिवमार्गसिद्धथै, पर्यायमानेन ततो ह्यमीषाम् / अङ्गोदितीनां क्रियते हि दानं, नेत्थं विदन्ति प्रसभं ह्यगीताः // 52 // उद्घोषणां कर्तुमलं नयानां, ये सन्नयेषु प्रसभं प्रवृत्ताः। आरम्भमग्ना नहि जैनवाचां, हीनां वधाद्यैर्गदितुं समर्थाः // 53 / / शास्त्राणां प्रथनं कृतं जिनवरैः सङ्घस्य धर्मोदधेरादानाच शमप्रबोधचरणान्यर्घोत्तराणि सदा / धर्तुं सत्परिणामरत्ननिचितेः पाठोऽपि तेषां मुनेः, तत्तत्साध्यमृतेऽङ्गमुख्यपठनं शाठयं परं कद्दृशाम् // 54 // मत्यादीनि विबोधनानि भविनां चत्वारि सन्ति स्वयं, जातानि प्रशमाकरं श्रुतमिदं तीर्थङ्करोक्तं परम् / कारुण्यं भवभावविच्युतिकरं चित्ते निधायात्मनां, दत्तं तत्सफलं भवेद्यदि पुनरुद्यम्यते मुक्तये . // 55 / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 119 मत्यादयः सन्ति ससाधना इह, बोधाः स्वरूपेण फलेनयुक्ताः / आदेयहेयादिफलाः स्वयं ते, श्रुते तु चारित्रफलं न चान्यत् // 56 / / ये त्वाश्रवेभ्यो न निवृत्तचित्ता, न संवराणां धरणे प्रसक्ताः / मिथ्यादृशस्ते मतिशास्त्रहीना-श्चक्षुर्वृथा कूपपतज्जनानाम् // 57|| अध्येयं मुनिभिः सदा गुरुपदोराराधनातत्परर्यद्वक्त्राद्विनिरेति शास्त्रममृतं नित्यं मृतेर्वारकम् / वासोऽनेन गुरोः कुले फलभरं दत्ते मुनित्वे धृति, नोक्तं ह्येकचरस्य संयममुखो धर्मः परार्थोद्यतैः // 58 // सोऽत्र पूज्यपदके गुणसङ्घयुक्ते, भेदैश्चतुर्भिरुदितेऽमलमार्गकाङ्के / उद्देश एक उदितः सकलाघनाश- - स्तत्रोद्यता मुनिवरास्तत्सेविनोऽन्ये . // 59 // दानं सुपात्रमिति यद्गदितं मुनीशै . स्तत् संयमस्य परिपुष्टिविधानहेतोः / प्रेत्याप्तिरस्य मनुते निरपैकदाना द्यत्पोष्यते परभवे शतशस्तदाप्तिः // 60|| मुरारिस्त्रिखण्डस्य नाथो विरत्या, हीनस्तथा श्रेणिकराजराजः / भविष्यतस्तीर्थकरौ तदेतत् , निजाप्तवर्गस्य मुनित्वदानात् // 61 / / मुनिभ्यो नितान्तं तनोतीद्धवर्गो, निदानं सुखानां धनिश्रावकाणाम् / वस्त्रानपानोपकृतिप्रधानं, तेषां भवेत् संयमसाधनं सुखम् // 62 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 जैनगीता। याच्यं परेभ्यो मुनिमियदेतद् , मुधाऽस्य हानं विहितं किमेभिः। . दोषोज्झितं तन्मुनिभिगृहीतुं, युक्तं यतो याचितमेव तेषाम् // 63 / / अकल्पितं न लभ्यते परं पचिक्रिया यदा, मनो दधत्तु साधुषूद्यतं तदा तु दोपितं तकत् / अरण्यसूतकादिकेऽपि दानशून्यपाचनं, ततश्च शक्यतोत्थितो मुनीशधर्म आहितः // 64 // फलं दातुर्दानात् परिणतिदिशामाश्रितमिति, मुनित्वाप्ति प्रेत्याप्स्य- इति मनसा ह्यभिलषन् / असौ दुष्करकारस्त्यजति च सदा दुस्त्यजमिदं, न जात्वर्थ(घ) लेखे लभत उदित लेखविगतम् // 65 // दाता चेद्भवतीदृशो मुनिमभिप्रेत्याघराशिं क्षिपेद् , द्रव्यं चेद्रहितं विशुद्धिविधिना पापं क्षिपेद्भरिशः / किन्त्वल्पं विदधाति नूतनमयं पापं परं नानुगं, पुण्यं साग्रमुपैति वोधरहितो दाताऽशनादेर्मुनौ // 66 // तारकं भवोदधेः समर्पकं गुणावले, शोषकं तमोदले विवोधकं शमाचले / आश्रवाम्बुनाशने निदाघतापसन्निभं, . मोक्षसार्थवाहमेनमर्चतान्मुनीश्वरम् // 6 // भवसागरतीरमभिप्लवनं वरसंवरनिर्जरणोन्मिलितम् , . 'जिनमार्गमनुश्रयितुं प्रवणं परितर्पयतीह निरीहजनम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 121 जनगाता। शमबोधचरित्रगुणार्पणतः शिवसाधनशुद्धसहायकृतेः, गतकाममनुश्रितधर्मपदं परिचारयतिश्रयताच्छ्रमणम् // 68 / / भव्यमाराधयेच्छिवपथं साधयेत् गुणगणावाप्तिनिपुणं हृदयं धरेत् / पापमार्गाच्च्युतं समवरश्रेणिगं निर्जरावहनगं संयमधरं हृदि चिन्तयेत् / कर्मदावानले शमपयो वर्षयेद् गुणिजने मोदमनिशं मनसा वहेत्, क्षान्तिवारांनिधिः कृतमघं चिन्तयेन् मदनगे नैव गमनं सुजनो . धरेत् // 61 / / न यस्य रागरञ्जनं न लेप आश्रिते जने, ... सचित्तमुख्यसाधने न सङ्गलेश आप्यते / ज्वलस्तपोजतेजसा दिवाकरोऽवदीप्तिमान् , .स सौम्यतागुणैर्जनेपु चन्द्र आप्तवानमुम् // 7 // :: स ईदृशं मुनिं सदा श्रयेत भावशुद्धितो, द्वयेऽपि यान्ति सद्गति मुनीश्वरोऽथ वन्दकः / न जैनशासने मताऽधमर्णरीतिरल्पशः, .. प्रदीपकान्तिवत्समेषु जायते फलं वहौ // 7 // / स जैनः स्याच्छ्रेष्ठः प्रचुरतरगुणैर्युक्तमनिशं, सदा मोक्षोद्योगं दधति च परमानन्दकलितः / / शिवाप्त्यै सत्साधुं निजपरिकरतो वत्सलधरं, __ . नमेन्मर्हेत् शुद्धं निजजननफलं नापरमतः // 72 // ......: इति सप्तविंशोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . 122 . जैनगीता / / अष्टाविंशोऽध्यायः / (श्रमण्यधिकारः ) जैनोऽसौ श्रमणीगणं शिवपथोत्साहं धरन्तं सदा, / पश्येत् स्वीयकुटुम्बलोकललनावर्गान्मुदा सादरम् / स्त्रीत्वाज्जन्मन आरतोऽपरबलं निश्राययो जीवित स्तं संरक्षणमानभक्तिकरणैः पुष्याच्च धर्मोद्यतः / // 1 // ... . तं रक्षेन्निजसारसुन्दरतरस्त्रीसार्थमध्ये धरन् , तस्योपासनया स्वकीयजननं सम्प्राप्तसारं निजम् / मातास्त्रीभगिनीमुखः प्रतिदिनं स्वस्योक्तितो मानये देवं चेत्प्रविधीयते यदि तदा सच्छाद्धतामाश्रयेत् // 2 // स्त्रीभ्यः पुराऽनेकविधान् प्रचक्रुः सुदारुणान् देवनराग्रगाणाम् / सङ्ग्रामलक्षान् महतो भयङ्करान् योऽसौ मुरारिः समदीक्षयत् . .. स्त्रियः // 3 // मात्रा पुरा सप्त वराः सुपुत्र्यो व्युद्ग्राहिताः कृष्णपुरो विमार्गणे / याः स्वामिनीत्वस्य कृते स विष्णुस्ता नेमिनाथं सकलाः समर्पयेत् / / 4 / / द्वारावत्या विदाहं जिनपतिमुखतो भाविनं वेदयित्वा, शाम्ब-प्रद्युम्नहेतोमरणमुखकृतोग्रान्निदानाद् मुनीशात् (तमोऽन्तात् / / पुर्यां तत्राखिलायां प्रव्रजनकृतयेऽदापयद् घोषणां सः, यः कश्चिद्दीक्षितः स्यात्तनुजमुखजनं निर्वहिष्यामि तस्य // 5 // परःसहस्रान जिनराजपार्श्व, राज्यादिलोकान् समदीक्षयत् सः / . विष्णुस्तथाकारणतो न्यबद्ध (भान्त्सीत् ) श्रीजिननामाऽचलितस्व भावम् // 6 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 123 शिष्यार्पणान्मुनिपतिभ्य उपार्जितं प्राग, .. / यत्तीर्थनाम जिनपतेः परिवन्दनायाः / तद्धारितं फलभरं सुनिकाचनेन, सेवापराभवभवोद्दलनाय दीक्षा // 7 // मगधदेशविभुर्नपनायको, विविधकूटभरेण समर्जयन् / . ,.. बहुतमा ललना जिनवीरतः श्रमणमार्गमयं समतारयत् // 8 // विविधशास्त्रसुधारससेकतः, (फल) श्रमणवृत्तिरुदग्रफलानता / स्वयमशक्तित उग्रप्रसक्तितो, भवरतोऽपि परान् कुरुते मुनीन् // 9 // नरा यथा मोक्षविमार्गणोद्यता-स्तथैव नार्यो भवभावभेदिकाः / दुर्गं सुदुर्ग व्यतिवृत्य मोह-मनन्तबन्धान प्रविनाशयन्ति // 1 // सम्यक्त्वलाभात् प्रथमं सुदीर्घा, क्षेया स्थितिर्मोहनृपस्य तीव्रा। अतीत्य तां चेल्ललनाः समीयुः प्रयान्ति कैवल्यमिमा ( ममूः). न चित्रम् // 11 // स्त्रीत्वस्य हेतुर्यदभूदमुं सा-ऽनन्तानुबन्धं क्षयितुं समर्था / सा किं न शेषाः प्रकृतीः क्षिपेत, भागे ह्यनन्ते बलमेव तासाम् // 12 // / दर्शने विबन्धकं च कर्म यत् प्रगीयते, क्षेपकोऽस्य साधुतोऽपि निर्जरेदसङ्ख्यकम् / / अस्ति चेत् समर्थतांऽङ्गनाजने तदाश्रिता, तदा सदा स किं भवेन्न साधुतापदान्वितः // 13 / / / 'न चाम्बरं विरोधभाक् चरित्रसम्पदा मतं, ... ...: यतस्तनोन किञ्चिदन्यदाश्रितं ममत्वकृत् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 जैनगीता। न धर्महेतुतो मता तनुर्ममत्वसाधनं, .. तदाऽम्बराणि किं ततस्तथाभूतानि सन्ति न? // 14 // . 2. : पत्यौ मृते तदनुकश्चिदिहाङ्गनाजनः, . . स्नेहाद्विशेद्यदि चितां जनतासमक्षम् / तस्यास्ति दुस्त्यजमिदं किमु चीवरं यद्, - नग्ना न सन्ति बहुशः किमु * योगिकान्ताः ? // 15 // ,, .. स्थानानि सन्ति ललनाङ्गगतानि जीव संसक्तिमन्ति यदि नैव ततश्चरित्रम् / तासां तदा पुरुषकायगतानि कि नो, चिह्न गुदे जठरभाग उदीक्ष्यतेऽङ्गी ? // 16 // षटकायजीवयतनाप्रयतस्य न स्यात् , ....... ........... पापस्य लेश इति वारिधरेषु सिद्धाः / न ह्यङ्गनासु यतना नहि, जीवबोधात् , . तत्केवलं चरणयुक्तममूषु (न स्यात् ) किं न ?... // 17 // अध्येतुमर्हा नहि दृष्टिवादं, स्त्रियस्तदाऽऽसां किमु केवलं स्यात् / न जातिहीनाय चरित्रदानं ततो न किं सोऽव्ययमाप्नुयान्नो ? // 18 // जिनादिकल्पा न भवेयुरष्टा-व्यानो(उ)नवर्षा विधिशास्त्रवाक्यात् / एकोनत्रिंशच्छरदामधस्ता-च्छामण्यभावोऽपि न केवलं किम् ? // 19 // भवेन् मनः पर्ययवेदनं न हि, त्यक्तो न यावद्गहकार्यभारः / ततो न किं स्यात्स्वकलिङ्गशून्ये, सार्वश्यमुक्ता कथमत्र भक्तिः // 20 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / नाधः प्रकृष्टं ललनाः प्रयान्ति, स्थानं ततः किं परमैयरुस्ताः / पापोपचित्यां नहि ताः स्वतन्त्रा, धर्मे तु कस्ताः परतन्त्रयेन्नु / / 21 / / न चास्ति साम्यं त्वध उर्ध्वगत्योः , स्पष्टो विरोधो जिनराड्विचारे :: ............ . (त्र जिनेन्द्रमुख्ये) / समस्तसौख्याब्धिमियति साऽग्यं, स्थानं युतं केवलशाश्वतश्रिया / / 22 / / तपःप्रभावोऽसम आर्हतानां, नवाघरोधेऽथ पुराण (रोऽघ) नाशे / प्रत्यक्षमासां प्रबलो जगत्या-मसौ ततः किं न शिवं ह्यमूषाम् ? // 23 // विकल्पभेदान् प्रविदर्शयद्भिर्भाष्ये न्यगादीत्वरलिङ्गभेदः / भेदो न चोक्तोऽत्र मनोविबोधे, लिङ्गोद्भवोऽस्तु प्रमदासु मोक्षः // 24 // स्त्रियो जगत्यां खलु दुष्करक्रियाः , प्रेतेऽपि पस्यौ मरणावधिं यत् / वर्मैव रक्षन्ति सदा स्वशीलं, मृतेषु दारेषु नरास्तथा नहि // 25 // रक्षायै स्वकशीलरत्नसुनिधेः कोटि व्यथानां परां, .. याः सत्यो जगतीह सुन्दरतरोद्भावा न कि सेहिरे / तासां शेषितपापिकां गुणधरीमाप्यां दशां को नरः, श्रद्दध्याद्गतकुश्रुतिस्मयमदो नैवागमौघेरिताम् // 26 // श्रद्धा हि धर्मस्य पवित्रताभृ-न्मूलं सदा जीवगत सुधार्यम् / तद्रोपयेद्वंशगतं सुरामा - स्ताः सुष्ठुमार्गाः श्रमणीसुसङ्गात् / / 2 / / वंशे कुले चापि भवेत्प्रभुर्य, आज्ञा स्वकीयामनधां निवेष्टुम् / / 'निवेश्य तस्मिड्रमणीसमूहो - द्वहं गणीशः श्रमणीधरेयुः // 28 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 जैनगीता। निवेश्य ताः साधव उग्रसत्त्वा, ग्रामान्तरे वासमुपश्रयेयुः / .. वासो हि मासद्वयमेव धाम्नि, गणोद्धरैस्ता अपरं तु नेयाः // 29 // प्राक् प्रत्युपेक्ष्यापरधाम वृद्धा, योग्यं मुनीशाय निवेदयन्ति / . मत्वा निराबाधमुदारभावं नेतुं परं धाम नयेयुरार्याः // 30 // यथाऽवरोधस्य नृपा गताघ, कुर्वन्ति देशान्तरगन्तुकामाः / रक्षापुरोगं नयनं तथाऽऽय-स्तीर्यन्त आर्याः शुभसत्त्वरक्ष्याः // 31 / / गणोद्वहा नैव समे मुनीशा, आर्यागणं वर्तयितुं समर्थाः / / आर्यागणं वर्तयितुं क्षमो यो, भवे तृतीये शिवगो ध्रुवं सः // 32 // सूत्रे हि पर्योषणकल्पनाम्नि, द्वितीयभागे प्रथमाङ्गसंस्थे / गण्यादिपुगात्पृथगुक्त आप्तैः, सार्यासु धत्ते गणधार आज्ञाम् // 33 // यथा पदानि प्रथितानि गच्छे, सूरीश्वरादीनि सुसाधुमान्ये / तथाऽत्र पञ्चापि महत्तरीमुखा-न्याणि साध्वीगणपालकानि // 34 // आर्याऽपलापे त्रय एव भेदाः, सङ्घस्य वा पञ्च न चेदमार्यम् / तत्सूत्रभेदे प्रवणो हि मन्यात , साध्वीव्युदासं ननु नग्नचारी // 35 / / कस्या अपि स्पर्श उदस्यते स्त्रियाः, स यात्वसौ त्याज्य उदारसत्त्वात् / स्पर्शः पुरुषस्य तथा द्वयोभवे - च्चारित्रसारस्य यथार्थरक्षा // 36 / / धामद्वयं तत्पृथगेतयोः स्याद् , गमागमौ नैव न च प्रवेशः / यथा तथाऽन्योऽन्यसमागमो न, यथार्थतथ्या जिनशासनाज्ञा,॥३७॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / . 127 अतो न्यपेधि श्रुतसागरैः श्रुते, वर्षादिहेतोरपि धाममध्ये / उर्ध्व स्थितिः शीलसुसाधनायै, न पञ्चमः स्याद्गहिणां न चेक्षणम् // 38 // रक्ष्याः श्रमण्यः सकलस्वशक्त्या, समस्य सङ्घस्य शिवाध्वसिद्धयै / अकार्पुरग्यां श्रमणीजनस्य,(रक्षा)दुष्टोपसर्गात् सूरिकालकाख्याः।।३९।। शशकभशकवन्धू चक्रतू रक्षणं प्राग् , .. .... ... दशशतहतिशक्तो आर्यिकायाः प्रकामम् / ... रुचिरमुनिविहीनां दुष्टनिश्शीलरुद्धां.. ...... सकलबलकलाभिरार्यिकां त्रातुमुत्कौ // 40 // परिपेलवसत्त्ववती श्रमणी, शिवमार्गपरा नितरां विमला, शिशुबालतपस्वि जराज्वरिताः, किमु रक्ष्यपदानुगता न मताः। . रहिता व्रतधारणया गृहिणो, यदि तामसहां पटयेयुरिह, बतलोपमधिश्रयति प्रवरा, तदुदाहरको नहि सर्वविदः // 41 // तत्त्वतोऽसुमान्नहि स्ववेदधारको विभु. यतः समस्तवेदनाशसम्भवा समस्तविद् / ...वेपदेहसंश्रितो विकार आत्मनो ननु .... न बाधते यतः सको न मोहजातिसम्भवः // 42 // यदि च सङ्गमात्रता विवाधिकाऽस्ति केवले, सकेवले. सतीह कोऽपि चीवरेण वेष्टयेत् / तदा विनाशि केवलं किमूररीकृतं नहि ? ; यदाङ्गनांशुकेन चेत्तदा तु नश्यति द्रुतम् // 43 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 . जैनगीता / यदि च संहननं नहि योषितां, प्रथममेतदरिष्ठमवाससाम् / यत इदं नहि जैनमते कचि-द्भवति कीकसतो जनकाश्रितात् / / 44 // सझी यो जातिमाप्तो नरभवसहितां स प्रभुः केवलाय, संहननं यो बिभर्ति सकलसुरगतिप्रापणादाद्यभावि / विघ्नानां घातिजानां क्षणभरकृतितो नाशमाधातुमर्ह, मत्वेदं सर्ववेदाः शिवपदमयितुं द्रव्यतोऽर्हाः श्रुते न // 45 // वेदो नपुंसकमपि पुरदाहतुल्य-श्चेद् द्रव्यतो न विदधाति विवाधमाल्याः / भावात्तु ते प्रवरमाप्य बलं त्रयोऽपि, श्रेणेः क्षयं ननु व्रजन्ति न - कापि शङ्का // 46 / / प्रवरवरशासनं जगति जिनशासितं, द्रव्यमेकान्तिकं न ह्युवाच, प्रबलतरमोहतः परवशितचेतनो द्रव्यमेकान्तिकं प्राह मूढः / . सिचयचयबाधनं द्रविणललनाश्रितं वेदमाहानुयुक्तोऽधमोक्तिः, श्रृणुत सुजना जनिं वरसुफलसाधनी वाचमाधत्त चित्तें स्वकीये ... (ऽहंदुक्तां) // 47|| वासोऽन्वितात् सितपटाद्धरिद-म्बराणां, जातः प्रभव इत्यभवत्तदङ्काः / प्रश्ने कृते जनतयाऽम्बरसत्त्वजाते, दिक् चैव मेऽम्बरमिति प्रतीता . . ... . तदाख्या // 48 // प्राक् पार्श्वनाथजिनपस्य बभूव सङ्घः, र साधूद्धरः कलितसर्वसितादिवर्णम् / , वस्त्रं दधच्चरमतीर्थगतस्तु शुभ्रं, 1 ख्यातं ततो जगति शुभ्रपटा इतीमे . // 49 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / जैनगीता। ईर्याद्या नहि साधुतामनुसृता निर्वस्त्रकाणां यतो, रात्र्यादौ लघुनीतयेऽपि निरयन् कुर्यात्कथं रक्षणम् / जीवानां करिपादवद्धि दधतः श्वेताम्बरा आयतं, ... पादोन्मार्जनमस्ति सम्भवपदं जीवावनं तिश्यपि 150 // सूक्ष्माणां नहि रक्षणं भवभृतां वस्त्रं विना वादिनो, '. नैव स्याद् भ्रमरोपमं हि गमनं ग्रासादिहेतोर्यतेः / निष्पात्रस्य कथं ग्रहोज्झिती परं स्यात्तां विनोपक्रियां . हा! हा ! निश्चितनष्ठमूलचरणोऽसौ नग्नकायो मुनिः // 51 // यथा जिनानां वरतीर्थनाम्नो, भोगे भवेदिन्द्रमुखैः कृतायाः / सत्प्रातिहार्यादिवरार्चनाया, अरागभावात्त न दोषलेशः // 52 / / नह्यर्चने तत्प्रतिविम्बराशे-विचित्रवस्त्राभरणैर्बुधानाम् / / नो चेदसौ तर्हि कथं विचक्षु-र्वस्वाञ्चलोरीक्रियतेऽहंदर्चा // 53 // विधेश्चित्राधारा परिणतिमिता विश्वविषये, . . यदेकं निर्माय प्रदमशुभकस्याऽस्ति न विरतिः / स्त्रिया लुप्त्वा शाटी परिणतिमितोऽसौ जिनपतेविलोपायाऽक्ष्णोऽस्तु शतमुखनिपातो विधिकृतः // 54 / / दिग्वस्त्रैर्ललनागणैस्तदनुगैः शोच्य द्वयं स्वान्तरे, :: सम्यक्त्वं कथमाप्यतेऽधिगमिकं सूत्रं च योग्यं कथम् / र चेत् साध्व्या, नहि सा पुनः श्रुतमृते साधोः प्रसङ्गे तया, वृत्तिभङ्ग उदीयते तत इतं चीरेण नाशं मतम् // 55| P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 जैनंगीता / सङ्ख्यातीताः स्त्रियोऽगुः शिवपदमसमं प्राप्य कैवल्यमयं, प्रैवेये ते हि जग्मुः सचरणभविनो ये नु चैते पुमांसः / / तत्रेयुर्यऽप्यभव्या न च पुरुषवरा नैव चैता अनाद्यं, प्राप्याऽस्थनां सञ्चयं स्युस्तदपगत शुभस्यास्ति वाचां प्रसारः / / 5 / / श्रीआदिनाथेन विधेर्विधात्रा, बोधाय मुक्ते भरतानुजस्य / आर्ये, ततश्चाप स बाहुसाधु-निर्ग्रन्थयो ह्यमितप्रभावे // 57 // .... चलितमपि चरित्रान्नेमिनाथस्य बन्धु, - व्रतपथदृढतायै योपदेशं ततान / !: स्थिरतरचरणोऽसौ बोधमाप्य प्रजात...... . स्तत इति न समोऽयं राजिमत्याः प्रयत्नः / / 58 / / भूपेषु वयों नृप आर्हतः श्री-सुहस्तिपादाम्बुजभृङ्गरूपः। श्रीसम्प्रतीति भरतं सशोभ, चकार यश्चैत्यमुखैर्विभूपैः / / 59 / / सुहस्तिनस्ते भरते त्रिखण्डे, स्वदीक्षितानेकमुनीन्द्रवर्यैः / प्रस्तारयामासुरनेकशाखा-प्रशाखयाऽशेषधरां सुसाधून् // 60 // तानाचार्यान् विविधविधिना पालयन्ती जिनानां, .. धर्मस्योग्रां सकलसुकृतिनां भाविमोक्षप्रधानाम् / ख्याति चक्रे प्रवचनयशसे सोदरेणाप्तसङ्गान् , नाम्ना यक्षा प्रवरमतिधनापार्यगिर्याख्यधा... // 6 // मात्रा गुरुभ्योऽर्पित आर्यवज्रः, षण्मासमात्रामवयस्कबालः / स्वोपाश्रये तं धृतवत्य आर्याः, कथं न सङ्घस्तदुपक्रियां स्मरेत् // 62 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। जैनोऽसौ विधिवद्दधाति हृदये स्वेषां जनानां मति, ...... जैनेन्द्रे वरधर्मकर्मणि परां कर्तुं सुधासोदराम् / चिन्तां तत्र विशेषतो निजकुले मात्रादिके स्त्रीगणे, तां सफलीकुरुते श्रमेण सुवृषार्यासङ्गतो बुद्धिमान् // 63 // आर्याणां महिमाऽयमाप्तयशसा वंशस्य यन्निश्चलं, शीलं मेरुसमं विभर्ति ललनालोकः समस्तोऽमलम् / तत्रैषोऽत्र भवेद्यदीतरकुले जातं नरं न स्पृशेत् , शीलेनाप्तयशा भवेच्छ्रमयुषां संसर्गरक्तो भवेत् // 64 // येषामार्याकुलं नो सुकृतकृतिविधौ शुद्धमार्गप्रदेष्टु , धर्माचारे प्रवीणां सुकृतवरखनि देष्टुमर्हाऽबलानाम् / शुद्धां: धर्मस्य चेष्टामपरपुरुषतः स्याच्च धर्मप्रवृत्तिः, स्त्रीणां नो तत्र शीलं भवति ऋजुशीला धर्मनाम्नाऽघमग्ना // 65 // आर्याकुलेनापि तथात्र कार्य, श्राद्धयो यथा स्युः सुकृतोद्यता दृढम् / वर्गो महान् यत् पुरुषादथाऽऽसां, कुलं च धर्मप्रवीणं व्यधास्यन् // 66 // यथा च मोहं न ब्रजेयुरन्य-कुलोत्थिते पुंसि पराश्च धर्मे / भवेयुरेता व्रतधारिवृत्तैः, संस्कारमाप्याः श्रमणीजनेन // 67 / / निसर्गसम्यक्त्वमुदीरितं श्रुते, श्राद्धार्भकाणां प्रवरं तदेतद् / आर्याजनाद्धर्मपरायणत्वं, जातं समाख्यात्यबलाजनस्य // 68 // शोभनस्य कुलधर्मसद्विधेर्या पुनः फलपरम्पराऽनघा / : भाविनी .भव इहापि तां पुन-दर्शयेयुरार्यिका न चापरः // 69 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .132 जैनगीता। श्रमण्याः. सत्कारं विपुलविधिना श्रावकजनो, विध्यान्नित्यं चेत् कुलमपि सकलं तत्कृतिपरम् / भवेदेवं धर्मोद्यमपरहृदः सर्व उदिता-.. : : जिनेन्द्रः सद्धर्माच्चलयितुमलं नाऽमरगणः // 70|| जैनोऽसौ धर्ममूलं विनयमधिगतो धर्मकार्योद्यतेषु, , साध्वीवर्गषु यस्माज्जिनगणयतिनां या गुणानां प्रसक्तिः / तां सवाँ मूलरूपां विशदतमगुणामेष वर्गों दधाति, मानं धत्ते गुणानां य इह नरगणो धन्य एषैव जैनः // 7 // . . इति अष्टाविंशोऽध्यायः / / एकोनत्रिंशोऽध्यायः / ( श्रावकाधिकारः) जैनो यो मनुते भवाब्धिमटतां सूक्ष्मान्निगोदावहि निस्सरणं नहि दुष्करं परकृतं लोकानुभावो यतः / . / सम्मील्याश्रितभव्ययाऽघनिचितिं दुःखित्वभावे धरन , :, निर्मायाऽल्पमसुश्रितं नयति तन्नेदं फलं स्वोद्यमात् // 1 // .... एवं क्रमेण समिलायुगयुक्तिवत्स, .. मोक्षस्य. भूमिमनधां नरतां च तत्र / . . देशं कुलं प्रवरजातियुतं लभेत, सुश्राद्धमेकमलमश्नुत आत्मयन्नात् // 2 // मोहस्य संस्थितिमयं क्षिणुतेऽप्यबोधा देकोनसप्ततिमितामधिकां च किञ्चित् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। . वारांधरेषु नितरां श्रितकोटिकोटि, . नैवं तथापि लभते श्रमणोपसेवाम् --- ||3|| भव्यत्वभावे परिपच्यमाने, भवेद्विनाशस्तदुपर्यवस्थितेः / कृतिर्भवेदात्मन ईदृशी या, भेदस्तु भावी कुलिशाभपापे // 4 // न तादृशीयन्तमटाटयतो भवं, प्रस्फोरयामास कृति कदापि / गीतं ह्यपूर्वं तत एव विज्ञै-रप्राप्तपूर्वं करणं कृति ताम् // 5 // नैतत्कस्यापि पूर्वं जगदनुभवतो वर्जयित्वाऽऽत्मयत्नं, . जातं कस्यापि जन्तोन भवति भविनो भाविनीद्धेऽपि काले / 1. तल्लब्धं स्वात्मयत्ने प्रचुरतरवले स्फोरिते भव्यभावाद् , :: जातं श्राद्धत्वमस्मात् परममधिगतौ शुद्धसम्यक्त्वलब्धेः // 6 // एतच्चित्ते निधायेतरजनहृदये तत्त्वनिष्ठां प्रमाय, शुश्रूषा धर्मरागो जिनगुरुविषयेऽभिग्रहो व्यापृतौ चेत् / सत्या ज्ञेया हि तस्मिन् परिणतिरमला शास्त्रवाक्याश्रयेण, स्वस्मिन् ज्ञाने यदङ्गं न च परवशिनो नैतदपराङ्गताभाक् // 7 // सत्त्वेऽस्य स्वात्मनोऽपि प्रभबति रुचिरा नित्यताद्यङ्कितेऽर्थे, जीवादौ स्यात्पदाङ्का रुचिरमरनराऽकम्पनीया सुबोधात् / द्वेधाऽस्या दुःखधाम्नि फलमनुघृणयोद्विग्नता जन्मवार्द्धमोक्षे लीनं मनश्च न भवति कणशस्तत्त्वभूते (सार्थे) दुरात्मा // 8 // सम्यक्त्वे शुद्ध (भाव) रत्ने वृजिनचयहतेः प्रापिते तीव्रभावाद् , यत्नेनात्मामलत्वकरणकृतिभरे स्यात् प्रवृत्तिः श्रुतेन / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 जैनगीता। अन्धोऽरण्यं प्रयातो यदि शुभसुकृतो देशकादध्वयायी, चेदेषोऽशुभ्रभावी दुरितचयधरो याति मार्ग श्रमाढ्यम् // 9 // यथा न भाविभाग्यवान् वृथोपदेशदायकान् , शरणमेति भाविसौख्यसम्पदा समन्वयात् / तथा कुतीर्थ्यतन्मतानि मन्यते न दर्शनी, मतं ततो हि दर्शने सति श्रुतं शुभं ननु // 10 // एवं प्राप्तः स्वयं स्याच्छुचितरमननं स्युः परेऽपीदृशाश्चेत् , संयोगः श्राद्धवर्यैर्भवति नियमतो धर्मकल्पद्रुमाम्बु / संयोगाः सर्वरूपा निखिलजनचयैलब्धपूर्वा ह्यनन्ताः, संयोगः श्राद्धलोके भवति तु कतिचिजन्मभावान्न भूरीन् // 11 // सम्यक्त्वाराधनं यद्भवति भवभृतो वर्जयित्वा विराद्धि, सप्ताष्टौ जन्मभावान्न परत उदयो यत्ततो मोक्षधाम्नः / एवं श्राद्धैरपि स्याजिनमतरसिकैस्तद्वतः स्वस्य योगो, ज्ञात्वैतद्दर्लभत्वं शुचितरमनसा सादरः श्राद्धलोके // 12 // कुलं. सच्छाद्धानां सदृशमनघं देवमणिभि यथा तान् भाग्याख्यो भवति नर आराधनपरः / तथाभव्यत्वं स्याद्यदि च परिपाकगतिमत् ,, - सुसम्प्राप्तं श्रेयान् भवति जिनमार्गमतिमान् // 13 // यथाऽभव्यानां स्याज्जिनपगदितीतपठनं, . घने मोहे क्षीणे पुनरपि च तस्मात् क्षपयति / ककारादेः पाठे सुगतिगमनं धर्मकरणात् , ... ... . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 135 : तदा स्याच्छ्राद्धानां प्रवरतरवंशजनुपां / कथं मोहो जातोऽपबलविषमां न स्थितिमितः // 14 // यथा धान्यान्युप्तान्यवनितलमाप्यरुचिरं... भवन्तीष्टोत्पत्तौ कृषिकृतिगणकार्थितमतौ / समर्थान्यप्येषां पचनविधिसिद्धिस्तु करणा, ... तदाऽज्ञानेनाप्तात् प्रथमकरणादग्रत इह / / 15 / / जीवेनाधिगतं निसर्गजनितं सम्यक्त्वमादौ न चेत् , तज्जायेत सुधीरनिर्मलमतेः संयोगतद्वाक्यतः / .. श्राद्धानां वरयोगतोऽधिगमजं प्राप्तिः सुखेनास्य वे, संयोगैकधनं न कार्यमुदयेत् क्वापीष्टसिद्धिप्रदम् // 16 / / चैत्येभ्योऽपि य जायते जनिभृतां सम्यक्त्वमेतत्परं, चैत्यानि प्रतिविम्बसन्ततियुतान्येकाकिनः. श्रावकात् / स्युनॆवं न च तानि सन्ततमिहार्चायाः पदं जायते, चैत्यानां जिनविम्बराजिसजुषां योगः समूहोत्थितः // 17|| 1. जिनवरागमपारदृशो मुनेः, शुचितरागमवस्तुकथोदितेः / भवति सदृगनुत्तरताश्रितो, मुनिवरागमनं समवायतः // 18 // समस्ताः क्रिया धर्ममय्यो जनानां, स्युः साहचर्यात् समूहे भवेत्तत् / कुग्रामवासं दधतां लघु स्यात् , धर्मोद्यतानामपि धर्मनाशः // 19 / / धर्मो द्विधाऽऽद्यः सहकारसाध्यो विचारसाध्यश्च भवेद् द्वितीयः / सामर्थ्यसाध्ये द्वितीयेऽपि तस्मिन् , नोत्पत्तिरक्षापरिवर्धनानि // 20 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 जैनगीता / शक्तेः समुत्पत्तिरथ प्रयत्नात् , स्थितिश्च वृद्धिश्च ततः प्रसूते / समग्रमेतत्समुदायसाध्यं, मत्वेति कुर्यात् सततं सुसङ्गम् // 21 // प्रबलवरपुण्यतः कल्पनातिगसुखं, साधनैः सह नरं शुद्धमेति, प्रचुरतरमोहजः संश्रितो नहि भवेत् , प्राणिनं वृषधरं कृष्णलेश्यः (तीर्थ्यमोहः ) सुगुरुचरणाश्रितः शास्त्रशासनयुतः प्राप्नुते जिनमतं स्वल्पयत्नात् , अपगतकुकर्मकः सिद्धजिनधर्मको मन्यते सुखकरं श्राद्धवर्यम् // 22 / / आत्माऽनादित आहितो घनमले मिथ्यात्वपङ्को रे, नैव ज्ञातमनेन सुन्दरतरं नित्यस्वरूपं निजम् / तत्सर्वं जिनराज एव विमलज्योतिर्भरेणेहितं, भव्येभ्य उदयाय तन्निगदितं मत्वा जिनं मानयेत् // 23 // रागद्वेषमुखारिवर्गविलयाज् ज्ञात्वा समग्रं जगत् , . . स्याद्वादाङ्कितसर्ववस्तुनिकरं भव्याय मोक्षाप्तये / योऽदिक्षद् विनयेषिणे मननभूरूपं स्वरूपं परं, जीवाद्यर्थचयस्य तच्छुचिमनाः श्रद्धापथं नामयेत् // 24 // भावा भविष्यन्त उदाररूपा-स्तदा यदा शस्तमना इदानीम् / जीवस्तथाऽसौ शुभशास्त्रसक्ते-स्ततो यतिभ्यः श्रवणं क्रियेत // 25 // ससङ्गश्चेदन्यो रुचिततरवस्तुबिषयं, 12 स सन्तोष्यो दत्त्वा दलितविषयादिवस्तुमननः / स से यः स्याद्भव्यनिरुपमविधेः सेवनगतात् , : // 26 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 जैनगीता। दुष्पापा जगतीह जैनमतिनी श्रद्धा समस्ताङ्गिभि. स्तस्या दुष्करमेव सौम्यमनसा मुक्त्यै समाराधनम् / प्राप्तौ विघ्नकराणि कर्मदलिकान्युद्वेष्टयेद्भव्यता ssरम्भार्थादिकुमोहरक्तमनसः स्याद्दष्करं पालनम् धारणा केषाञ्चित् फलभाजनान्तसुभगा श्रद्धा नराणां यतः, संसारं भ्रमतां भवाश्रितिमतां विघ्नोत्करोद्भूतयः / स्वल्पान्येच हि साधनानि मतिमत्संसर्गसारोद्भवान्येतान्यात्मबलातिरिक्तसहितान्यर्थप्रदानीह नो 283 लभ्येयं भवभावतानववता . तो नेतरेऽर्हाः श्रुतौ, चिन्तामण्यमरद्रुमाइतिपरा नेच्छान्तरा सत्कृतिम् / लब्धेष्वेषु भवेन्न चेन्मुधिकया तेपामनाराधना, तत्साध्यं फलमश्नुतेऽत्र तदिवाईच्छासने सद्रुचिः // 29 // आप्या श्रद्धा सुखं स्यान्निजपरिजनगः स्याद्गणानों समूहो, मार्गानुश्रायकर्वी मुनिपतिकथिता पञ्चयुक्ता च त्रिंशत् / उप्तं धान्यं प्रभूतं भवति यदि भुवि शर्कराद्यं न भूरि, श्राद्धानों भाग्यमेतत् प्रचुरतगुणैर्वासितं यत्कुटुम्बम् // 30 // एषां गुणानों सुलभा स्वसत्ता, स्वजन्मनः प्रामुनिशस्तरूपा / . हेतुर्भवेत्तत्र सुभव्यतैव, भाग्योदयोऽप्यर्हगुणालयेषु // 31 // निजगृहं पुनराप्तसुसंस्कृति, यदि भवेत् सुकृतावनवर्धने / ::. इतरथा तृणपुञ्जसमुद्गम-सदृशमेव न रक्षणवर्धने // 32 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 जैनगीता। निजगृहे तु गुणाः स्वजनेः पुरा, यदि भवेयुरुपैति सुरम्यताम् / निजकृतेर्यदि सम्भव उद्धरो, वरतरं त्रिकसप्तमिता गुणाः // 33|| अवाम्यकुम्भः शुभवासवासितः, प्रशस्यते प्राज्ञवरैः प्रकामम् / तथैव यः स्याज्जिनधर्मवासितो-ऽवाम्यः कुतीयः स वरोऽस्ति जैनः // 34 // हृदब्जभागे शुचिसौम्यरम्ये, कुवासनालेशविमुक्तिशुद्धे / लोकोत्तमानां शरणे प्रभूणां, ध्यानं सदा मङ्गलकारकाणाम् // 35 / / एतादृशो गुणवतो जिनसिद्धसाधून , धर्मं च यो धरति नित्यमरागरोपः / सयः स एष परधर्मगतात् समूहा च्छ्रेष्ठो यथा मणिगणोऽमलकाचजातेः // 36 // विनयवान् श्रुतसारविबोधनः, कृतपरस्परधर्मविरोचनः / शिवपदं प्रति यत्नवतां समा रुचिरतो भवतीह सुनोदनः // 37 // परमतानि कृतेपु गुणान् बहून् , जगति सर्वजनान्निगदन्ति तु / जिनमतं निजरूपमुपानय-नकृत आह दुरात्मन आश्रवान् // 38 // यतो व्रतानां निजरूपता तत-श्चारित्रमोहोऽसुमतां विबन्धकः / उक्तानि नान्येन दुरात्मकान्य-व्रतानि मुक्त्वा जिनराजमेकम् / / 39 / / चारित्रमोहस्य विबन्धकत्वं, पापानिवृत्ते हि तत्प्रतीतेः / तत्त्वाश्रितायाः प्रतिबन्धकत्वं, रुचेरनन्ताश्रितमित्यनन्ताः // 40 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 139 पापप्रहाणस्य समस्तधर्मे, सुव्यापकत्वात् सुरभावसाम्यम् / गुणे चतुर्थेऽच्युतसीम्नि तद्वद्-देशाद्विरक्तिं श्रितवत्यपीह // 41 / / भव्यत्वपाकेन यथैव भव्याः, क्रमेण सम्यक्त्वमुखान्यवापुः / स्थानानि तद्वद्भवितव्यतागुणा-न्मुक्तिर्भवित्री लघुदीर्घकालात् // 42 // ततो न दीर्धेऽमरजीविते वा, लघुन्यपीष्टस्य विलम्बचिन्ता / श्राद्धा द्विधाणुव्रतसंहिता वा-ऽन्यथा न तत्राऽस्ति भिदा सुरत्वे // 43 // सम्यक्त्वसत्त्वे यदणुव्रतानि, योग्यत्वभाजि परथा न चैव / / गीतार्थनागैस्तु यदुक्तमेतत्, सेतराणां मननाद्धि योग्यम् // 44 // गुणक्रमो यः प्रतिपादितोऽग्रिमैः , स प्राग्गुणानां स्थिरतादिसिद्धथै / न चाग्रिमाणां भवितव्ययोगा-दुपागतानां विनिषेधनाय // 45 / / नित्यं सम्यक्त्वशून्या अपि जिनवचनादोघतः साधवः स्युप्रैवेये देवभावं परिणतिशुचयोऽनन्तसङ्ख्याः प्रयान्ति / सम्यक्त्वावाप्तिहेतुर्यत उदिततरा ख्यायते जीवरक्षा,.. तस्मात्स्थैर्याय सोक्तिर्न तु गुणहतये तत्त्वविद्वेद्यमेतत् // 46 // असंयतः संयततां वदन् यो, मतोऽस्ति पापश्रमणीयमध्ये / शून्यः स साधुव्यवहारवृत्त्या, तथोदितिः संयमिवन्दनाय // 47 // सम्यत्वचिह्नानि शमादिकानि, निजात्मनि ज्ञातुमिदं मतानि / परात्मनि ज्ञातुमिदं तु धर्म-रागादिकानि प्रथितानि शास्त्रे // 48 // एवं च तत्त्वात्परधर्मवानपि, स्वाचारमाश्रित्य जिनेन्द्रधर्मा / साधर्मिकं तं मनसा प्रबुध्य-माने न मिथ्यात्वकणोऽपि भावी // 49 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीता। तथैव योऽभव्यतया जिनेन्द्रधर्माम्बुदे मुद्गशिलासमानः / तथापि शुद्धं मुनिचर्यया मुनि, वदेन्न तत्राऽस्ति कणोऽध्यघाप्तेः / / 5 / / श्राद्धस्य चर्या जिनपस्यह्याज्ञा, धार्या सदा मस्तकमञ्जरीव / जहात्यपथ्यं सुमती रुजातुरो, यथा तथा दर्शनिनो विभिन्नान् / / 51 / / सम्यक्त्वचर्या जिनपूजनाद्याः, करोति संसारसमुद्रसेतुम् / स्थिरा मतिः प्रत्यहमादृताभिः, क्रियाभिरस्मात् प्रतिघसमुद्धरः // 52 / / आवश्यकपटके मुनिमावसिद्धथै, शिक्षावतानीष्टदिने विधेयात् / दानं सुपात्रे मलमुक्तशीलं, चित्रं तपो भावममोघमेयात् / / 53 / / युम्भम् स्वाध्यायलीनो ब्रतभावरूप-प्रमुख्यदर्शिश्रतरत्नराशेः / . सर्वास्ववस्थासु निधानभूतं स्मरेत् सदा पञ्चनमस्कृतिं च // 54|| श्राद्धत्वशोभावहने प्रवीणः, परोपकारोऽस्ति ततोऽत्र यत्नः / यथात्मनो जीवितमेव कान्तं, तथा समेषामिति तत्प्रदेयात् // 55 / त एव धुर्याः सुजनेषु ये स्यु-र्गुणान्वितानिःस्पृहमर्चयन्ति / तदाऽमितान् प्राप्य गुणान् शिवाध्यो-द्देशास्तदर्हा न हि किं जिनेशाः // 56 // गुणानाधायान्तः सुजनसमुदायो गुणिजनान् , गुणाप्त्युदेशाच्चेद्भजति नितरां वै समुचितः / ततोऽहंन्तोाः स्युर्जिनपतिगुणानां स्तवनतः , [57|| देवो धर्मों जीवमुख्यार्थसत्त्वं, जीवे न स्यान्नैव स्वज्ञानगम्यम् / / र / अज्ञातेऽस्मिन् साधनं तत्फलं च, नैव स्यात्तत्सूरिरर्यो बुधानाम् // 58 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 जनगीता। धर्मादिकार्य सुसहायनिष्ठं, सहायका धर्मपराः सदैव / अनेकभेदां विदधीत भक्तिं, कुटुम्बिलोकादधिकार्यकारिणाम् / / 59 / / मनोऽनुसृत्याऽध्यवसायभावो-ऽन्येषां मनोवर्जितजातिकानाम् / तदन्यथात्वेऽपि ससाधने नरे, भवेत्प्रवृत्तिः सकला ससाधना // 6 // मनश्च कायेन तदीयवर्गा-नादाय निष्पाद्यत आत्मरूपम् / कायश्च जीवस्य गृहीतमन्धो-ऽनुसृत्य तद्रूपभवो यतः सः // 61 / / सुसाधुरत्नं नयहीनराद्ध-मशुद्धमत्त्वा स मुमोष गेहम् / ... वान्ते गृहेशं सममार्पिपत्त-दन्ने प्रजग्धे किमु नीतिहीने // 6 // चैत्यारम्भः प्रवरतरफलः श्राद्धवंशस्य कार्य, तन्नाद्रव्यं भवति च कनकं नीत्यनीत्योः प्रकारात् / तत्राऽऽरम्भे द्रविणमनयं यस्य तत्तस्य देयं, सङ्घस्याग्रेऽणुकनकविषये वाच्यमेतस्य सोऽर्यः . // 63 / / गृहस्थधर्म प्रवरं हि दानं, न्यायागतं तत्प्रथमं निरीक्ष्यम् / श्रद्धाक्रमाद्याः सुफलास्तदा स्यु-द्रव्येण शुद्धं यदि दानकार्यम् / / 64 // भाबो हि दाने फलदानदक्षः, परं न सोऽन्यायपथादराणाम् / समस्तमेतन्मनसा विचिन्त्य, कुर्यादसौ सद्व्यवहारशुद्धिम् // 65 / / न हिंस्रवृत्त्या न च कूटसाक्ष्यान्न चौर्ययोगान्न च वञ्चनेन / यद् द्रव्यमात्तं न कलोत्क्रमात्स्या-लाभक्रमो यत्र न लक्षितः - स्यात् // 66 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 जैनगीता। लोके श्लाघा शासनस्योत्तमा स्याद्-यद्वच्छुद्धया नो, तथाऽन्यः ... सुकार्यैः / तिर्यग्देवास्तीर्थकृद्दानहेतो-श्छिन्नोद्वंशादानयन्तीह हेम // 67 / / पत्तने पटुतरो धर्ममहिमाऽसमोऽशेषजैनेन सत्वरमुपेयः, धर्मगात् पटुतरात् मानमहिमादृतात शेषकार्येण नो सुघटतेजाः / भावनां पटुतरी लोकसमुदायजन्यां कर्तुमर्हण जैनमतजातां, स्यन्दनो वरतरो देवतरुसन्निभो भ्राम्यते दानकीर्तिपरगानः // 68 // श्रीशत्रुञ्जयरैवताचलगिरिप्रोद्यत्प्रभावार्बुद जीरापल्लिसुवर्णसानुसहितः सम्मेतशैलोऽऽजनः / . यात्रैषां करणीयतापदमितः स्याद् दर्शनं यद् दृढं, तीर्थेशादिविहारनिर्वृतिमुखोदन्तावलेः संस्मृतेः // 69 / / श्राद्धः सर्वजिनेशशासनरतः सूत्रोक्तमेकं पदं, संसाराम्बुधितारणेऽसमफलं द्वारं नरामर्त्यशम् / एकं शाश्वतसिद्धिधामगमने सामायिकं प्रत्यलं, मत्वेत्यात्मनि शान्तिमुद्धरति संवारप्रवेकोन्मुखाम् // 7 // दोषा ये क्रियया भवन्ति भविनां कष्टप्रचायोन्मुखा स्ते सर्वे सुनया विरुद्धकृतितस्तस्याः पदोन्मार्जनान् / दुर्वाक्याज्जिनरागगीतपदतोऽर्थानां प्रलापोत्थितात् , ____ संसारे भ्रमणं गतान्तमिति वाक्चेष्टां श्रुतोक्तां सरेत् // 71 / / राजा रक्षति रक्षणीयपदगां स्वीयां प्रजामादरात् , . तत्साधनमिदमित्यवेत्य जनता तां गोधनेनाञ्चिताम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 143 जीवस्यास्ति विकम्पनं पर इति त्रासोद्यतांस्त्रायते, षट्कायाः परिरक्षणीयपदगा जैनः परो मन्यते // 72 // शास्त्राणां विधिवाक्यराशिरधुनत्पापप्रतानोदयं, यत्सङ्ख्यागतमानमेय इह तद्वाक्यं सकृयुक्तियुक् / ताभ्यां यन्न निवारितं पदमधो वाक्यैः सहस्रेस्तकद्, दृष्टान्तप्रतिदर्शनात् क्षणमियाद्यावद्भय सङ्गतिः // 53 / / मत्वैवं वरधर्ममार्गनिपुणः श्राद्धः परं संवसेत् , ग्रामे यत्र जिनेन्द्रचैत्यततयः स्याच्चागमस्त्यागिनाम् / निष्णा धर्मविधौ च जैनमतगाः क्षेत्रे गतोपद्रवे, सर्वे स्युर्गुणराशयः फलधराः सत्स्थानकात्तच्छ्रितात् // 4 // श्राद्धस्य जन्ममरणोज्झितमेव धाम, प्रार्थ्य, न तच्च दमनेन विनेन्द्रियाणाम् / चारित्रमेव पटु तत्र तदा स्वतन्त्र स्तत्कारके सुबहुमानयुतश्च सधे ||75 // गुणाय यत्स्याज्जिनराजमार्ग, पूज्यं तदेवेति सुपुस्तकानाम् / पूजा यदन्यन्नहि साधनं स्या-त्कलौ गुरूणां गुरुरेव तद्यत् // 76 / / आराधनेन जिनपादिगणस्य मुक्ति राराधनं च परिणाममनुप्रधानम् / भवेच्छुभः सोऽनुसरन् क्षणालिं, यथार्थशक्ति प्रतनु क्षणाँस्तत् ||77|| P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 जैनगीना। यथार्थं श्राद्धत्वं भवति भविनां शास्त्रगदितं, ": जिने ज्ञानाद्यस्तित इह विधेया बहुमतिः / / न विघ्नानां भावो गुरुगुणसपर्यां विदधतो, . महादानं नित्यं भवति गदिता चिह्नततिरियम् // 7 // चर्यामसौ नित्यमुदारवुद्धथा-ऽहोरात्रिकी श्राद्धगणोचितां धरेत् / / न चेत्समेतो मुनिभावमन्त्ये, संलेखनामुत्तरसौख्यदामयेत् // 79 / / जैनोऽसौ वरधर्मकर्मकरणेऽनन्योपकारक्षम, मत्वा श्राद्धवरं तनोति नियतं तस्य प्रभावप्रथाम् / सङ्घस्यापि चतुर्विधस्य नितरामाराधने स प्रभुः, कर्ता कारयिता प्रशंसनपरस्तुल्यास्त्रयोऽप्याहताः // 8 // . . इति एकोनत्रिंशोऽध्यायः / / त्रिंशोऽध्यायः / (श्राविकाधिकारः) जैनोऽसौ मनुते समस्तजिनपैर्मोक्षं वरेण्यं पदं, ..गन्तुं येऽसुभृतोऽर्हतां निजगतां सन्धारयन्तो मताः / / तेषां यो भणितः सुकर्मकरणो वर्गः शुचिर्योषितां, तं नित्यं शिवधामसाधनपरं पूजास्पदं भक्तितः // 1 // श्रद्धाऽनघा शासनगा सदाऽस्याः, श्राद्धीतिशब्दो न पराप्तसङ्गात् / बाला युवत्योहिजराविजीर्णाः, श्राद्धयास्तु वर्गों जिनपैः प्रशस्तः / / 2 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 245 स्ववर्णगर्वेण यथा जनानां, म्लेच्छीकृताः कोटयधिका जनानाम् / द्विजैस्तथा दिग्वसनैः स्ववेद-गर्वेण योषाः प्लविताः शिवाप्तेः // 3 // न जैनमार्गे शिवसाधनायां, वर्णस्य वेदस्य विशेषवार्ता / श्रेण्यां क्षपण्या क्षपयन्ति वेदां-स्त्रयोऽपि मोहक्षपणे क्रमेण // 4 // भावो हि जीवस्य शिवाप्तिमार्ग, स्यात्कुत्सितो रो मलं, न चान्यत् / पञ्चेन्द्रियत्वप्रमुखं तु साधनं, स्यात्साधको भाव उदाररूपः // 5 // यथा मुनीनां प्रबहः शिवाय, प्रवर्त्तमानो गृहिवर्गयुक्तः / . तथा श्रमण्योऽपि शिवाप्तिहेतो-रीक्ष्यन्त युक्ताः स्वकसेविकाभिः / / 6 / / श्राद्धयो गृहिण्यः सकलं तु कार्य, गृहाश्रितं नित्यमुपाचरन्ति / जग्धौ च पाने च गृहाश्रितानां, जीवावनात्कर्तुममूर्यदीशाः / // 7 // यत्स्वीचकारोबहनेन पत्यु-रतदेव यावद्भवमाश्रयेद्गहम् / शय्यां न पत्युर्यदि नैव लऽत् , परः सहस्राः शरदो दिवि स्यात् / / 8 / / विना तातं वालं भवति वनिता पालितु (रक्षितु) मलं, विधायान्येषां तु प्रवरधनिनां कण्डनमुखान् / विना योषां बालं भवति न हि रक्षणविधौ, कियत्कालं जीवेदपरवनितारक्षितभवः . . . // 9 // अतः स्त्रीणां प्रोक्तं व्रतमतुलितं स्वेतरनरे, सदा धार्य ब्रह्माऽपरपुरुषमीक्षेत न हशा / . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 जैनगीता। स्त्रिया भूषा शीलं कुलमपकलकं च भवति, सुशीला यत्रतास्तत उदितशीलाः स्त्रियः उमाः // 10 // यदा शुद्धं शीलं भवति वनिता पत्युरुदितं, प्रतीतेः पात्रं यद् धनकुलसुतादिप्रद इह / . भवेत् स्वामी प्रेते भवति वनिता वंशवहनी, ततः पाल्यं शीलं चरितमुदितं प्राक्तनमुशेत् // 11 // भवाब्धिसन्तारणयानतुल्यं, दानं सुकृत्येषु परं सुकृत्यम् / अस्य विधानं महिला विदध्युः कथं न तासां भववार्धिपारः // 12 // मध्याह्नकालः प्रवरो मुनीनां, भिक्षाभ्रमस्यागमसम्मतत्वात् / तदा च दानप्रसवो हि धर्मो, भवेद् गृहावृत्तितयाऽङ्गनानाम् // 13 // त्रिसन्ध्यं जिनाचा विधातुं समर्था, महेला यतः कालसुसाधना सा / खरः सन्दधात्यर्धदग्धो निषेधं, महेलाऽस्ति योग्या श्रुतोक्त्या न मिथ्या // 14 // मुक्तनिषेधं ललनागणस्य, दिग्वाससश्चक्रुरुदाररूपाम् / जिनेन्द्रपूजां न तु मुक्तिसाध्या, खरस्तु मूलप्रविणाशदक्षः // 15 // प्रभाते शय्यायां पठति परमां पञ्चपदनति, विमुञ्चन्ती निद्रां यदि च निजकं स्याच्छुचिवपुः / - स्मरन्ती तां चित्ते यदि च तनुकं स्यान्नहि शुचि, ___ ततश्चित्ते कुर्यात् कुलममलिनं धर्मपरमम् // 16 / / चैत्यं ततो गेहगतं प्रविश्य, नैपेधिकीमुख्यविधि विधाय / कुर्याज्जिनेन्द्रार्चनमात्मलाभ - प्रद्योतनं पुष्पमुख्यैः सुद्रव्यैः / / 17 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 147 स्तुतिस्तोत्रैः स्तौति प्रसितममलेऽर्हन्तमतितमे, गुणानां सङ्घाते जनिमुनिशिवाप्त्यादिजनिते / गृहस्थानामेषोऽमितगुणकरो भावमतिगतः, स्तवस्तेनाजस्रं विनयसहिते स्तौति गृहभाग् // 18 // प्रत्याख्याय निजात्मशक्तिनियतं प्रातस्त्यमादौ यम, सङ्घनाकृतमहतो गृहमितो यात्वा विशेत् सा विधेः / कृत्वा चार्चनमहतो बहुविधैः पुष्पादिभिर्भावतः, प्रत्योख्याय च निर्गता गुरुमुखाच्छास्त्रं श्रृणोतीष्टदम् // 19 // . आगत्याऽऽलयमाचरेद्विधिपरा धर्माङ्गदानं मुदा, यद्वा भाजनधारणं वितरतीशे साधवे दातरि / कुर्यात्पौषधपारणेऽपि यदिदं पम्फुल्यते दीपवज् , जैने शासन एष नो ऋणगतो न्यायः कदापीष्यते // 20 // धान्येन्धोऽम्वुविशोधने निलयगा सर्वत्र रक्षापरा, कुर्यात्कार्यमपायपापरहितं प्रेत्यावतारं हृदा / अग्रे कृत्य सुकृत्यदुष्कृतिफलं नो विस्मरेचित्ततः, श्राद्धयेषा द्वयमाप्नुते सुखकरं की ति परत्रामरम् // 21 // तीर्थानां विविधाहदादिमहिमाढ्यानां जनुःपावनाद्, यात्रा सत्कृतिसंयुता भवेतरी कार्याऽऽप्य सत्साधनीम् / सम्पत्तिं सहचारतत्परजनं चार्थस्य सिद्धौ फलं, ज्ञेयं, कष्टभरार्जितोऽर्थनिचयो दाताऽन्यथा दुर्गतिम् // 22 // धर्मः स्यात् प्रभुशासनोन्नतिकरः सत्यापितो जन्मना, दानं चेन्निरचं विधाय विधिवच्छीलं धृतं निर्मलम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। पूर्वोपार्जितपापपङ्क्तिविलयेऽसाधारणं कारण तप्तं दुष्करमुद्धतिकरतपो भावं च भव्या धरेत् // 23 // या श्रद्धाभरसंयुता, जनगणो यां संस्तुते शीलतः, वंशौ द्वौ विशदीकृतौ सुकृतितः सज्जन्मवत्या यया / यस्यै धर्मपरः सदा नतिपरो, यस्या गुणानां व्रजः, सङ्घ संञ्चरते मतिश्च तरुणा जायेत यस्यां यशः // 24 // नारी यद्यपि निन्दिता श्रुतधरैर्वाक्यप्रबन्धोद्धरैः, स्थाने स्थान उपोढसन्मतिभरैः सा नैव जातिद्विषा / किन्त्वेतैः पुरुषप्रधानमतगं संश्रित्य वाक्यव्रतं, स्त्रीराश्रित्य निरूपणे पुरुषगा सैवाहता पौरुपे // 25 // स्याद्वादो जिनराड्मतेऽप्रतिहते दोधैर्गुणैः संश्रिते, सोऽनेकान्तनिरूपणेन सफलः सर्वामपेक्षां दधत् / नास्त्यत्राश्रयता स्त्रियामघततेः सम्पत्तु सम्पद्गते हीनो दोषगणेन ऋद्धिवरको नैवेति नो मन्यते // 26 // साधून यथोद्दिश्य जिनेन्द्रमार्गे, दोषाः श्रमण्याः प्रतिपादिता बुधैः, त एव साध्वीव्रजसङ्ग्रहे स्युः , निम्रन्थवर्यानपि संश्रिता हि // 27 // कामः स्त्रिया यद्गणितश्चतुर्भि-नरात्तदेतत्पृथगस्त्यपेक्षया / ज्योतिस्तृणानां झटिति प्रजायते, निर्वाति चेत्थं न च फुम्फुमेपु . (कारीषेषु ) // 28 // स्फुलिङ्गसंयोजनतस्तृणानि, ज्वलन्ति घट्टादियुताग्नितोऽपरः / शाम्येच्च तार्णो द्रुतमेव नान्य, इति प्रबोधात् स्मरकारणं त्यजेत् / / 29 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 149 साधुव्रजानां न चतुर्थयामो-ऽपवादभूर्यत्करणं न तस्य / . रागद्विषो चेत्स नरात्मनस्त-न्नचाङ्गनानां स गतापवादः // 30 // इत्यस्ति शास्त्रे मिथुने श्रमण्या, द्रव्ये, न भावे भवनस्य सम्भवः / हठप्रकारस्य यदस्ति तस्यां, सुसम्भवा नैव तथा सुपुंस्सु // 31 // अतः प्रयत्नात् स्वयमादरेण, वृद्धादियत्नेन सुरक्षितत्वम् / शीलं स्ववंशस्य वरं हि जीवितं, मत्वेति शीलं परिरक्षणीयम् // 32 // अतः कवीशैः सुकलत्रनाशे, यथा समं घोषितमेति सत्यताम् / नाशो गृहस्येतरजन्मनाशे, घुष्टं तथा नो कविना जनेन // 33 // यथा हि शस्यस्य धरानुसत्ति-स्तथा न कलब्दसमीरणानाम् / अनुश्रितिस्तद्वदिहाङ्गनानां, संस्कारवृत्तिः सकले स्ववंशे / // 34 // शरीरतत्त्वं रुधिरानुसत-रक्तं च नार्यागतमेव मूलात् / मातृप्रसूते तनुतत्त्ववेत्ता, परीक्षते ह्यसमिदां विवादे // 35 / / यस्मान्माता प्रसूते शिशुमनघपदं तेन सा गीतिमाप्ता, सत्पुत्रादीन् जगत्यां प्रचुरगुणगणे गार्गिमातेति काव्ये / शास्त्रे रत्नप्रदीपप्रवितरणकरा रत्नकुक्षिनमस्याऽऽराध्या सा सर्वलोके त्रिभुवनपतिभिराविरम्बेति सोक्ता // 36 // ख्यातो जिनेन्द्राऽऽगम एष शब्दः, स्त्रियां च यद्वत्पुरुषेऽपि तद्वत् / जिनेन्द्रवाक्यादिषु सुष्ठु देवा-दनुप्रियेति प्रयुतो न भिन्नः // 37 // सधेऽपि सम्बोधनमेतदेव, श्राद्धी तथा श्राद्धगणो मिथस्तु / हेशब्दपूर्वं हि पदं तदेव नार्या न तस्मात् क्वचिदप्यधस्त्वम् // 38 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 जैनगीता। ता। . सर्वाङ्गिकी कोऽपि करोति भव्यः , समस्तसङ्घ परमादरेण / सर्वत्र कुर्वन् प्रथमं द्विधा स्त्रियां, विशेषहीनं सधवाधवायाम् // 39 // श्राद्धीनां स्याद्धर्मक्षेत्रेऽमलत्वं, कुर्याद्येनोद्वाहकालेऽपि पूजाम् / धार्यो महिमाऽनून एषोऽपि ताहक, पापारम्भे साधयेद्धर्ममादौ // 40 // मतिर्या भवान्ते गतिः साऽपरत्रा, वाण्यत्र प्रत्यास्ति समानलेश्या / च्यवे भवे चेति विबुध्य सर्वा-नार्तान् सुनिर्मापयितुं यतेत // 41 / / आराधनां निर्मलभावपूर्णा, चतुःशरण्या शुभपापकर्मणोः / प्रशंसया निन्दनया च भावात् , स्वान्यातुरत्वे हि करोति वर्याम् // 42 // यथा परैः प्रेत्य सुरालयानां, मुक्तेश्च गीतः परिदायकत्वात् / महेश्वरः सर्वजनोपकारी, मिथ्येयमाराधनकारिका तथा // 43 // यान्ति प्रशान्ताः प्रभुभक्तिवाणी-प्रणोदिताः स्वर्गपदं शिवं वा / - तत्कारिका किं नहि कारिका हि दुग्धान किं म्रक्षणसर्पिराप्तिः // 44 // कुर्वन्ति वैवाहिकमत्र पुत्र-पौत्र्यादिकस्य निजबान्धवः / तथापि तच्चण्डक्षतिनिवृत्त्यै, नीतौ स्थिताः स्वर्गशिवाप्तियोग्याः // 45 // तथाविधोनीति पराभवेयुः, सत्कर्म कर्तुं शिवमार्गमेतुम् / अतः स्वकीयं कुलवंशयुग्मं, पुरा हि रक्ष्यं सुधियेति गीतम् // 46 // यथाऽऽर्यदेशः सुजनोपकारकृत् , सङ्गं विधायाहतसाधुचैत्यैः / वंशः कुलं वा मतिभाववत्यपि, विधाय तैः सङ्गमिहोपकारी // 47|| P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 151 दत्ता कुले यत्र स्वसा च पुत्री, धर्मोऽपि तत्रत्य उपासनीयः / ततः सदाचारभवोन्तराणां, रक्षार्थिनी तां न परत्र दद्यात् // 48 // अत्रत्यवैतत्य उपागते स्या-द्वयथैहिकी धर्महतेऽन्यभाविकी / आद्याऽल्पकालं परथा परा तु, वित्त्वेदमन्यश्रितये न दद्यात् // 49 / / यथानुराग आत्मन प्रस्वान्ततोऽधिकोऽस्या निजपुत्रवर्ग / भिन्ने तु धर्मेऽधमस्य संश्रयो, नीचस्तरा वृत्तिरबोधमोहिनी // 50 // सिद्धाद्रिप्रमुखप्रशान्तगिरिषु प्राप्ता पराः कोटयस्तत्स्वानेऽपि न याति सम्भवपदं येषां न श्रद्धाऽनघा / मोक्षं किन्त्विदमात्मवंशसहजा संस्कारवार्तामति येषां ते सुतरां विधाय सुमति तीर्थानि तानि स्मरेत् // 51 // आद्या सिद्धा समग्रे भवभवविगमावाप्तमोक्षालये या, साम्प्रत्यां जैनमार्गेऽवसृपितिसुषमदुष्षमायां जिनाम्या / नैवाऽऽसीत्तत्र तीर्थं निजगुणमहिमोल्लासितात्मप्रभावान् , मत्वैवं स्वात्मशुद्धयै जिनपतिवचनाच्छ्राविकाणां प्रयत्नः // 52 / / वर्गः श्राद्धयाः प्रणम्योऽविचलसुमतिधर्मकार्य सदोक्तो, देवानामप्यचाल्यो बहुतरविधिभिः संयमादाप्ततत्त्वः / तत्रास्ति ज्ञातमन्यं चरमजिनपतेः नागभार्या प्रवेका, सम्यक्त्वे देवतुष्टौ जिनवरशिवगे शुद्धसत्याऽग्रदृष्टिः // 53 / / समग्रो नगर्या जनो भ्रान्तिमाप्तः, यदाऽसज्जिनेशस्यागमं कर्तुमिष्टः / स एवाम्बडः प्राप्तजनार्चनादि, न मुग्धा सुसम्यक्त्वधरा न याता॥५४॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 जैनगीता। जम्बूस्वामिन आप्तसुन्दरवराः प्रेयस्य आप्तादरा, अष्टापि प्रवरां व्यधुः समगतां तत्कृत्यकृत्योद्यताः / यातेऽस्मिन् मुनितां स्वयं गतमदाश्चक्रुर्मुनित्वं परं, जाताः संयतमार्गसाधनपराः श्रीचन्दनायाः पुरः // 55 // श्रीवज्रप्रसवितृसंयमकथां लोकात्ततश्चागतां, . श्रुत्वा श्रीधनगिर्युदारचरितां वत्रे सुनन्दा वरम् / जातं वज्रप्रभु ददौ लघुतरं षण्मासमात्रं शिशु, तां को न स्तविता जिनागमरुचिः श्राद्धों परं पावनीम् // 56 // श्रीहेमचन्द्र प्रभुमार्पिपद् या, श्रीदेवचन्द्राय मुनीश्वराय / भर्तुः सुकृत्यं परमं विदन्ती, श्राद्धया अहो वा स्वमतीत आदरः / / 5 / / श्री वस्तुपालाग्रजतेजपालं, प्राप्तं निधानं खनितुं विचित्तम् / दृश्यं जनैश्चौर्यकृतावनहं घेयं तथेत्युक्तमलोभपल्या // 5 // श्राद्धी सुभद्रा जिनमार्गमोदा, जलेन द्वारत्रितयी पुरस्य / सतीत्वभावस्य महाप्रभावं, जनेषु जनयन् पुनरुद्घटित्री // 5 // राज्ञा सुशीलो महिपीप्रदत्ता-भ्याख्यानयुक्तो हननाय युक्तः / / सुदर्शनो रक्षित आर्यधृत्या, श्राद्धया स्वकीयाचलधर्मभावात् // 60 / / श्रीरेवती नाम जिनस्य बद्धवा, भावी जिनो तीर्थपदानशक्तेः / निर्णीय को न स्तविता जिनानु-यायी वशं श्राद्धपथोन्मुखां स्त्रिम् / / 61 // शाही अकव्वरमुदारमति दयायां, : ... .. लीनं न वेत्ति जिनशासनतत्त्ववेदी / म .. P.P. Ac. Gunratpasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / 153 सर्वोऽप्यसौ समभवत् प्रभुहीरनाम्ना, . मूलं तु तस्य तप आइतिश्चम्पिकायाः. // 2 // भवेत् प्रतिष्ठा जिनबिम्बराज्याः, प्रभुत्व भावं यदियं विदीपयेत् / सर्वाङ्गशुभ्रापि न पूज्यतापदं, श्राद्धया युतोऽस्यां(न) विधायको धवः // 63 / / चैत्ये च यत्रापि जिनाकृतीनां, पटे प्रतिष्ठापनमाद्रियेत / तत्रापि तासामधिकारभावो, विशेषतश्चात्र विनामनाविधौ // 64 / / याः सद्धवा अत्र विमाननाविधौ, समाद्रियन्ते न च ता अतीयुः / दुःखानि दौर्भाग्यभवानि कान्यपि, यावद्भवं शान्तिसुखान्युपेयुः // 65 // यद्यप्यनीशैः सत्कारलेशः, शरीरशोभावहको न्यपेधि / तत्सत्कपोषस्य निपेधनात् परं, तीर्थोन्नतौ किन्तु स सेवनीयः // 66 / / यदेव कर्माश्रवणाय कृत्यं, संसारहेतोरघनिर्जराय / तदेव धर्मोन्नतिकार्यहेतो-यंदाश्रवास्ते हि परिश्रवा यत् / / 6 / / जिनाधिपानां रुचिराणि यानि, दिनानि कल्याणवराङ्कितानि / एकाशनामारि-रथोत्सवैश्च, श्राद्धीजनः शोभयतेऽङ्गची रैः // 68 / / कल्याणकेषु प्रवरां न पूजां, श्राद्धीजनो वाऽपर आर्हतः सन् / जिनेश्वराणामविधाय घस्रे-ध्वन्येषु कुर्वन्न भवत्युदारः // 69 / / चत्वार उक्ताः श्रमणप्रधाने, सङ्घ विभागाः परमग्रगामी / कार्येषु धर्मप्रवरेषु वर्गः , श्राद्धयो यतो भूरितमाः सुयत्नाः // 70 / / गृहेषु धर्मीय. उदारभावः, प्रवर्तते तत्कृत एव भूरिः / समानि कार्याणि तदुत्थमत्या, धर्मे हि जैनेश्वर आदरेण // 71 / / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 जैनगीता। श्राद्धयश्च देव्यश्च न विभुत्ववत्य-स्तथापि साम्येन नयन्ति सर्वान् / श्राद्धाँश्च देवांश्च जिनोक्तधर्मे, स्वयं दृढाः कुर्वते धर्मरक्तान् // 72 / / यथा परेषामधिकारिता नहि, गृहे च धर्मे व्रतमुख्यकेऽपि / तथा न जैनेष्विति सर्वधर्मेऽस्त्यासां समो ह्येवमतोऽधिकारः // 73 // नासां धर्मों वंशजात्यादिरुद्धो, यद्धर्मोऽत्राराधनीयः स्वभावात् / आत्मार्थं तद्वारयन्त्या नितान्तं, गीता तीथ्य निन्दयित्वा न्वनीं // 7 // जैनः स स्यान्मातृवर्गेण तुल्याः, सर्वाः श्राद्धीर्मानयित्वा महेद्यः / मोक्षार्हायाः सप्तक्षेच्या विभेदं, चिंत्ते नैव सन्दधीताचलेक्षः // 75|| इति त्रिंशोऽध्यायः / / एकत्रिंशोऽध्यायः / ( देवाधिकारः ) जैनः स एवाहतधर्मधारी, यको भवान्धोरवनोऽर्हताऽभूत् / नास्त्यन्यधर्मग्रवणो जनेऽस्मिन् , पुनातु देवो भविनो जिनोऽर्हन् / 1 / / कालादनादेनिजभव्यतायाः स्वरूपमन्यासदृशं दधानः / यथाऽऽम्रवृक्षः स्वकजातिवीजात्, . पुनातु० // 2 // भवस्थरूपे भवबालकाले, जहौ न तादृम्बरभावसत्ताम् / मलीमसं स्वर्णमयो विभिन्नं, पुनातु० // 3 // तथा तथा कालविवर्तसङ्ख्या-तीतं भवाब्धौ परिवर्त्तमानः / तुल्यं परैः कालभवानतुल्यः, . पुनातु० // 4 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 155 यथा महासानुतलाद्वहन्त्याः, सुवाहिनीश्रोतसमादधत्याः / चिन्तामणिर्नोपलवृन्दतुल्यः, पुनातु० // / / परोपकारप्रवणैकचेता, निबद्धय कश्चिजिनकर्म जीवः / गतोऽन्यजन्मानि वराणि तानि, पुनातु: // 6 // . नष्टे तु तस्मिन्नपतीर्थपत्वे, भवेजनानां प्रवरा गतिर्नो। चान्ता सुधा नैव गुणाय लेशात्, पुनातु० // 7 // . परं तथाभव्यभवं जिनत्वं, वरं न बद्धं वमतीह कश्चित् / पयो ददाना सुरभिर्न चाभा, पुनातु० // 8 // जिनेन्द्रनामार्जितमन्यथा वा, निकाच्यतेऽन्त्ये भवने तृतीये। अर्हच्छिवाप्तादिपदेषु भक्त्या, पुनातु० // 9 // जिनेन्द्रनाम्न्येवमुपार्जितेहि, तिर्यक् पदं नैव कदापि गच्छेत् / परार्थकामी न भवेद्धि तिर्यङ्, पुनातु० // 10 // यथाऽऽगमिष्यन्नपभोगभावं, रत्नं न वार्धेस्तलगाकरे स्यात् / नोत्पद्यते भाविजिनोऽसुरादिषु, पुनातु० // 11 // स्वप्नप्रलम्भो न मनोऽनुसारी, यस्यागमे कुक्षितले सवित्री / पश्यत्यवश्यं चतुरन्वितान् दश, पुनातु० // 12 // हस्त्यादिका नानुगतिहरीणां, सप्तस्वपीटेषु भवेत् प्रलम्भे / गजादिका ह्यत्र गतिः प्रधाना, पुनातु० // 13 // जन्मक्षणे शक्रशतावलीद्धं, चकार मेरौ नियताभिषेचनम् / पड्युक्तपञ्चाशदपि कुमार्यः, पुनातु० // 14 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 जैनगीता / यस्याम्बिकाकुक्षिरपेतपङ्का, जम्बालमुक्ताऽप्रकटोद्भवाङ्का / सुरासुरश्रेणिशतेन वन्द्या, . पुनातु० // 15|| जन्माभिषेकेऽप्यमराचलेऽगुः; सुरासुराधीश्वरकोटयो मुदा / अष्टप्रकारार्चनमावि(द)धातुं, पुनातु० // 16 // बाल्ये न मातुर्विदधाति पानं, स्तन्ये सुराधीशशतेन नीताम् / सुधामपादङ्गुष्ठगां मुदाढ्यः, घुनातु० . // 17} चकार चेष्टां लघुदीर्घनीत्यो-रुरोद बाल्ये न महेश्वरोऽयम् / वंशे महेन्द्रः कृतराज्यवृद्धौ, पुनातु० // 18 // - परैर्न येषामवकल्प्यता स्याद-तिशयाँस्त्रिंशतमाश्रिताः समम् / चतुर्भिराईन्त्यपदोदितास्ते, पुनातु० // 19 // / क्षेमाय विश्वस्य विधाय दीक्षां, जित्वोपसर्गाश्च परिषहाँश्च / ... निर्मूल्य घातीन्यखिलानि सर्वविद्, पुनातु० // 20 // * प्राग्बद्धतीर्थकरनामकर्मणो, द्विधोदयोऽर्चाश्रमणादिसिद्धथा / द्वितीयमार्हन्त्यपदेन देशना, पुनातु० // 21 // यदीक्षितानां भवतीह याव-त्तीर्थं प्रवाहो न नवोऽपरं विना / भाग्यात्तु भव्यत्वयुतात् स एव, . पुनातु० // 22 // नीर्थ द्विधाऽगारपराश्रितं दिशन , कार्येण युक्तं शुचिकारणेन / जनाः प्रभूताः क्रमसिद्धिसाधनाः, पुनातु० // 23 // वर्गद्वयेऽपीष्टपथानुसार-स्ततश्च साधून् गृहधारकाँश्च / नुनोद धर्मार्थमरक्तदोषः, पुनातु० // 24 // - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। कार्येक्षिणो नैव महाँल्लघुर्वा, सत्साध्ययुक्तस्त्ववधारणापदम् / चतुर्विधं तन्नमतीह सङ्घ, पुनातु० // 25 / / : . दृग्ज्ञानकर्माश्रवरोधयुक्तं, मागं सदा श्रोतृगणं दिदेश / तदुक्तितो मान्यपदं हि तीर्थ, पुनातु० // 26 // अर्हत्त्वमुख्यजितसंसृतिकान्तभावा त्रिंशत्परास्न्यधिकसंयुज आप्तयोग्याः / तीर्थप्रवर्तनविधौ सततं स्वरूपा दर्हन्पुनातु सततं भविनो भवाब्धेः // 27 // ____ अर्हत्त्वनाम्न उदयः फलतो जिनत्वे, ___ पूर्वेष्वनेकजनिषु प्रविचिन्तितोऽन्तः / अन्त्ये गुणे हि भवनान्न तनुक्रियाया, अर्हन् पुनातु० // 28 // यत्कर्मजं फलमिहार्चनमर्हतः स्यात् , तद्यावदेष भव इत्यपयोगितायाम् / देवैः कृतं सप्रतिहारमयोगिभाव-महन् पुनातु० // 29 // तीर्थप्रवृत्तौ सकलातिशेषा, अर्हत्त्वमुख्या जिनपात्मसंस्थाः। पूजा (वृक्षा) दिकास्त्वन्त्यक्षणं त्ववाप्य, पुनातु० // 30 // मुक्तेरवाप्तौ द्वितयी ध्रुवं स्या-दुत्सङ्गपर्यकमयी दशा तु / तेन प्रतिच्छन्ददशाद्वयी तत्, पुनातु० // 31 // जगजनि-स्थेम-लयैः प्रवञ्च्य, जनान्न तेषु प्रभुतां दधाति / मोक्षाध्वदीप्तेः प्रभुतां दधानः, पुनातु० . . // 32 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 जैनगीता / न स्त्री न चास्त्रं न च वाहनानि, न स्वर्गदानादिवृथाप्रचाराः। कल्याणकृत् किन्तु शिवाध्वसिद्धिः, पुनातु० // 33 // गतो न गन्ता न च गच्छतीशः, परां गतिं सिद्धिविनाकृतां यः / भवाटनाद्दरगतो नितान्तं, पुनातु० // 34 // न कर्म तृष्णा न च रागकोपौ, नाज्ञानलेशः परमात्मताभृत् / न तीर्थनाशाऽवनबद्धलक्षः , (अर्हन् ) . पुनातु० // 35 / / जैनः स एवात्यटनं भवाब्धौ, न वाञ्छति प्रेप्सति सिद्धिमार्गम् / जन्मान्तकेभ्यो भयभृच्छिवेप्सुः, पुनातु० // 36 // / इति एकत्रिंशोऽध्यायः / / द्वात्रिंशोऽध्यायः / ( साध्वधिकारः) जैनः स एव मनुते मुनिराजपादान् , ___ संसारसागरतटप्लवने सुपोतान् / दारैर्धनैश्च रहितान् धृतधर्मयोगान् , सेव्याः सदाऽऽदरभरेण सुसाधुवर्याः // 1 // ज्ञात्वा जिनेशवचनाद्यदि वा मुनीशात्, (गुरूक्तेः) स्मृत्वा च पूर्वजनुषं भवभावभीरुः / ' षट्कायहिंसनभवान् प्रचुराघहेतून् (शिवमार्गलीनाः) सेव्याः० // 2 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। बुद्ध्वा भवोदधिगता विविधा व्यथास्ता, जन्मान्तकाऽऽधिविविधामयजालजाताः / ज्ञात्वा तदन्तकरणं मुनिमार्गमेकं, . . सेव्याः० // 3 // पोतो यथा परतटं नयतीद्धभाण्डं, ... निर्यामकेण मतिसाधनसंयुतेन / धर्मे वरा भविजनोद्धरणैकलक्षाः, . सेव्याः० // 4 // लोकं प्रदीप्तमखिलं जननानलेन, ___मृत्यारुजौ यममत्याश्च विबुध्य मत्या / शान्त्यै जिनेशगदितं वरधर्ममादुः, सेव्याः० // 5 // मातापिता सू नुरपारमोहा, अर्थं समस्तं वृजिनौघलातम् / गृह्णन्ति न प्रेत्य फलं विदन्तो, सेव्याः० // 6 // सर्व जना ऐहिकसौख्यदुःख-समागमाना प्रचयात् प्रभीताः / नातीतभाविभ्य इमे तु तेभ्यः, सेव्याः० // 7 // अर्थाः सदा जनकुलागतनीतिरीत्या, रक्ष्या मनन्ति गृहिणो न च जानते ते / दौर्गत्यपातिन इमे मुनिभिर्निसृष्टाः, -- सेव्याः० // 8 // सर्वार्थसाधनमिदं वपुरक्षयं नो, . . यत्त्वेति नाशं बहुकारणाश्रितम् / / वित्त्वा सुसंयमकृते परिरक्षयन्ति, सेव्याः० // 9 / / मत्वाह तत् प्रथमतो महिमानमुग्रं, धर्मस्य भागफलयुग्ममिहानगारः / सामान्यतः परिचरे(द्) भ्रमरोपमानः, सेव्याः० // 10 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 जैनगीता। नाज्ञानिवन्मधुकरैः समताऽत्र वृत्ते, श्रामण्यमुक्तिसहिता सुगुणावलीष्टा / बोधेन युक्त उदयेप्सुरतो मुनीशः, सेव्याः० // 11 // प्राणाः परैः स्वे परिरक्षणीया, मता न तत्रास्ति दयाप्रचारः। . * प्राणैः स्वकोयैरपि जीवरक्षाः, सेव्याः० // 12 // सत्यं परेपां परमं हि तत्त्वं, दयाङ्गिनां जनमते तु तत्त्वम् / स्वजीवनाशः परहानिमुक्त्यै ( गुरुः ), सेव्याः० // 13 // सत्यं व्यलीकमुदितं ललनादिहेतौ, - रागो द्विषा चात्र पराघबीजम् / त्यजेदलीकं भवभृत्सुरक्षं, . सेव्याः० // 14 // विप्रा यथोत्पादमलीकमुक्त्वा, नादत्तमत्र ग्रहणे मनन्ति / इमे पराक्ये तृणमात्र आज्ञां, _ सेव्याः० // 15 / / परे नियोग विधिमार्गमाहु-रिमे निधाऽब्रह्म. परित्यजन्ति / तैरश्च-मानुष्य-सुराङ्गजातं, . सेव्याः० // 16 // स्वीयं ग्रहं पापमयं परेऽगु-रिमे कृतं कारितमाहृतं पुनः / स्वत्वेन वज्यं न परिग्रहत्वं ( स्तुत्याः), सेव्याः० // 17 / / महाव्रतानां परिपूर्णताय, स्वाध्यायशान्त्योः परिरक्षणाय / त्यजन्ति दोषाकरमन्धभोगं, . स्तुत्याः० / / 18 / / उरीकृतानामवनं सुदुष्कर, क्षणे क्षणेऽन्ये यत आत्मभावाः / / मत्वेति निस्सङ्गतया व्यहार्पः, .. स्तुत्याः० // 19 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 161 सर्वत्र पूयाः श्रमणाः समस्तै-धर्मप्रचारो मुनिसङ्गमोत्थः / पोऽत आन्ध्रादिषु संयतानऽमुक् , स्तुत्याः० // 20 // तावद्धि तीर्थ जिनराजगीतं, वर्तेत यावन्मुनिराजसङ्गमः / अतो मयूरोपमिता गृहस्थाः, .. स्तुत्याः० // 21 // धर्मो मुनिभ्यः प्रददे जिनेशैः, परप्रदानाय सभासमक्षम् / वीय धरन्तो मुनयोऽदुरेनं, स्तुत्याः० // 22 // न किञ्चनास्तीह मुनीश्वराणां, विहाय दृष्टयादिगुणान् जगत्याम् / . दुःखस्य मूलं पर इत्थमौज्झन् , स्तुत्याः० // 23 // योग्येषु देशेषु परिभ्रमन्तः, श्राद्धोपदेशेन नवानि कुर्युः / चत्यानि जीर्णानि समुद्धरेयुः, सेव्याः० // 24 // तीर्थानि पूर्वर्षिमहाप्रभाव-विद्योतकान्याप्तमहत्त्ववन्ति / प्रभावयन्तश्च समुद्धरन्तः, सेव्याः० // 20 // कचिद्गहायां विजने वनान्तरे, सान्वग्रभागे सरितस्तटे वा / : निराकुले पण्डितवीर्यवन्तः, सेव्याः० // 26 // उत्सर्गमादृत्य समस्वभावाः, मित्रे रिपौ जीवन आत्मनोऽन्ते / मृतिर्हि येषां क्षणकालभूता, सेव्याः० // 27 // . गुरूपदेशाद् भवितव्यतायाः, प्रभावतः स्वीयसमुद्यमाच्च / लब्धेऽपि मार्गे शिवगा भवित्र्या, सेव्याः० // 28 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 जैनगीता। आत्मानमात्मप्रतिबद्धरूपं, जानन्त आत्मव्यतिरिक्तभिन्नाः / / काषायिक स्थानमपाहरन्तः, सेव्याः० // 29 / / ये नित्यरूपं प्रवरं विदन्त-श्चैतन्यसौख्यकमयं जिनोक्तेः / अधिष्ठिताः स्वं निजरूपहेतोः, . . सेव्याः० // 30 // ये पौद्गले नैव सुखे निमग्ना, न द्वेषिणः पूर्णनिजस्वरूपाः / / निरुध्य योगान् विगताघबन्धाः, सेव्याः० // 3 // परे हि तीर्थ्याः निजसेवकान् सदा, तैरश्वभावप्रभवं निदर्य / दुःखं विषण्णा भवभावमेते, .. . सेव्याः० // 32 // पूजा परीवारकृते न दीक्षा, सम्यक्त्वचारित्रविदादिरूपाम् / चक्रुर्भुजिष्ये भवमन्थनाय, ... सेव्याः० // 33 // . मुक्त्यर्थमात्ता य इमे परेभ्य-स्त्यजन्ति तानंशुकवासमादीन् / विमुच्य बोधादिमयं तु जीवं, सेव्याः० // 34 // न वाहनं प्राप्तपुरस्य काम्यं, नौर्वा समुद्रस्य तटं गतानाम् / मत्वेति. हात्वाऽपरमात्मलीनाः, सेव्याः० // 35 // जैनः स एवाखिलतत्त्ववेत्ता, मार्ग मुनीनां दृढभक्तिभावः / सदा धरस्तेषु गतः शरण्यं, सेव्याः० // 36 // . .. . इति द्वात्रिंशोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : जैनगीता। 163 / त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः / (धर्माधिकारः) .......... जैनः स एव मनुते जगदेकसारं, हेतुस्वरूपसुविशुद्धमुदाररूपम् / सार्वज्ञ्यलाञ्छितजिनरुदितं सुधर्म, _____धर्मो जिनोदिततया भविनां शरण्यः ॥शा सर्वेषु धर्म उदितः परमार्थसारो, .. दौर्गत्यवारणसहः सुगतेः प्रदाता / ..... तीयः समैस्तत इयं प्रतितन्त्रसिद्धि- धर्मो० // 2 // सामान्यमेकमिह नैव विलोक्यते झै-.. . स्तस्य स्वरूपममलाश्रयशुद्धिसिद्धम् / . . उक्त्वापि मङ्गलतया जगुरस्य सख्यां ,... धर्मो० // 3 // शब्देन नैव न च तन्मनसाऽस्य जन्म, किन्त्वस्य भेदधरणात् त्रय एव भेदाः / . तच्छून्यतामुपगते न हि धर्मतत्त्वं, . धर्मो० * * // 4 // 'स्वप्राणनाशसमयेऽपि न परं विहिंस्याद् , - यत्नश्च सर्वभविनामवनाय नित्यम् / / / .... प्राग्बद्धदुष्टदुरितोपशान्तिः, धर्मो० // 53. देवाः प्रमाणमिति धर्मधरानमन्ति, . . तेऽतोऽभ्युपेयममलं श्रुतवाक्प्रणीतम् / .. मिथ्यात्वसङ्गतिभियेदमसाध्यमुक्तं,..... धर्मो०. // 6 // शेषं समग्रमुदितं द्रुमपत्रकीयं, सिद्धं ततोऽधिकरणं त्रितयप्रसिद्धथै / धर्मस्य वृत्तमनगारपदोपशोभ, ......धर्मो० . . // 7 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 जैनगीता। निर्दोषधर्ममपबाधपदोदयाय, - प्रोच्याऽसमर्थजनतापरिसाधनाय / ... तस्येत्यगारसहिताय लघुव्रतानि, . धर्मो० // 8 // शक्तेतराप्तिविधया महतां प्रयत्नः, - सर्वेभ्य उद्यततमा हितकार्यदक्षाः, लळ्यो गुणाय मुनिताऽभ्यसनाय कृत्या,... धर्मो० // 9 // "मुख्या निवृत्तिरुदिता यतिधर्मसार्थे, . दानादिवृत्तिसहिता गृहिणां तु धर्मे / ..... गृद्धयुग्रकामरसनातनिवर्त्तनाय, धर्मो०. . // 10 // यत्राऽस्ति दानमुदितं ममताविमुक्त्यै, स्वायत्ततेन्द्रियगणस्य हता सुशीलात् / (भवे भवे धर्मपरं कुटुम्ब, धमो०) क्षान्त्यै तपोऽघगमनाय शुभस्तु भावो, . धर्मो० // 11 // अर्थार्जितिर्नसुदृशां किल धर्मवृद्धथै, लब्धस्य तस्य सुकृतावुपयोग उक्तः / मोक्षस्य वर्त्म परसङ्गतिनिःस्पृहत्वं, . धर्मो० // 12 // * संसारवासजनितः प्रमदप्रकर्षों, नो तादृशो भवति यादृश आत्मकायें / तस्यैव लब्धिरुदयाय भवाङ्गिनां स्याद्, 'धर्मो० // 13 // जन्मानि जन्मजलधौ भविनामनन्ता- .... .. .. नावर्त्तकान् प्रकटितान्यघभारभाञ्जि / .. दानादिधर्मसमलङ्कतमेकमेतद् धर्मो० ... // 14 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। इष्टस्य सिद्धिरधिकर्मतिसाधनाद्यै स्त्यिन्तरेण विदुषामपि तान् कदाचित् / धर्मस्य सिद्धिरमला भवितव्यताया, धर्मो०१५।। पुण्यादिभिः प्रभवमेति नरत्वमुख्यं, कालस्तु 'मुख्यपदमन्त्यविवर्तभावे / / वीर्य ह्यपूर्वमुपयाति शुभायतिर्ना, धर्मो० . // 16 / / कर्माणि यानि विविधानि गतादिकालात्, तेषां शमेन नियमः शुभधर्मलाभे / / जीवस्तनोति शममेतुमुदारवीर्य, धर्मो०- . . // 15 // जीवः कोण शिवमार्गविधानसिौ. यत्नं तनोति दुरितानि तथाऽपयान्ति / . हेतुर्हि कर्मविलयोऽङ्गिविकाशसाध्यो, . धर्मो० // 18 // पातोऽपि सम्भविपदं न तथापि यत्नो. . जीवेन सृष्ट उपयाति न निष्फलत्वम् / अन्तो भवस्य नियतः शुभधर्मभाजां, . धर्मो० // 19 // पञ्चेन्द्रियत्व-नरजातिमुखां समग्रां, . . लब्ध्वा सुसाधनततिं नर एति मोक्षम् / साध्यं तु बोध-दृशि-सच्चरणाग्रिमत्वं, धर्मो० // 20 // सम्यक्त्वमाप्यत इहाङ्गिकृतात् सुयत्ना __ च्छात्रं व्रतं च भवितव्यतया न किञ्चित् / कर्मादयो निगदिताः सफला जिनेन, धर्मो० // 21 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .166 जैनगीता। भाव्यं यदेव जगति प्रथनं हि तस्य, ... . नाकारणं भवति कार्यमनादिकालान् / यत्ने कृते मतिमतेतरथाऽपि कार्य, धर्मो० // 22 / / ज्ञानानि यद्यपि मतानि बुधैस्तु पञ्च, ..... मोक्षैकसाधनमलं श्रुतमेकमेव / .. तत् प्राप्यते तु मतिमज्जनसत्तिभावात्, धर्मो० ... // 23 // लब्धेऽपि लोककलनैकगुणे प्रबोधे, ' निःशेषकर्मविगमो न विनैव (विहाय) यत्नम् / श्रेणेरदृष्टनिचयेऽपगतेऽपि जीवाद्,... धर्मो० // 24 // न प्रेम भक्तिरुपवास उदारभावः, शुद्धा न मोक्षविधये विहिताः कुपात्रे / / निर्दोषधर्ममधिगत्य समे फलाढ्या, धर्मो० // 25 // धर्माजिनेशगुरवोऽपि च धर्मवृत्ति, : कुर्वन्ति सन्ततमिमे दुरितालिनाशात् / : धर्मोज्झिते नहि जिनत्वगुरुत्वभावो, . धर्मो० // 26 // दीपाद्भवेन्मणिगणस्य यथार्थबोधो, : नैनं विनान्धतमसेऽर्घमतिस्तदीया / धर्मस्य बोध उदयेद्गुरुदेवभावाद्, धर्मो० // 27 // अङ्गी यदा चरममागत आत्मभावा- - , दावर्त्तमात्मनिचितं विदधाति धर्मम् / भावीद्धभावसहितः प्रवरोदयाङ्ग, धर्मो० // 28 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 167 अज्ञानवत्यपि भवेच्छभमार्गवृत्ति- . / नैवाभिरोचति जनो गुणलाभयोग्यः / दुष्टत्वमेति सुजनैः प्रगतं सुमार्ग, धर्मो० // 29 // धर्माप्तियोग्य उदयं विमनाः प्रयाति, . मार्ग प्रकाशितमपेतभवप्रपञ्चैः / तत्रैव वनपरैर्गुरुभिः प्रदिष्टं, धर्मो० // 30 // हिंसादितो वृजिनसार्थमुपैति सत्त्वो, . __मुच्येत कर्मनिचयात् सुकृताप्तिलीनः / एतद्वयं न विहितं नरयत्नजातं, धर्मो० // 31 // वक्ता जिनेश उदितेतरकर्मपङ्क्ते:: .. धर्माध्ववाहकनरः समुपैति मोक्षम् / / धर्मे स्वयं स्थित इति प्रद आत्मसिद्धे- धर्मो० // 32 // तार्यः समुद्र उपयात उदारयाने, . . : नैतावताऽल्पगुणतोदधितारकस्य / निर्यामकस्य कृतिनोऽमित एष लाभः, धर्मो० // 33 // यः संश्रितोऽघविलयं प्रगतः सुधर्मात्, ... सवैति धर्ममपदोषचयैः प्रदिष्टम् / मिथ्या तमेव विदधाति चयेंऽहसां सन् (आलेः) धर्मो० * // 34 // नाशोऽहसां भविन आत्मसमेतधर्मात्, पुण्यस्य योगजकृतेः प्रभवोऽपि धर्मात् / पुण्येतरप्रविलयो हि सदात्मधर्माद् , . धर्मो० // 35 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 जैनगीता। जैनः स एव मनुते जिनराजगीतं, प्रोक्तं सभासु गणभृन्नियमेन धर्मम् / / यावत् प्रभावममलं भविभिधृतो-हि, धर्मो० // 36 // . ... इति त्रयस्त्रि ' इति त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः / / चतुस्त्रिंशोऽध्यायः / (ज्ञानाधिकारः) . जैनो यो मनुते सदा सहगतं सज्ज्ञानमात्मश्रितं, ___ ज्ञानानन्दमयो यतो जिनमते जीवः समस्तो मतः / यावधेन विनाशितं भवति तत्तस्यावृतेः कारकं, सज्ज्ञानं श्रियतां सदा भविजन ! स्वार्थप्रबोधोद्यतम् // 1 // सूक्ष्मोऽसौ भवचक्रमध्यमुदयन् ज्ञानस्य लेशं दधद् भ्रान्तोऽनादित आवृती अतितरां सर्वत्र चैकेन्द्रियः / (?) यत्कालं व्यवहारवर्जिततनुस्तावच्छरीराल्लघुः, . सज्ज्ञानं० // 2 // आयातः पृथिवीभिदां तनुतरां प्रत्येककायं धर-.-.. श्चैतन्य व्यवहारितामनुगतः प्राप्नोति सञ्ज्ञां पृथग् / प्राक्कालादमितां जघन्यपदिकां वृद्धिं समेतोऽसुमान् , सज्ज्ञानं० // 3 // एवं वृद्धियुतो मतावतितरां वार्वायुतेजोयुते, या प्रत्येके च वनस्पतावनियमाद्वृद्धीतरे धारयन् / स्पांशेन पदार्थरूपमननादेकेन्द्रियत्वान्वितः, सज्ज्ञानं० // 4 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 169 एवं यः क्रमभाजनं भवगणात्कायव्रजाद्वा भवन् , ज्ञानस्यागणितेन भागमुपयन् हायश्च भाव्याश्रयात् / सम्भ्रान्तः स्वकजातितः क्रमधरं ज्ञानस्य पृथ्व्यादिषु, सज्ज्ञानं० // 5 // पुण्येनापमितेन पुष्टिपदवों यावद्भवी सम्पतेत् , तावत्सङ्घटतेऽस्य वृद्धिसहितं जिह्वेन्द्रियेणादिमम् / एवं वृद्धिरपेक्ष्यतेऽक्षनिसृता शक्तेरसूनां गणे, - 'सज्ज्ञानं० / / 6 / / यावन्नश्यति हन्यमानजनुषः प्राणापरोपोद्भवा, सा तावत्प्रमितं वधोद्यतनरः पापं समुद्धावति / नैवात्रास्ति विशिष्टता भवभूतेष्वन्येषु जीवेष्वपि, सज्ज्ञानं० // 7 // साधुभ्यो गुरुभिश्च शोधिकृतये जीवस्य दुःखार्पणे, तत्तद्भेदमनुश्रितैर्लघुबृहत्पापोच्छ्योच्छेदकम् / . . प्रायश्चित्तमनेकधात्ममननैः सामर्थ्यमात्राश्रितं, . सज्ज्ञानं० // 8 // द्विवाद्यक्षसमन्विते भवभृति स्युर्गोचरास्तच्छ्रिताः, स्वादाद्या रवणान्तका निजनिजाऽदृष्टोद्वसात् प्राणिनि / तरमाज्जीवशरीरगा निगदिता चित्रा मुनीनां कृतिः, सज्ज्ञानं० / / 9 / / पञ्चाक्षत्वमधिश्रिता असुभृतो नानागर्ति संश्रिता, - जोत्या तत्र विदा परा सुरभवे ह्यानुत्तरे दैवते (निर्जरे)। त्तिजातिसमुद्भवस्य विलयो ज्ञानस्य दोषावहः, सज्ज्ञानं० // 10 // मनुष्ये व्यवहारमार्गसुगम सङ्केतसाध्यं परं. .. लिप्यादेर्जनितं यदक्षरभवं यच्चान्तरा बोधतः / त्सिर्वं व्यवहारमार्गपतितं विज्ञैः श्रुतं ख्यायते, . सज्ज्ञानं० // 11 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 जैनगीता। * तत्त्वस्थं श्रुतमीयते श्रुतधरैः सर्वज्ञवाक्याश्रय, यत्त्यक्त्वा वचनं समस्तविदुषां नान्या प्रमाणान्विषा / तद्वाक्यैकनिवेदनं श्रुतिमतां सर्वार्थगं नापरं, सज्ज्ञानं० / / 12 / / सर्वज्ञ वचनं सभेतरगतं श्रृण्वन्यशेषाः सुराः, . तेषां नैव परम्परा न च गणी सूत्रालिकर्ता प्रभुः / पारम्पर्यमपीदृशं न च परं सूत्रार्थधाराः क्रमात्, सज्ज्ञानं० // 13 // देवानां न विरागमार्गगमनं योगादिका न क्रिया, मिथ्यात्वे श्रुतकेवलित्वहतिवत् प्रेत्योद्भवं नो तथा / शास्त्रं तेन परम्परा श्रुतगता मानुष्यिकी केवला, सज्ज्ञानं० // 14 // तिर्यञ्चो न यताः परम्परपदे दूरे परात् संयमात् ,, श्वभ्रस्थाननिवासिनश्च नरका न श्रौतमाम्नातिनः / मानुष्या अनिशम्य केवलविदो नाम्नायवित्तास्तके, सज्ज्ञानं० // 15 // न ज्ञानं विरहय्य शासनमिदं श्रौतं समुत्तिष्ठते, . . तीर्थस्यापि जने प्रवृत्तिरनघा श्रौतप्रबोधोद्भवा / श्रौतं चेन्न प्रवर्तते न भवति तज्जैन परं शासनं, सज्ज्ञानं० // 16 // निश्शेषाण्यपि पञ्चधा प्रतिपदं ज्ञानानि गीतानि यत् , तान्याराध्यपदानि दर्शनमुखान्यात्रिपदीवोद्धृतौ / / / तीर्थेशानि पदानि पश्च सुधियामानि तेभ्यो ननु, सज्ज्ञानं० // 17 / / ज्ञानं श्रौतमपोज्झ्य मूकसदृशान्यन्यानि चत्वार्यपि, ज्ञानानीति यदीयते श्रुतधरैस्तत्रानुयोगादृतिः / स्वार्थाभासनरूपता नु निखिला भत्र्याजसूर्यप्रभा, सज्ज्ञानं० // 18 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. जैनगीता। पूज्य विश्वतले विशेषमतिनां द्रव्यं जिनाद्यास्ततः, . ! पश्चाप्येत उदारभावविधयाऽर्च्यन्ते पराः स्वामिनः / युक्ता दर्शनमुख्यशुद्धगुणयुग्-गुण्याश्रयाऽऽराधना, सज्ज्ञानं० / / 19 / / ज्ञानं यद्यपि मोक्षसाधनतयोगीतं श्रुतार्थोदुरैः, यो सामान्येन तथापि न श्रुतमृते मोक्षप्रयाणोद्यतम् / यत्कर्मागमरोधनाशनिपुणं सङ्घस्थितौ साधनं, सज्ज्ञानं० // 20 // बुद्धिर्यद्यपि साधने सहचरी साध्या परं सा श्रुतेः सज्ज्ञानं० // 21 // यावत्तीर्थकरो वदेत् परिषदि प्राग्भारमाश्रितं, ____ ज्ञात्वा निर्मल-केवलेन यतिनां तावच्छ्रतं तत्त्वतः / यज्ज्ञातं न निवेदितं परिषदे तत्केवलं केवलं, सज्ज्ञानं० // 22 // मत्या यान् विविधान् मनोगततमान्वेत्तीह बोद्धा नरो, . नैतान् वक्तुमलं ततो न गदितं सर्वं मतिः केवला / मत्या यच्छूतमुच्यते मतिधनस्तत्साधनापेक्षया, सज्ज्ञानं० // 23 // संस्कारं मतिगं तनोति सुतरं यत्संस्कृता स्यान्मतिः, ... श्रौतेनान्वितमानसा नहि भवन्त्यल्पत्वभाजो मतेः।। अङ्गाद्ये तु भवेच्छूते प्रथमतः शब्दाद्यो बुद्धिगाः, सज्ज्ञानं० // 24 // हातव्यं विदितं शमात्मकतयाऽऽदेयं च शास्त्रात्तथा, कि , श्रुत्वाऽधीयत सर्वमात्मपरगं मोझान्तमापत्फलम् / तेनेदं जिनराजसन्ततिगतं ज्ञानं सदा धार्यते, सज्ज्ञानं० // 25 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 172 . जैनगीता / .. येऽर्थाः सन्ति चराचरे जगति ये तद्वाचका निःस्वना, नैवते पतिताः कुतोऽपि वियदाद्याद्वक्तृवक्त्रोद्गताः / ते सर्वे वरदृष्टिवादमपतन् तत्तद्धरः सर्ववित्, सज्ज्ञानं० // 26 / / दृष्टिश्चेन्न हि साम्यता हृदगता नैवार्थबोधोऽमलः, कि, स्यादित्थं वरदृष्टिवादमननं सम्यग दृशां सत्यभाक् / अक्षातीतपदार्थबोधनपटुः सम्यग-दृगाढ्यो ध्रुवं, सज्ज्ञानं० // 27 // ज्ञानार्थे यदि ते मनो भवति चेदाराधनायोद्धरं, . नित्यं तद्गणगाहिनां गुणवतां भक्त्यादि कार्य कुरु / ध्यानं सत्पदजाप उन्नतिकरोऽभ्यासो नवीनश्रुतेः, सज्ज्ञानं० // 28 // ज्ञानं ज्ञानवतां महाव्रतजुषां भक्त्यादिभिः प्राप्यते, .. ..., यनैषोऽस्ति गुणः परेभ्य उदितो यो दानदेये क्षमः, ... पाठाद्या अपि संगता न मतये चेद् नैत आप्ता नयं सज्ज्ञानं० // 29|| यस्यान्तः प्रकटाः समा नयमिदो वाचश्च नो विधृता स्त्यक्त्वा सद्विनयं सदा सविनया जीतेन यत्तद्वशाः / कायः स्वप्नदशागतोऽपि विनयं नोज्झेत्सुगीतात्मनः, सज्झानं० // 30 // नाप्तुं योग्यपदान्वितो नरपतिर्धिक्कारदूरीकृतो, याचा देवानां न करोति साधनयुतां भक्तिं परां यौगिकीम् / चेत् तज्ज्ञानपदान्वितेपु गुरुषु त्रिधाश्रितो ज्ञानयुक्, स० // 31 // नास्त्यन्योऽपर एतदृद्धिसदृशः प्राप्तर्धिकः सद्गणो, यः सङ्क्रामपदं भजेत् परजने मूलाद्भवेद्वाऽधिकः / चेत्तादृग् गुणसङग्रहो न रुचिदो गन्ता कथं सोऽव्ययं, स० // 32|| P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 173 ज्ञानं देवगति सदोदयवती नीचां गतिं नारकी- / माश्रित्यैव जनुर्मतां श्रुतधरैः ख्यातं त्ववध्यात्मकम् / व्यज्ञानान्तरनुश्रितो वरकृतिं सुस्थां च दुःस्थां धरेत् , स० // 33 // जीवानामुपकारिणीमथ परां कुर्यात् क्रियां सज्जनः, - . . सज्ज्ञानतियादथापि परतो जायेत पुण्यं तथा दुष्कृतम् / वेद्ये द्वे अपि सद्गतावितरथाऽऽवश्यकं तत्र ते, सज्ज्ञानं० // 34 // जीवानामपरापरासु गतिषु प्रोद्यच्छुभाशुभयो, .. / प्रोद्यद्दःखसुखं कृतादमितगं सह्यं तनुनाऽन्यया / / / तद्वा भावि विजानताऽसुधरणं तादृग्भवेच्चेद्विदा, सज्ज्ञानं० // 35 // तुर्य ज्ञानमगारसङ्गमहितं हित्वा धरेत्साधुराड्, . 6. नैतत्केवलविद् द्विधा गृहवतो निर्ग्रन्थिते द्वे सरेत् / - तुर्य नो जनिसम्भवं गुणगणोद्धयेकसाध्यं मतं, सज्ज्ञानं० // 36 // सर्वान् द्रव्यसुसङ्गतान् प्रतिकलं सम्बद्धभावान् समे, ..... क्षेत्रे कालयुतान् स्थिरास्थिरमया वेत्त्यन्त्यबोधोत्तमः / ... नित्यो नास्य परावृतिः स्खलति च शुद्धात्मरूपः सदा, स० // 37 // जैनोऽसौ परमेष्ठिपञ्चकमनास्तूत्पूजनावैभवो, / नित्यं स्तौति च तद्गतान् गुणगणान् ज्ञानादिकान् साधयन् / मण्याराधनतत्परो विरमते तेजस्तदीयं स्मरन् , ___ तद्वत्पूज्यसुपूजको न विरमेज्ज्ञानादिसंराधनात् // 38 // / इति चतुस्त्रिंशोऽध्यायः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 जैनगीता। / पञ्चत्रिंशोऽध्यायः / (सम्यक्त्वाधिकारः) : जैनोऽसौ मनुते सदा जिनपतेराज्ञां सुखानां खनिमाज्ञाप्यन्त उदारकर्मनिधनाः स्वर्गाय मोक्षाय च / ज्ञात्वाऽनादिभवाटनं भवभृतां तच्छेदनाय स्वयं, दध्याच्छुद्धतरं चरित्ररमणं दिष्टं जिनेन्द्रः परम् // 1 // उद्युक्तोऽत्र न चेदतीतदुरितो नाप्नोत्यभव्यः शिवं, तत्पूर्व भवधारिणाघविलये सम्यक्त्वमादीयते / मा तत्र स्तो यतनावतां प्रशमिनां निर्वेदसंवेगको, दध्या० // 2 // मोक्षः सर्वमतेश्वरैरनुमतस्त्यागेन सर्वास्तिकैः, कर्माशापगमाजिने वरमते चारित्रयुक्तेरसौ / यन्नारुद्ध उदित्वरेऽघ उपयात्यन्तं पुरा सन्धितं, दध्या० // 3 // पापेभ्यो भयमादधन्त उदिताः सर्वे जगत्यास्तिकाः, पापानां नहि कारणानि मनसा स्वैः स्वै रूपैर्जानते / / अज्ञानाश्च दयामुखाः प्रतिपदं प्राणिव्रजान् धन्त्यमी, दध्या० // 4 // पापं हेयतमं नृभिः प्रतिदिनं स्वीये सदस्यव्रजे, ... व्याख्यान्तो न च तीथिकाः परिहृतौ तेषां समर्था यतः / जानन्ति न हि ते स्वरूपमथ चाङ्गं साधनाद्यं तथा, दध्या० // 5 // जीवानेव वदन्ति नो परमतान्यास्थाय धाष्टयं परं, पृथ्व्यादीन् प्रथितान् बसेतरविधान् पञ्च स्थिरान् (मौव्यतः)। तन्वादि-प्रविधानदक्षमतिकान् कायान् जगौ षमितान , ध्या० // 6 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। जन्माप्यं तनुवर्धनं सहकृतं लब्ध्वा समेऽमी भुवि, पारा स्वाहारं च सनातनं प्रविदधत्यात्मीयजोतिश्रितम् / सत्यप्येवमनात्मतत्त्वविदुरा नोशन्ति पृथ्व्याद्यसून् , दध्या० // 7 // आत्मानन्त्यमुपेत्य मुक्तिपदवी शश्वन्मता नैव च, .. भव्यानामवसानिता न च जगत्पूर्ण मतं शूकरैः / यत्रास्तित्वमसुव्रजस्य सफले भोगः क्रियाया निजे, दध्या० // 8 // सर्व प्राणभृतः स्वकर्मफलिनो नैवान्यदत्तं हृतं, भुञ्जन्ति प्रभुरीश्वरो न च फले धर्ता विनेता भवेत् / संसारोऽयमनादिको जनिमृतिवातो मतो यत्र तद्, दध्या० // 9 // चेत् कर्तारमुपैति विश्वजनकं दारिद्यदौर्गत्यरुक्- . शोकोत्पत्तिभवानि तानि जनतादुःखान्युपैतीश्वरात् / / तनिष्कारणवैरितामुपगतो यत्राश्रितो नेश्वरो, दध्या० // 10 // सर्वेषां जगतीतले दिनकरो हित्वोपकारेतरौ, निन्दास्तोत्रममानयन्. जनबजे भास्यं प्रभास्ते सदा / तद्वद्यत्र मतो जिनेन्द्र उदितादेयेतरार्थोदिति-दध्या० // 11 // दवालियन भगोशिगाजलेले.. ष्टो नार्चितो न जगतां प्रभुरेष लोकान् / भीत्येति नैव महनीयपदे मतोऽर्हन्, ' दध्या० / / 12 / / स्वर्गापवर्गपदवीं विनयामि तस्य, स्याद्यो न मे चरणपङ्कजषट्पदामः / श्रीमान चेत्स्यात्तथा प्रवितरामि मुदेति नाऽत्र, ... दध्या० // 13 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Taust Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 जैनगीता। आत्माऽनादिभवभ्रमिः स्वकृतभुक् चैतन्यपूर्णो भवेत् , सम्यग्दर्शनबोधवृत्तसुगुणैश्चेदुद्यमी मोक्षणे, दध्या० // 14 // यः संसारवनाम्बुदावलिसमाद्वन्धात्स्वयं निर्गतो, लीनः संयमसाधनेऽघनिचय क्षिप्त्वा वृतः केवलम् / श्रीसचाय समादिशन् मुनिगृहिश्रेयः सदाऽत्रार्हते; दध्या० // 15 // संसाराम्बुधिमग्नचित्तचरितोऽर्थः प्राणिनाशाङ्कितस्तं हित्वा गुरुयोग्यतामधिगतः सोढोपसर्गान् क्षमी / मान्यो यत्र गुरुः सदा शिवपथे पान्धीयति निःस्पृहो, दध्या० / / 16 / / पूज्या यत्र जिनेशिनः शिवपथोदेशात्स्वरूपस्थितेः , सिद्धाः धर्मसमादरा गणिमुखाः सेव्याः सुपात्रस्थितेः / सदृग्बोधचरित्रशुद्धतपसां सङ्घः सुधर्मास्पदे, दध्या० // 17|| आत्मा ज्ञानमुखामितैर्गुणगणैः सिद्धौ युतः स्फातिभाक् , . , तत्तद्रूपविभावनावनमुखो धर्मः स्वरूपे निजे / तैलं स्यात्तिलसञ्चये न रजसि तन्नात्र धर्मोऽपरो, ध्या० // 18 // पापालेः परिवारकं मतमिहोत्कृष्टं तथा वत्तेनं, . . दान्त्वाऽक्षादिगणं तपोऽनशनतो वैराग्यदं भावनम् / नारम्भो न परिग्रहो न विषया धर्माय देहश्रितां, दध्या० / / 19 / / लव्धेऽर्थे क्षयमाश्रितेऽघनिचये न्यायात् पथो लाभतस्तं पात्रावलिसङ्गतं हृदि सदा कर्तुं मनो धारणम् / ..... श्रेयो यत्र न लोभसञ्चयकरे लाभे न जातूच्यते, दध्या० // 20 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 177 कर्माण्यष्टविधानि बोधमुखन्नान्याभिद्य मोक्षं गमी, भव्यो धर्ममुपेत्य शाश्वतममुं बोधात्स्वयं वा गुरोः / याऽवस्था प्रतिमागता शिवश्चितां यत्राहतां सम्मता, दध्या० // 21 // धर्मों यत्र विरोधवर्जनपरो जीवान्तकारिण्यपि, सर्वेषां भविनां सुखैकमननो दुःख्यङ्गिदुःखापनुत् / रागद्वेषविवर्जितात्मनि गतः सत्तत्त्ववेत्तुः सदा, दध्या० // 22 // यत्राश्रिता गुरुपदे क्षितिमुख्यकायान् , जानन्त उत्तमधिया परिरक्षयन्तः / चैत्याश्चयाश्रितजनादिममत्वमुक्ता, दध्या० // 23 // / यत्रास्ति मान्यमनघाईतशास्त्रवाक्यं. . पूर्वापरार्थविषमा नहि यत्र वाणी / सर्वाङ्गिजातहितकृत् परमार्थदेशि, दध्याच्चरिचरमणं जिनदर्शनं साक् // 24 // यत्राऽस्ति कोऽपि जगतां न चधादिपात्रं, शास्या समस्तजनवाऽपविनाशनाय / मोक्षाविरुद्धसरणिं प्रवि सारयित्वा, दध्या० // 25 // ज्ञानं न यत्र विषयाभ्यसनैकरम्यं, नैवात्मवत्परिणतं फलितार्थशून्यम् / हेयादिहानिमुखकृद्विदितात्मतत्त्वं,.. दध्या० // 26 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। दुःखद्विषो जगति दीनदशामुपेता, . .. / देवाङ्गनादिरसलालिततप्तदेहाः / '.: नैवादृताःसुमहनीयपदं मुनीशाः, दध्या० // 27 // धर्मं विदन् प्रविदधद् विरताघवृन्दो, ____ धर्म सदा प्रविदिशन् जिनराडुदीर्णम् / / 5. यंत्रादृतो गुरुजनोऽनघमार्गगामी, दध्या० // 28 // प्राग्धर्मार्जितसत्पदोऽनघपथो रागादिसर्वारिहा, .. . स्याद्वादामृतवर्पको मुनिगणैराप्ताव्ययः शाश्वतः / ___ अर्यः श्रीजिनराट् सदा सुरनरैर्देवो मतः सद्गणैः, द० / / 29 / / / ये धर्म परमं श्रिता जिनपदे बिम्बानि तेषां सदा, कुर्वन्त्यादरसंयुतानि विशदास्तत्स्थापनाढ्याः सदः / ब्राम्ये पञ्चनमस्कृतिः क्षण इहाद्ये संस्मृता पूजनं, पुष्पाद्यैर्जिनराजविम्बविषयं सत्संवरेणाश्चितम् / धर्मस्य श्रवणं न रात्रिरसनं सुप्तिः कृताराधना, दध्या० // 31 / / पूज्यो यो न रमा रमेत विषयैर्नास्त्राणि द्वेषावहान् , * नाज्ञानाज्जपमालिकां न च परे लीनो भवोत्तारके / पूज्यो यत्र गुरुनिराश्रवतनुः सत्संयमे यो दृढः, सोढा स्यादुपसर्गदुःखवितते निर्जित्य तृड्मुख्यगान् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 जैनगीता / धर्मों यत्र समस्तसत्त्वततये मा भीप्रदः सिद्धये, पण्णां जीवनिकायरक्षणकरो युक्तश्च तस्मिन् सदा / ... आचारैरुपदेशनैः फलभरत्तातैस्तदाचारिभि-र्दथ्या० .. // 34 // नो यत्रार्चनमापगावलिगवं नागागवृक्षाश्रितं, तिर्यग्जातिगतं न संमृतिरते देवे कचिन्नाश्रितम् / / कैवल्यान्वितसद्वतिव्रजगतं तत्साध्यते सर्वदा, दध्या० // 35 // तिष्ठेद्यत्र जनः पुराकृतसुकृटुर्नीतिरीतिग्रहो,. .. ... मान्यस्त्वार्यपथानुमोऽघनिचयोजासैकवद्धादरः / ... एष्टव्यं शिवमन्तवाधरहितं ध्येया जिनो देवता, दध्या० // 36 // 'पर्वाण्युत्सवराजयोऽत्र वितता दाने व्रते संयुते, . भावेनोज्झितशात्रवेन तपसि प्राणैकरक्षापरे / / उद्यन्तुं जगवां हिताय शमिनां शुद्धोपदेशः सदा, दध्या० 3637 / / यत्र स्मृताः पृथुगुणा मुनीनां निवासा- . . स्त्रीतियंगादिवियुता रहिताश्च चित्रैः / . . सान्निध्यतोऽपि न परे श्रितमैथुनामा, .. ध्या० / / 38 / / यत्रेप्सितानि न विवाहमुखान्यलीका न्यादीयते तृणमपीह परैः प्रदन्तम् / .. धार्य तु ब्रह्म नवभेदमुदारभावं, .. ध्या० // 39 / / यत्रास्ति नैव निशिभोजनमंशतोऽपि, बाल्यादपीह फलपश्चकवर्जनेन / ... नानन्तकायनिचयोऽशनमेति जातु, . . ध्या० // 40 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 जैनगीता / चैत्ये यत्र विधीयते स्थितिपदं वामे स्त्रियां दक्षिण, पुंसां, नैक परस्परं स्टशिविधिनों वेषवैयत्यतः / पुंसां नर्तनं नैव (नकं न) देवचरणं शुद्धथै निजात्मस्थिते-दध्या० // 4 // मृत्युप्राप्तजनो हिं यत्र निजतो न श्राद्धकामी स्वयं, भोक्ता सश्चितकर्मणो न विहितं प्राप्यं परैरर्पितम् / पार्थक्येन जगन्ति कर्म निजकं भोक्तार इत्युच्यते, दथ्या० // 42 // यत्र श्राद्धगृहेषु नाङ्गणगता कालाम्बुनाली भवे, वर्चस्कस्य न कूपिका न च भवेत् स्थास्नुप्रपीडा गुरुः / न धर्माय नगादिसिञ्चनकृतिनैवानृताशीःप्रथा, दश्या० // 4 // सेवालो नहिं यत्र नैव च पयःपूरव्ययोऽनर्थको, नो पण्ढादिविपोषणीय विहितिनों पञ्जरालिगहे। न न्यायेन विनिर्गता चितिरपि प्रध्वस्तपुण्या कृति-र्दध्या // 44 // स्याद्यत्रास्तिकवेश्मसु प्रमितिमान् पानीययत्नो वृथा, नो हिंसा बनतेजसामतिमिता चेष्य भवेदङ्गिनाम् / त्राणायानुपदं स्थितेतरभिदां भीतिश्च फापाहतेः, दध्या० // 45 // यत्राम्भोगलनानि धान्यतृणगोविट्कोष्ठमुख्याश्रिता, रक्षायै सजीवसन्ततिश्रिते. यत्नोऽन्वहं वीक्ष्यते / / स्थाने स्थान उदीक्ष्यते मृदुगुणा सन्मार्जनीनां ततिः, दध्या० ॥४क्षा चुल्हादिप्रसिते. तु देशदशके चन्द्रोदयैरङ्किते, सत्सामायिकपौषधालययुते दानादिधर्मोद्धरे / वासः स्याद् गृहमेधिनां जिनगुरुप्राप्तागमे सद्गृहे, दध्या० // 47 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 181 घाला अध्यनुवासरं स्तुतिपदान्युद्घोषयन्ति स्फुट, प्रस्फूर्जन्मुखपङ्कजादु चिरसान्यहं द्गुरूणां कृतेः / सर्वाभीप्रदवाग्रताः सुविनीताः सद्वेषसुस्थाः सदा, दध्या० // 48 / सच्छ्रद्धावलीरत्र चैत्यसुगुरुस्थानेषु बद्धादरा, दाने पौषधकर्मणि प्रविततो सामायिकानां कृतौ / अर्हच्छासनमानिनाममितमुन्मानं सदा कुर्वते, दध्या० // 49 / / ग्लानानां प्रतिचारणासु निरताः सर्वे जना निर्भिदं, मत्वा ताः प्रतिपातवर्जिततमाः सद्धर्मसिद्धथै मुदा / यत्रैश्यन्त विचारचारुवनिताश्रेणिप्रभाशोभिताः, दध्या० // 50 // यत्रान्ते सकलाङ्गिवैरवियुतिमैत्री च सर्वासुभिमोदः प्रष्टगुणान्वितेषु सततं सा च हृद् दुःखिषु / हेयादेयविवर्जितेषु सरलोपेक्षा पदार्थेष्वलं, दध्या // 51 / / यत्र स्याद्गहिणां सुतीर्थगमनं सार्धं समैर्धार्मिकैः, पड्रीणां प्रतिपालनेन सुमहत्सद्धार्मिकोद्वत्सलात् / तन्वत् सत् प्रतिधामसद्विधियुतां पूजां सवात्सल्यकां, दध्या० // 52 / / चैत्ये विम्बविधौ निदेशलिपिषु वाचंयमे श्रावके, प्राप्तानां विनियोजनं वितनुते वित्तव्रजानां सुधीः / / यत्राप्तैर्विहितो धृतो मतिवरैर्मुक्त्यर्थमात्तव्रतो, दध्या० // 53 / / ये देशान्तरमाश्रिताः प्रतिदिनं चैत्यार्चनादौ दृढाः, श्राद्धान् यत्र प्रवन्दितानि कथया वन्दापयन्त्युन्मदाः / चैत्यानि प्रतिभासमानसुहृदः सम्मीलने तैः सदा, दध्या० // 54 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. ! Jun Gun Aaradhak Trust Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। ... न्यायाद्यत्र समर्जनं धनगतं शस्तं प्रयोगः पुना, 1 :सत्तीर्थेषु जिनेन्द्रबिम्बसहितेष्वाम्नायते मुक्तये / तस्योद्धारनवीनकार्यविधये ग्रामेऽपि चैत्यादिषु, दध्या० // 55 / / 'स्याद्वादाम्बुधिसम्भवानि पचनान्यर्घापयन्त्यन्वहं, .... रत्नान्युच्चदशषिषु प्रतिपदं यत्रार्हताः सम्मदात् / .. पर्यायैः परिमीलितानि भुवने द्रव्याणि षट् संश्रिता, दध्या० // 56 // जैनः स्याद्विमलेन दर्शनपदेनोढः परार्थे दृढ, नात्मानं भववारिधेः परतटमानेतुमुच्चैर्मनाः / / न्माद्यैर्विविधैरशर्मनिधिभिर्जातां व्यथां व्यर्थयन् , . ध्याच्छ्रेष्ठतमं चरित्ररमणं दृष्टं जिनेन्द्रैः परम् // 57 / / / इति पञ्चत्रिंशोऽध्यायः / / पट्त्रिंशोऽध्यायः / ( चारित्राधिकार) जैनोऽसौ ननु यो दधाति सदये मोक्षैकसौधारुहेइलम्भूष्णु प्रबलावृतिव्रजहतौ निष्णं चरित्रं परम् / सर्वेऽप्येतदवाप्य कर्मविलयं परमेश्वराश्चक्रिरे, आत्मारामपदं भजन्तु भविनश्चारित्रमत्युज्वलम् ... // 1 // कायास्ते पृथिवीमुखाः षडपि मो घात्या मनोवाक्तनु-. सम्भूतैः करणादिभिस्त्रिकृतिभिरात्मोपमास्ते मताः / थावज्जीवमनाहतं व्रतमिदं यत्राश्रयेन्निर्मम, . .. .. आत्मा० / / 2 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / क्रोधालुब्धतया हसेन ,भयतो नो यत्र वाक्यं मृपा, स्याद्वाच्यं निखिलाघहेतुतुलितं संसार उद्धामकम् / सर्वा पापपरिग्रहैकरुचिरा जायेत चेष्टा तत, आत्मा० // 3 // नादत्तं तृणमात्रमर्थमपि चादीयेत यत्राच्छतां, दन्तानां प्रविधातुमाप्तनिकरैरादेयधार्येऽखिले / आत्मार्थाढतनिष्ठितं मतमिह सेव्यं प्रदत्तं शिवं, आत्मा० // 4 // यावज्जीवमनारतं गुरुगुणं धार्य तु ब्रह्मान्वितं, सिद्धाभिर्नरभिः सदा सुवृतिभिर्यज्जीविताभं व्रते / सर्वासंयमसाधनं परिहरेत् स्त्रीसङ्गमत्रोपितः, आत्मा० // 5 // सर्वस्मिन् जगतीतले विदधीतासङ्गत्वभावं त्यजनिःशेषार्थपरिग्रहं स्थित इह कर्माणुभीतो मुनिः / धर्मायापि धरेद्रजोहरणग् निःसङ्ग उक्तोपधि, आत्मा० // 6 // स्वाध्यायादिविघातकं धृतगुरुब्रह्माऽटनं शार्वरं, जन्धि चाशनपानखाद्यसहिते स्वाद्ये निशायां त्यजेत् / रक्षेदात्मनि यत्र सत्त्वविषयां स्फूर्जत्सुधीः सद्दयां, आत्मा० / / 7 / / क्रोध लोभमदान्वितं च निकृति जह्यात् स्थितः सगिरि, / शौचे संयमसंयुते सुतपसि ब्रह्मण्यसङ्गे रतः / पार्षद्यं दशधोदितं धृतवतो धर्मं तु यत्राश्रयेद्, आत्मा० // 8 // पृथ्व्यादिश्रितपञ्चकं त्रिकमपूर्णाक्षाश्रितं पूर्णखं, जीवानां गतचेतनाँश्च यतते प्रेक्षां समुत्प्रेक्षिकाम् / त्यागं चापहृति समीक्ष्य तनुवाचितैः सदाऽत्रोद्यमात्, आ० // 9 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 जैनगीता / सूरौ वाचक सत्तपोऽसहशिशुवाते कुले सद्गणे, सधे साधुमनोज्ञयोरुरु सदाऽऽधीयेत वैयावृतिम् / यत्रत्यः प्रतिपातवर्जिततर्नु स्वात्मश्रियः कामुकैः , आत्मा० // 10 // योषाणां निलये न वासमुचितां वार्ता करोतीह यः,.. सेवेतासनमिन्द्रियाणि दमयेत् कुड्यान्तरो न भवेत् / क्रीडां न स्मरतीद्धमुज्झति रसं शोभा न काये सृजेत, // 11 // यावज्जीवमविश्रमं दधदिह ज्ञानादिरत्नत्रयं, द्वौ भेदौ तपसः स्वषट्कसहितौ क्रोधादिवृन्दोज्झनम् / सप्तत्याव्यमिदं हि चारुचरणं यत्राप्यते सर्वत, आत्मा० / / 12 / / आहारे वसतौ पतद्धृतौ वस्त्रे च शुद्धयर्थितामीर्याद्याः समितीश्च पञ्च दशयुक् ते भावने द्वे कृतौ / .. भिक्षणां प्रतिमाः सदेन्द्रियजयं वखाद्यवेक्षां गुपीः, आत्मा० // 13 // आबाल्यादपि दीक्षणं भवभिदे कर्मानलाम्बूपमं, यावद्दीक्षणकार्ययोग्यमसमं सामर्थ्य मिष्टं तनौ / वर्णानां न भिदा न चाश्रमक्रमोऽन्येष्टोऽत्रधर्मेशिवे, आत्मा० // 14 // नैवाऽत्र क्षितिकर्षणं पशुगणो नैवात्र पाल्यो मतो, व्यापारोऽपि समग्रपापनिलयस्त्याज्यो मतः सर्वथा / आरम्भात् सपरिग्रहाद्विरमणं त्रैधं त्रिधाऽत्राहते, आत्मा० // 15 / / यावत्स्थाम शरीरजं मतिमुखान् शक्तो गुणानेधितुं, निःसङ्गोऽत्र भुवस्तले नवविधं कल्पं समाराधयन् / / धर्मोद्योतपरोऽघसन्ततिभिदे कुर्याद्विहारं मुनिः , आत्मा० // 16 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . जैनगीता / यत्राऽऽहारकृतिः समुज्झितपदा चक्षुर्युगेर्दूषणयंत्रावास उदीरितो मुनिगणान् रक्षाक्षमो ब्रह्मणः / ..." वासो जीर्णमनूतनं न च परैरयं वसीतान्वहं, आत्मा० // 17 // पण्णां जीवनिकायगावच॑सुमतां ज्ञाता स्वरूपं वध, . त्रैधं त्रैधमुदारधीः परिहरेत्तेषां तदोपस्थितेः / स्याद्योग्योऽत्र मुनीश्वरोऽन्त्यजिनपे तीर्थे तथाऽऽरम्भते, आ० // 18 // पर्यायेण युतः समाहितवयाः स्यात् सूत्रलायी मुनिश्छेदानां तु यदा भवेत् परिणतो योग्यः श्रुतानां मतः / आचारस्य प्रकल्पने क्षम इह स्याद्धर्मदेशी मुनिः, आत्मा० / / 19 / / उत्सगैरपवादनैश्च विविधैर्युक्ते श्रुते सार्थके, योऽधीती स गीतार्थतामधिसरेद्योग्यो मुनीन्द्रे पदे / / सङ्घोऽप्येनमधिश्रयेच्छतविधौ मोक्षेकतानोऽत्र द्राक् , आ० // 20 // गार्हस्थ्येऽयमुवास वेषमसकृत्तत्साधुभावे त्यजेद् , ज्ञातेयाँश्च विचित्रसङ्गसहितान् द्रव्यस्य सर्वं व्रजम् / निस्सङ्गः प्रतिबन्धवर्जितमना देशेषु यत्राटति, आत्मा० // 21 // यत्रस्थः प्रतिपादयेज्जनगणान् धर्म विना निश्रिति, तुच्छानां प्रतिपूर्णवैभववतां हिंसादिपापोज्झनात् / दानाद्यैः सहितं सुदर्शनमतियुक् सद्वतं ख्यापयन् , आत्मा० // 22 // यत्राऽऽख्याति जनः सुधर्ममनिशं धर्ता प्रकल्प्यस्य यः, स्थास्नुः संयममार्ग आगमरुचिः सत्त्वोद्धृतौ सोद्यमः / स्याद्योग्योऽयमनुश्रयन्न तु परस्त्वाख्यायको नर्तकः , आत्मा० / / 23 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 जैनगीता / देवं मोहमहाभटोज्झितिपरं सर्वज्ञसर्वक्षिणं, . . . . . . शक्राद्यैः सुरसार्थपैर्नियमतोऽयं पादयुग्मं सदा / .. . यस्याशेषपदार्थहग्वच इह ख्याति स्थितोऽत्रोद्यत, आत्मा० // 24 // सर्वारम्भपरिग्रहाद्विरतहक शास्त्रार्थपाठे रतो, लीनः संयमसाधने परतपा मोक्षार्थचेष्टापरः / . यो भवतीह मुधैकजीवनपरः सोढोपसर्गावलेः (तं ख्याति धर्म स्थितः) आत्मा० // 25 // सम्यग्दर्शनबोधवृत्तकरणैर्मुक्ति वदन्नत्र सनामादिन्यसनानि नीतिमितिभिर्गम्यानि तत्त्वानि च / निर्देशादि-सदादिभिश्च मीलितै रोधाय कर्मावले , आत्मा० // 26 / / एकाक्षादिक्रमान्मता मतिभिदाः श्रौतस्य सार्वोक्तितः, स्थानान्तर्यमुखाश्रिता भिदवधौः ज्ञेयात् पुनर्मानसे / सर्वं द्रव्यमुखं तु बोधति विदान्त्ये ख्याति यत्संश्रितः, आ० // 27 // स्यादात्माश्रितभावपञ्चकमिह जीवावृतीनां क्षयाच्छान्तेर्मिश्रणतो द्वयोरुदयतोऽनादेर्भवान्नामनात् / ख्येयं कायविधानसंयुतमिदं सोपक्रमं जीवितं, आत्मा० // 28 // यद्दानाद्भवतीह कर्मफलतो वेद्यं भवेत्कोटिशः, . . कायो जीवितमीहशेऽनुभवतां श्वश्रेषु देवेषु च / अत्राख्याति चतुष्टयं गतिभृतां निर्विण्णतालब्धये, आत्मा० // 29 // संयोगोऽसुमतां मिथोऽणुविततेोकप्रमाणात्तकद् , धर्माधर्मनभोऽन्वितात् परिमितिभाजोऽणवो नासवः / कालोऽनन्त इतीह षट्कमुदितं द्रव्यस्य याथार्थ्यतः, आत्मा० // 30 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 287 जैनगीता। जीवे कर्म लगत् यदाश्रवततेरात्तं स चाक्षावतैयुक्तैर्योगकषायनैर्विविधतो यत्कर्म वेद्यं भवे / ... मिथ्यात्वेन कषाययोगसहितेनात्रात्मलग्नं मतं, * आत्मा० // 31 // हिंसाद्याः श्रुतवेदिना. प्रतिपदं वाः प्रतिज्ञाविधेः, ........ शेषाणि त्रिदशामुतोऽघनिचयाद्यद्वा ततोऽमी ततः / तद्वन्तः समितादिभूरिगुणिनोऽत्रोक्ता तपःसाधनाः, आत्मा० // 32 // संसारोऽयमनादिकोऽन्तकजराकीणोंऽसुखानां खनिरुच्छेद्यो मतिमदिराप्तुमसमज्ञानादिपूर्णं शिवम् / लोकाग्राश्रितजन्तुषु स्थितिधरं ख्यातीति यत्राश्रितः, आ० // 331 देयं दानमपापकेऽघरहितं धर्मोद्यमे सत्सखा, दुःखिप्राणसुतोषकं गतभयं धृत्वा दयां हृद्ताम् / जीवाद्यर्थविवोधनं च भविना ज्ञानेऽत्र दानं मतं, आत्मा० // 34 // क्रोधो हेय उपेत्य तापप्रव(निपु णो मानोऽन्तकृत् सन्नतेः, . विश्रम्भैकविघातिनी परिहरेन् मायां पदं स्त्रीविदः / / लोभं सर्वविनाशपाटवधरं जह्यादिति ख्यायते (होक्तं सदा), आ० पूर्वं यत् सुकृतं चितं नरभवाद्याप्तिस्ततः सङ्गता, ज्ञात्वा दुःखफलं न किं सफलयेत् सद्दर्शनाद्याहतेः / दौर्लभ्यं पुनरस्य चोल्लकसमं बुद्ध्वोद्यतस्वेह वाक् , आत्मा० // 36 / / नित्योऽयं परिणामवान् वितनुते सङ्गं वियोग सदा, कर्मालेहननादितोऽप्रियभुवोऽन्यस्या विरक्तस्ततः / .. सिद्धयै सन्ति सुदर्शनादिकगुणा मत्वेति सिद्धान् स्मरेः, आ० P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। कर्मालिप्रभवो भवो न विहितो दुःखैकरूपो विभुः / कर्ता नाऽस्य न चापि दुःखसुखयोः स्यातां तु कर्माश्रिते / ते प्रत्येकमिहागिषु प्रयततामित्याह यत्संश्रितः, आत्मा० // 38 // हेयादेयतया भिदाऽर्थनिचये ज्ञानोत्क्रमात् प्राणिना, पादयाऽजीवततेः सदोपकृतिषु पुण्ये च पापे क्रमो / कर्मानुक्रमगो गुणेषु विलयात् पाट याश्रवे सम्मता, प्राप्यत्वेन च संवृतौ बहुगुणोद्दीप्तिक्रमो निर्जरे / बन्धे छेदक्रमो मतोऽचलपदारोहस्यं श्रित्वा गुणान् , मोक्षे धीपदगः क्रमो नवभिदि प्रोत्साहिकास्तद्भिदः / तत्त्वानां मतमाश्रयद्भिर्जिनपस्योच्यन्त आप्तुं शिवं, // 39 // 40 // यामेऽन्त्ये निश उच्यतेऽत्र विलयः सुप्त्याः स्मृतेरहतां, स्वाध्यायं चरमांश आवसनतामर्कोदये लेखनाम् / पादोने प्रहरे तु भाण्डलिखनं सूत्रार्थपाठो द्वयो, भिक्षा बाह्यगतिद्वयं तु तृतीये लेखां सशय्यांशुके / पात्रेऽन्त्ये प्रहरे तु दैनिकगतां कुर्यात् षडावश्यकी, व्युत्सृज्याखिलपापसन्ततिमथ स्वप्याद् द्वयोर्यामयोः / शेषे धर्मसिते तु मोक्षगमके ध्याने च काले हृदि, // 41 // 42 / / यत्रोज्झितानि मुनिभिः सकलानि कर्मा. ण्याप्तं पदं त्वविकलं परमात्मरूपम् / लान्येव वन्दितुमनाश्चरतीह साधुः, .. श्रेष्ठं तदेव चरणं भविकाः श्रयध्वे. // 43 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / तीर्थ सिद्धगिरि स रैवतमथो सम्मेतमष्टापदं, चम्पां पुरीमपापिकां गिरिमथो वैभारमप्यर्बुदम् / / सारङ्ग विविधातिशायि जिनपोपेतानि सेवेऽत्र स्राक्, आ० // 44 // , मोक्षस्याप्तिरुदाररूपधरणे सद्दर्शनान्निश्चये, .. . तद्धेतु प्रतिबन्धकार्यमननं ज्ञानात्सुधासोदरात् / . . चारित्रं त्विह कर्मबन्धविलये नव्याग्रहेणान्विते, आत्मा० // 45 / / ये ये बन्धनहेतवो भवभूतां कायाहृतिप्रायिकास्ताँस्तान् व्युत्सृजतीह प्रेत्यगमने स्यादन्यथा बन्धनम् / .. प्रेत्यापीति विवेकरत्नमसमं ध्यायेत्सुधीरत्रगः, आत्मा० // 46 / / प्राणान्तेऽप्यनघां दधीत मुनिराट् संलेखनासंयुतां, देवादीन् प्रतिभून् विधाय सहने स्थिरः समाराधनाम् / नानादित्रिकगोचरां विधिपरः शल्यानि हत्वा सुधीः (ऽत्र बुध् ) आत्मा० // 47 // आम्नातं फलमत्र धर्मकरणेः स्वर्गापवर्गद्वयं, गर्ताशूकरसम्मिता अपि जडोद्भते सुखे सादराः / / / गौणीकृत्य ततोऽग्रिमं परफलं वाञ्छेत् सदाऽत्रोद्यतः, आ० / / 48 / / देवे धर्मयुते गुरौ च न यथा रागोऽघबन्धक्षमः , सम्यक्त्वादिगुणावले विमलताऽस्मादेव वस्तुस्थितः / तद्वन्मोक्षपदेऽभिलाष उदितो वैराग्यसहृद्धरः, आत्मा० // 49 / / / अय॑न्ते सुधियाऽत्र ये परिकरा अर्थादयो यत्नत - स्तेऽवश्यं मरणान्तमाष्य वियुजि गन्तार आप्या न ते / फर्मक्केशवियोगतो निजगुणा आप्ताः शिवे स्थायिनः , आ० // 50 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / / नष्टो नैव समुन्मिलत्यपि परो वाह्योऽर्थ आत्मार्जितो, नष्टोप्येति पुनस्त्वपार्वभवतोऽवश्यं दृगादिर्गुणः / . काष्ठां चैष हि याति शुद्धिपरमां तत्तत्र कार्या स्थितिः , आ० // 51 / / ज्ञानादित्रितयं मतं नियमतो यद्भावलिङ्ग मुनेद्रव्येणापि रजोहरं मुखपटीपात्रं सचोलांशुकम् / लिङ्गं स्वान्यदुरापधर्मजननं धार्य. सदाऽत्रोदितं, आत्मा० // 52 / / चारित्रस्य भवन्ति जन्मनि परोलक्षाः समाकृष्टयो, वेषेणास्य चरित्रचारुमतिता * तावत्प्रमाणा भवेत् / वेषेणैव वन्द्यतामनुगतश्चक्रीह शक्रादिभिः, आत्मा० // 53 // उत्सर्गेण हि कोऽपि न प्रतिकृतिं कुर्याद्गदानां मुनिश्वेन्नो तिष्ठति धर्मशुक्लमननं कुर्याद् द्वितीये पदे / शोधिर्दोषततेः पुनर्न गृहिता ध्यानं शुभं चोद्भवेत् , आत्मा० // 54 // अश्वे हस्तिनि गोबजे जनगणो भूपार्थमाभूषणान्यारोहेन च तत्र ममता काचित्. पशूनां भवेत् / तद्वत्संयमसाधनाय. यतिनां मुक्तोपधौ मुक्तता, आत्मा० / / 55 / / यावल्लाभमधारयन्नपवरः स्तेनं महालोप्त्रिणं, सन्मानेन ददन्तमर्थमतुलं. छेदेऽस्य शूलीकृतः / तद्वज्ज्ञानगुणादिलाभमनुयन् धर्ता परस्योत्तमः, आत्मा० // 56 / / चारित्रं न परत्र गच्छति समं जीवेन बोधादिव- , * द्वज्रादेरिव बालकाल उदियात्संस्कार एतद्भवः / अत्रैतद्रतचेतसां न च पुनः प्राक् तद्ब्रजेत्पाल्यतां, आत्मा० // 54 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता / देवा दीर्घभवा भवन्ति चरणादेशव्रतानां भवात् ,... तत्प्राचुर्यमयस्य तस्य निपुणं बही च संसारिता / . . . . . जन्तो व्यनुगः प्रयत्ननिकरः साम्यं तु प्राण्यर्जितं, // 58 / / संसारे तृणसाधिते मुनिवरः कल्याणकोटी श्रयेद्, . यां तां नैव सुरेन्द्रसार्थनिचयो गच्छेन्निषण्णोऽनघे / राधावेधसमं मुनेर्भव इह स्यादन्तिमाराधनं, प्राचुर्य यतिनां तु वेदवसवः शुश्रूपकाः साधवः / ...... न स्यात्तत् त्रयमन्तरा मतिमतां योग्यं सदेहागमाद्, * आ० / / 6 / / आयुष्कस्य विभाव्य नाशमखिलं कुर्यात् समाराधनं, .. सूरीन्द्रान् प्रणिपत्य सर्वनियमानादत्त. उद्वारकान् / साक्षीकृत्य जिनादीकान् पुनरपि प्रोत्साहयेत् सव्रते, आ० // 61 / / गच्छस्थान् सकलान् क्षमेत सशिशून् आवृद्धसाधूनिधा, जातं यज्जनुषाऽऽगमवचोऽनाहत्य चीण तकत् / आचार्यान्वितवाचकान् समवृषान् शिष्यादिकान् सन्मना, // 62 / / जैनेऽनाखिलसङ्घगच्छकुलगानाऽऽबालवृद्धान् मुनी- .. ना जन्मावधि यत्कृतं तनुवचश्चित्तैरनिष्टं वृषे / .. क्षाम्येद्यन्न भवान्तरे घृपमनो न स्यात् पुनदुर्लभं, आत्मा० // 63 // जीवा ये भवजालमत्स्यसदृशाः सद्धर्मलाभोज्झिता-.. स्तान् क्षाम्येत् स्पृहयेच्च यन्न दुरितं 'बध्नीयुराश्रित्य माम् / आयत्यां न भवे भवेत् परिगता वैरस्य बुद्धिर्यथा (तः), आ० // 64 / / P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। जीवानां भवतीह पूर्वभवगो द्वेषोऽपि रागोऽपि च, ... प्रत्यक्षं तु विना स्मृतिं गतभवद्वेषादिहेतूद्भवाम् / , तद्वद्वैरपरम्परां विबुध्य मतिमान् सर्वेषु कुर्यात् क्षमां, आ० // 65 / / नीतो देवेन युग्मी सुरभवनसमात् क्षेत्रतो वैरहेतोः, श्वभ्राप्तेर्योग्यमायुस्तनुमुखलघुतां प्राप्य धामेति मत्वा / स्थाप्यं केनापि नेदं मनुत इह भवी क्षामणं तद्विधत्ते, आ० // 66 / / लब्धेऽपि प्रभुताधरे जिनपतेर्जन्मन्यशेषाङ्गिनां, मुक्त्यर्थं न तु वैरमाप चलनं दैत्यस्य गोपस्य च / पार्श्वस्यान्त्यजिनेश्वरस्य मतिमान् ज्ञात्वेति वैरं त्यजे-दात्मा० // 67|| पापानां परिहारमेव कुरुतां सर्वं जगन्मा च भू- हःखानां भवनं पदं तु लभतां नित्यं महानन्ददम् / युज्यतेदृशचिन्तया न विदुषां वैरं ततस्तत्त्यजे- दात्मा० // 68 / / सर्वाङ्गिष्वविशेषतः सुखमतिश्चेद्धारणीयाऽन्वहं, पीयूषोपमिता तदा कथममी वैरस्य पात्रं विदाम् / सञ्चित्येति विषोपमामरिमतिं जह्यात् समेष्वगिषु, आत्मा० / / 69 / / यत्रेक्षेत गुणांशमात्महितदं नम्रो भवेत्तत्र नातच्चेन्मोदपदं सुधी हितकरं द्वेषेण किं दह्यते / मत्वेतीह सदा भवेद्गणपदे वैरस्य नाशे यतः, आत्मा० // 70 / / जीवाः सर्वभिदान्विता निजनिजाऽदृष्टेरिताः संसृतौ, चित्रां योगसमुद्भवां विरचयन्त्यात्माश्रितां चेष्टिताम् / केषाबिद्भवितव्यता न सुभगा किं तत्र वैरेण भोः, आत्मा० // 71 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। - 193 पृथ्व्याद्या विविधा दशाभिहननादीनां पदानां वशं; . . . नीता येऽत्र जनौ पुरा भवगतेनाज्ञाननिश्राभृता / .... वेधं त्रैधममुण्य पापसदनस्याऽस्तु व्ययो दुष्कृते, आत्मा० // 72 // लोभाद्धास्ययुताद्भयाच्च यदवग् मिथ्या क्रुधा संयुतस्तन्मे सर्वभवोदधिं परिगतो भूयाद्वथा दुष्कृतम् / द्रव्येणेदमलोकलोकविपयं कालाध्वभावेषु च, आत्मा० // 73 // ग्राह्यं धार्यमदत्तमात्तममति श्रित्वा मया यद्भवेत् , तत्सर्वं विदधामि दुष्कृतपदं मिथ्या शुभेनात्मना / प्राणा यद् बहिरर्थजातमसुषु प्राणप्रदोऽर्थप्रदः, आत्मा० 174 // तैरश्चं सुरजं च मर्त्यजनुषो यत्सम्भवेन्मैथुनं, यत्तत्साधितमल्पितात्ममतिना कामान्धताधारिणा / तत्सर्वं परिहार्यतापदमद आत्मार्थतः प्रापये- दात्मा० // 5 // दुःखाना खनिरेष यो बहुविधः सङ्गो धनादिग्रहे, नातोऽन्यजगतीह जन्तुविषयं दृश्येत सहग्भयम् / तत्सर्वं परित्यज्यतापदमयेत् सङ्गो वृषाङ्कश्रितां, आत्मा० // 76 / / , संसारस्य मतो महान् परिकरः क्रोधो यतस्तद्वशाजन्तु व हिताहितं विमनुते दग्धः क्रुदग्निं श्रितः / जीवे तापकरं त्यजामि तमहं श्रित्वा सदाराधनां, आत्मा० // 77 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 जैनगोता / वर्गस्य त्रितयस्य यः प्रतिपदं घातं विधत्ते मद, .. आचार्यादिगतं भनक्ति विनयं बालान् समुत्साहयन् / तं सर्वं विनयामि सत्पथगतः शृङ्गाष्टकैः सङ्गतं, आत्मा० // 78 // माया नागीव. नित्यं परदररमणा जीवितान्तं करोति, ... चारित्रं पालयन्तो मुनिवरवृषभा भ्रंशमायान्त्यमुष्याः / . . मल्ल्याद्यास्तत्त्यजेत् तां मुनिवृषभ इतो मार्गमार्येशहब्धं, 179 / / लोभः सर्वगुणोज्झितः स्थितपदं यो याति सूक्ष्माञ्चितं, यावत्सद्गृणधारण मतिमतां दुश्छेदभूमि गतः / ...." तं सर्वं परिहृत्य संयमवतां मार्गेऽधुना संस्थितः , आत्मा० // 8 // रागः प्राणभृतां स्वरूपरमणप्राणापहारे पटुर्यद्दष्टो गणयेद् विपर्ययमतिर्बाह्य पदार्थ निजम् / ... . मायां लोभयुतां विशेच्च तनुमाँस्त्यागस्य धामैप तद्, आ० [[81 / / इष्टं हन्तुमुपस्थितं स्वहृदये दृष्ट्वा समुद्भावयेत् , प्राणी द्वेषमनादृतः स्वरमणे वैरानुबन्धप्रदम् / रूपं क्रोधमदात्मकं प्रकटयन्त्यन्तस्ततस्त्यज्यता, आत्मा० 182 / / रागद्वेषवशाकुलाः प्रतिकलं मन्जन्ति बोधादिकं, .. हित्वा सोध्यमनर्थकारिकलहे सर्वस्वनाशे रताः / तन्नैकक्षणमस्य दातुमुचितः स्वस्मिन् प्रवेशो बुधैः, आत्मा० // 8 // रागाद्याक्तमनाः सदा . प्रयतते श्रेष्ठे मते सद्गणैः, सत्यान्यैः परिपातितुं गुणपदाद् दोषैर्जनानां पुरः / अभ्याख्यानमुदीरयेत् कटुफलं तत्सर्वदाऽदस्त्यजेत्, आत्मा० // 84|| P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीता। 195 यः शक्तो न हि शुद्धमार्गगमनेऽन्यान् पतियालुस्ततः, , प्रीतिं सन्नरगोचरां विलयति प्रोच्यानृतं यद्रुचम् / तत्पैशून्यमिदं सतामघपदं त्याज्यं सदात्मैषिणा, आत्मा० // 85 / / हर्ष शोकयुतं समैति कुमतिरर्थेषु जीवेतरेध्वज्ञानान्धतया स्वरूपरमणं विस्मृत्य भोगानुगः / कर्मानुक्षणमेष आत्मनियतं पश्येत्तदेतौ त्यजे- दात्मा० // 86 // धर्मार्थ न यतेत यो निजगुणभ्रंशात् परास्यैकदृक् , सोऽन्येषां वदतीह दूषणपदं सत्यं तथा वाऽन्यथा / तद्वज्यं परिवादनं घरगतं सद्भिः सदा निन्दितं, आत्मा० // 87 // प्रायेणोच्यत आदरेण वितथं मुग्धान् परान् वञ्चितुं, . तत्सत्याभमुदीरयन्ति मनुजा मायां प्रयुज्याग्रतः / . विश्वस्ताङ्गिविनाशने पटुतरं मायामृषा तत्त्यजे- दात्मा० // 48 // श्रद्धत्ते ननु पापधामविततिं हेयाच्च सच्चेतसा, यः स्यादूर्जितमानसो जिनवचःपीयूषपाने रतः / मिथ्याशल्यविनाकृतस्तत इदं व्युत्सर्जनीयं बुधैः, आत्मा० // 8 // पापस्थानविरक्तचित्तलतिको भूयाच्छिवाध्याश्रितो, हत्वा दुर्गतिकारणानि मतिमान् सद्धयानसिद्धिं श्रयेत् / रक्तोऽनादिभवेषु तत्र न हि तत्त्यागं विना श्रेयसी, आत्मा० // 9 // यत्राऽऽत्मा नितरामुपैति मननं न ह्यस्ति मे किञ्चन, ... नैवान्यस्य जनस्य संयुतिकरोऽहं किन्तु भिन्नः स्वयम् / . आत्मानं निजमेकमेव मनुते शश्वच्चिदानन्दिनं,, आत्मा० // 91 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 जैनगीता। संसारे भ्रमता कृता बहुविधाः संयोगसार्थाः परं, प्राप्ता दुःखपरम्परा प्रतिभवं जीवेन कर्मार्जनात् / ज्ञानाढयं निजमेक्ष्य जीवमधुना सवा त्यजामि त्रिधा, आ० // 9 // संयुक्तं भववारिधावसुमतां जातं न कैर्वस्तुभिस्तत्सर्वं स्थितमेवमेव न पदं जीवानुगं प्रेत्य हा ! तन्मे शाश्वतरूपमेक्ष्य रुचितं ज्ञानादिरूपं शुभ-. मात्मा० // 93 // ये केचिनिजकर्मपाशपतिता भ्राम्यन्ति लोकेऽसवस्ते सर्वे क्षमयन्तु मेऽमतिकृतं निःशेषमागःपथि / स्थित्वाऽहं क्षमयामि वैरमधुना त्रिध्यं त्रिधा यत्रगः, आ० // 14 // प्राम्जन्मार्जितपुण्यभारसहितं भुञ्जन् जिनावं त्वयं, गर्भ जन्मनि दीक्षणेऽन्त्यवि दि च प्राप्तौ शिवस्यालिले।... विश्वे सातमुदीरयन् शिवषथोद्देश्यत्र मेऽस्तु प्रभुः, आत्मा० // 95 / / यैरष्टादशदोषसन्ततिरलं प्रोद्वेष्टिताऽऽत्माश्रयात् , . . प्राप्त केवलमुज्ज्वलं सुरपतिवातेन पूज्याः सदा / मोक्षान्ता कथितार्थशुद्धविभूतिः सङ्घाय तैर्नाथता, आ० // 960 कृत्वाऽनादित आत्मनि श्रितमिह कर्मेन्धनं भस्मसादासाद्याव्ययबोधसौख्यबलदां शक्तिं स्वरूपात्मिकाम् / सिद्धास्ते जगदुत्तमाः शरणदा माङ्गल्यकाराः सदा, आत्मा० // 97 // सोपाध्यायमुनीश्वरा गणिवरा मोक्षार्थमाप्तुं यताः, .. साहाय्यं भविवित्त (चीर्ण) धर्मविधिषु प्रत्यक्षमाविभ्रते / श्रेष्ठत्वं शरणं च मङ्गलविधिं चाहन्ति तेभ्यो नमः , आत्मा० // 9850 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगीता। 197 धर्मों यो जिनदेशितोऽव्ययपदं नेतुं जनान् यः क्षमो, : यश्चामीकरवत् कपेण सहितश्छित्तापयुक्तः पुनः / जन्तूनां हितदेशको भवतु सोत्तंसोऽवनो मङ्गल- मात्मा० // 99 / / धन्योऽहं भववाधियानतुलितं लब्धं मया शासनं, जैनं स्यात्पदसंयुतां गिरमुशत् सर्वासुमत्तारकम् / निष्पक्षं समनीतिवादकलितं यत्रास्थया स्याच्छिव-मात्मा० // 100 / / धन्यास्ते मुनयः समेत्य जिनपस्येदं वरं शासनं, प्राणान्तोपनिपातनेऽपि न जहुः श्रेणेरुपद्राविणाम् / मुक्ताः कर्मविनाशनात् प्रकटिताऽतुल्येन वीर्येण ये, आ० // 101 / / शीर्षे खादिरवह्निदाहमसहत् श्रीनेमिशिष्यो गजो, बालोऽबालपराक्रमः श्वशुरतः प्रेतालये संस्थितः / निर्वाणं जिनराजसाधितमगात् क्रोधाग्निदावाम्बुद, आ० // 102 // धन्यास्ते मुनयो नमामि चरणाम्भोजेपु तेषां सदैकोना पञ्चशती सुयन्त्रपीडिता ये सिद्धिमापुः स्थिराः / सत्यं ये विविदुर्भिदामतिशयादात्माऽङ्गयोराऽऽशिव-मात्मा // 103 / / धन्यो येन समाहितात्मविधिना कृत्वा क्षयं घातिनां, .. लब्ध्वा केवलसंविदा दिविभूति हत्वा समुद्घाततः / श्रणेश्वेतरदुष्कृतावलिमिता सिद्धिः शिवा शाश्वती, आ० // 104 // अन्त्ये योगनिरोधमाप्य विजहुर्य बन्धनं कर्मणः, की श्रेण्या प्राग्रचितं स्वकर्म निचयं देहुः सितध्यानतः / मुक्त्वौदारिकमुख्यकायत्रितयी सङ्घातहीनां गताः, आ० // 105 / / P.P. Ac. Gunratnasuri Mum. Gun Aaradhak Trust Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 जैनगीता। गच्छन्तः शिवमार्गमेत , उचिताकाशप्रदेशान् विना, . .. नान्याकाशगदेशसंश्रयमगुर्यद्वाऽस्पृशन्तीं गतिम् / ... आश्रित्याऽगुरबाधशाश्वतसुखं सिद्धान् सदा तान्नम, (सिद्धेभ्य एभ्यो नमः,) आत्मा० // 106 / / येषामूर्ध्वमलोकघातिततमाऽस्थाद् पूर्वयोगाद्गतिः, का . कर्मासञ्जनभेदतोऽघजनिता वन्धच्छिदो वाऽऽत्मनः / ..... स्वाभाव्याच्छरमुख्यवस्तुनिवहे यद्वत् सदेभ्यो नमः , आ० // 107 / / गर्भो जन्मजराऽऽधिरोगनिचया नैषां भवेयुः पुरो, .. : निर्बाधं 'क्षतकालमानमपरावृत्तं शिवं शाश्वतम् / .. धामाप्येत जिनोदितात् स्वरमणाच्चारित्रतो मार्गगैरात्मारामपदं स्मरामि नितरां चारित्रमत्युज्ज्वलम् // 108 // मालां चारित्रगुम्फा भविजनततये धारणायात्मशीर्ष, . ग्रन्थित्वैनां ददामि प्रतिपदसुभगां लब्धुमग्यामवस्थाम् / . तेनावाप्नोमि शश्वत्सुखमयपरमानन्दधामेति याञ्चा,....... देवानां सद्गुरूणां सुविहितयतिनां सत्फलाऽस्तु प्रसादात् // 109 / / पूज्याराध्यपदानां नवकं जीवादीनां नवतत्त्व्याऽनु / ... पञ्चकमत्र महाव्रतनद्धं चैत्यादीनि च सन्ति तु सप्त // 110 / / देवः साधुर्धमों रत्नान्याप्तुं ज्ञानं हक्चारित्रे / .. इत्येषा गीता जैनीया षड्त्रिंशदध्यायसमेता // 111 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , // श्री आगम-महिमा // 1 आर्हन्त्यं शुभसाधनैरभिमतं कर्माऽपि बन्धे हितं, यच्च त्वं त्रितयं भवस्य भवनैर्गुण्यं विदन् शिष्टवान् / तन्नूनं महतां परार्थपरता सत्या परं सत्कला ऽसावाप्यामलकेवलं यदि भणेच्छ्रेणि सदाप्तागमीम् // 1 // प्राप्याऽशेषजगद्विलोकनपरं ज्ञानं निहत्याऽशुभा- या ऽदृष्टश्रेणिमपारसारवलयुक्श्रेण्या क्षपण्या प्रभुः / ... .. देवेन्द्रावलिसंहृतामतितरां--पूजामधिष्ठाय च, . .. कुर्वन्नागमसन्ततिं सफलताभाग् नान्यथा हि प्रभुः // 2 // पूजाप्रौढो जिनेशो न नमति निखिलाभीष्टसिद्धया कृतार्थो, देवालिप्राभृतं सत् सुकृततरुफलं सेवयन् कञ्चिदन्यम् / .. धन्यं तूदामधर्मा नमति मुनिगणं द्योतयन् स्वं कृतज्ञ, :.... यन्मेऽदः सन्जिनत्वं मुनिगणपधृतादागमादेव जातम् // 3 // सुरविसरसंस्तृतं मुनिमधुपमालितं सफलशरणदायिनं, नमत नम्रमौलयोऽधिकृतसत्फलोर्मयः सदागमालिदर्शिनम् / फलं जिनेन्द्रपादपे वरे गताधिसंतपे सदागमोपदेशनं, तदेव तीर्थमुद्दिशन भवालिमोक्षमादिशन् सदा सुकृतसारको जिनेश एव नापरः // 4 // मज शास्त्रालि भज शास्त्रालिं शास्त्रालिं. भज' शुद्धमते.! , जनपतिगदितां गणपतिविततां मुनिजनमान्यतरां विमलाम् / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 आगममहिमा नरभवनिकरोऽसमफलविसरो भावितभावो गतदौःस्थ्यो, नम्रशिरस्को विगतरजस्को भवति नरस्तद्भजनमनाः चलति जिनेशः सुरपतिविततादासनात् सिंहयुक्तात्, // 5 // गणधररचिते विविधनययुते शास्त्रवृन्दे विधातुं, तीर्थानुज्ञां पूजाऽक्षुण्णां दर्शयन्नागमोक्ताम् / / (प्रोत्थायाऽर्हन् विनयमनुदधदासनात् सन्दधानः ) // 6 // सुरेशा नरेशा जिनेशा न सर्व, सुसर्वज्ञतालाभमिहार्चयन्ति / अनुज्ञां परं कर्तुमिहागमानां, सदैवाद्रियन्ते गणेशितृपूजाम् // 7 // देवो गुरुर्धर्म इति त्रयं जने, भवाम्बुधेनिस्तरणाय योग्यम् / तदेव चेदागमवानिरस्तं प्रतिक्षणं संमृतिवृद्धिकारि ... // 8 // पूजा जिनानां शमिनां सपर्या, धर्मस्य वृत्ति विनां शिवाय / सा चेद् भवेदागमवाण्यपेक्षा, नो चेद् भवानां परिवृद्धिकीं // 9 / / एतदेव दुष्षमास्खलायितं, कर्म वा पचेलिमं भवद्विषाम् / दक्षिणार्धसम्भवो यदेष ते, क्रियते सुकृतमागमादरः // 10 // . पूजा जिनेश ! भवतो भविना कृता सा, सम्यग् (सेवा) भवोदधितरिर्भवतीह जन्तोः / सामायिकादिसुकृताचरणं (महाफलं) शिवाय, चेदागमोक्तिपरमान्तरमाप्यतेऽत्र // 11 / / साम्राज्यं जिनशासनस्य न भवेदभ्यर्चनादर्हतां ... सूरीणां सततं महादरकृतेर्नो नैव चाहन्मते / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावकलं, आगमोद्धारककृतिसन्दोहे 201 प्रोद्भावप्रभवैककार्यकरणात् किन्तूदयादार्हताद्, . या - वक्तुः श्रोतृगणस्य चागमगतात् सद्बुद्धिरुच्योयुगात् // 12 // . मोघं त्वद्भजनं जिनेश ! यमिनां संसेवनं सादरं, तीर्थोत्सर्पणहेतुधर्मललनं जाग्रज्जगद्भासनम् / / किन्त्वेतत् सकलं भवेत्फलयुतं चेदागमानां तव, पूजालेखन-सक्रियं यदि भवेत् पुंसां जनुर्दुर्लभम् ." // 13 // कथं ज्ञेयं वृत्तं तव सुचरितं दोषविकलं, कथं स्थाप्या मूर्तिस्तव जिन ! गताङ्का शमरसा / / कथं ते मोक्षाध्वप्रगुणगणोदाममुदितं, न चेदेषा शुद्धा भवति भुवने ह्यागमततिः / // 14 // हास्याधायि जने घने मम विभो ! मौग्ध्यं परं दृश्यतामात्तो. यच्चिरकल्पकालजनितो निष्पत्तये शर्मणाम् / / त्यक्त्वाऽध्यक्षसुखार्पकान् सुनियतान् ज्ञातेवतीर्थ्यान् श्रितान् , चेत्ते नागमसन्ततिः प्रभवति प्रोद्दाममोक्षाध्वने // 15 // अध्यक्षमेतद्विदुषां प्रघोष्यते, यद् ग्राह्यतामेति समक्षमूहितम् / मृतं चिरातीततरं समाश्रयस्त्वां किं ब्रवीमि जिनपागममान 1 . वन्ध्यितः (वञ्चितः ) // 16 // न्यायः सार्वजनीन एष विदितो यद्वीक्षिते बालके, नश्यत्यौदरिके रुचिमतिमतां जाड्यस्य जातादरा / तकि सार्व ! मया जगत् सुविदितं सौख्याकरं सूज्झितं, हा! ते ह्यागमसन्ततिनं च मता पापात्मनाऽधीमता // 17 / / P.P. Ac. Gunratnasuri Mum. Gun Aaradhak Trust Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 आगममहिमा नरा जगत्यां किल साम्प्रतक्षिणो, धरन्ति सज्ञां खलु दीर्घकालिकीम् / साफल्यमस्या विदधाति विद्वाँस्त्वदागमोबुद्धभविष्यदर्थः // 18 // कथं लक्ष्यो देवः प्रशमरसरतोऽबाध्यशिवगः , कथं सूरिः श्रेयःसरलतरमोक्षाध्वधृतये / कथं यम्या यामा भवजनिमृतेर्दुःखहतये, 1511 न चेत्ते साक्षात् स्यानिरुपमकृतिांगमगता. // 19 // तीर्थं तीर्थं जिनानां न तु जिनपतयः किं न दुष्टोक्तिरेपा, मान्या सा सर्वमान्यैः स्यरमुदितचरी श्रद्धयाऽप्यागमानाम् / सत्यं सौरः प्रकाशः प्रभवति जनता ज्योतिपेनैव सूर्यो, नैषा सूर्यस्य हानिः स्वप्रभवसुषमया तद्वदाप्ते स्वतीर्थात् // 20 // सुविदितं खलु सज्जनसन्तते-र्यदधमं परदोपविकत्थनम् / तदपि दृष्टिचरं नहि चेद् भवेत् , भवति सत्पददाऽऽगमसन्ततिः // 21 // न्यायो यदेष जिन ! मानभरः स्वबोधे, __ यत्तेन बाधितमरं स्वहिताय जह्यात् / नाथाऽऽगमावलिरसाञ्चितचित्तभारो, लिङ्घय मोक्षपदलीनमनास्त्वहं तम् // 22 // / 'मत्तो जनो न जगतीह समीक्ष्यकारी, यत्सोऽधिगच्छति पदार्थमपेतमानम् / सार्वागमोक्तिरसपानविमुखचेता, * वेत्ता जगत्त्रयमिति प्रबलं न मानम् ? // 23 // . जगति जीवनजातमहो ! मतं, प्रतिक्षणं विशरारु रुगर्दितम् / .. तव जिनागमसश्चितसंयमैः, प्रतिकलं पदमाप्यत उत्तमम् // 24 // मात P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे 203 जिन ! त्वदागमा मया विलोकिता न सौख्यदा, यतो भवा अतीतभाविदुःखभावसंभृताः / . प्रदर्शितास्तकैः पुनर्मुदास्पदं तके यतो, विचूर्ण्य तान् पदं लभन्त आव्ययं ससाधनाः // 25 // मत्तो जनोऽयं जिनराट् ! सदागम-पानकपीनो न बहिर्न चान्तः।। जानन् हि तत्त्वं मनुते यदाप्त-त्रिकालतत्त्वो नहि साम्प्रतेक्षी / / 26 / / जिनागमानां महिमोद्भवाय, त्वया श्रिता या त्वमरैस्त्वदर्थम् / सत्प्रातिहाथैः खचिता सुपूजा, गताघभावो जिनराट् तथापि // 27 // मता गणेशा जिनराट् तवामी, सार्वश्यभावान्वितसन्मुनीन् यत् / विलय तिष्ठन्ति पुरस्तवेदं, रक्षाकरं वागमजं परं बलम् // 28 // वितन्वते मजुलमङ्गलावलिं, सदा जिनाद्या जगतीह दीपाः / परं नमस्कारकृतेस्तदादौ, नमो भणन्तीह सदागमज्ञाः // 29 / / नाहन्त्यं महिमास्पदं तव जिन ! श्रित्वाऽऽमरीमहणां, . नैवाऽनन्यसमां श्रियं श्रयसि सन्नाकिद्रुमाझुद्भवाम् / . * नैवानङ्कगणेन्द्रराजिरचनालन्धप्रतिष्ठोद्भवं, किन्त्वेषाऽऽगमसन्ततिर्गतमला साक्षाद् वुधानां कृता // 30 // महत् खलु प्राप्तमिदं यशोऽभिधं, त्वया जिनेन्द्रोदितसंयमेन / पदत्रयीमात्रमिहापयस्त्वं, सर्वागमानां प्रभवो विगीतः ये प्रान्त्यमावर्त्तमुपेयिवांसो, जीवा भवे तानवतोग्रभावाः / अज्ञानभावेऽपि सदागमा ये, कस्तान स्तुयान्नैव सतत्त्ववेत्ता // 32 // कृतघ्नतामग्नतरा अमी खलु, जीवा यदाश्रित्य ममोक्तितत्त्वम् / मामेव हास्यन्ति भवं त्यजन्त-स्तथा विदन्नागम इष्टदायी // 33 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Sun Gun Aaradhak Trust Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 आता आगममहिमा कृतघ्नता-बुद्धिधरान् समस्तान , जीवान् भवात्तारयितुमुदकम् / अभावयन्नुत्तमसत्त्वधारी, सदागमोऽयं सततं प्रवृत्तः // 34 // सदागमाश्चैव सदागमा भुवि, कृतघ्नतां ये भवभावभाविनीम् / विदन्त आशूपगतां नराणां, सदा सदानन्दपदाय मग्नाः // 35 // अतितरां ननु नैव विराधितो, जिनपतिस्तनुते विविधां व्यथाम् / करणयोगभुवा क्रियया पुन-यदि च ( भवति ) लेशत जा आगमजो विधिः // 36 // विराधना या जिनराजराज्या, विशोध्यते सा गुरुनोदनाद्यैः / परं विराद्धा विशदाऽऽगमाऽऽज्ञा, भवं दुरन्तं तनुते समेषु // 37 // जिनोऽपि सार्वो निखिलं विदन्नपि, प्रसङ्गप्राप्तं निरवद्यमावम् / .... साधुव्रजोद्धारपदं न चानु-जानाति चेदागमवाग्-विरुद्धम् // 38 // यदपि केवलमुत्तमतां गतं, निखिलवोधकता न परे यतः / तदपि नन्दिपदं जिनपागमाः, क्षणपदं तत एत इहाहते // 39 // शुद्धेः पदं जिनमते भविनां यदाऽऽदा' वावर्त्तमन्त्यमधिगच्छति कालसौम्यात् / न्यायात् सदन्धकरणा द्रुचिरागमानां, 2 जागर्त्यहो ! जनिभृतां (भुवि तदा) करुणाऽसमा वः // 40 // नीतिः सत्तमगोचरा ननु जने पूज्यत्वदानं परे, चक्री यत्कुरुते महोत्सवपदं चक्रं स्वकं मोदतः / ... सत्यं तद् भवतारकाङ्कितपदं भो आगमाः शाश्वताः, यूयं दत्थ जिनेन्द्ररोजय इह प्रोदामपूजान्वितम् // 41 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '205 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे नयति नौस्तटमम्बुधिपारगं, प्रवरपण्यभरं फलमश्नुते / कि ननु च नाविक उत्तमतां, तथा, ननु लभन्त इहागमतो जिनाः // 42 / / लेखा रेखां विदन्तो ननु जिनपमहात् पूजयन्तीह शास्त्रं, पूजां धत्ते च शास्ता प्रमुख इह भुवो देशनायाः प्रकामम् / सङ्घस्याप्तागमान् यद्धरति सुनिपुणं सर्वकालं यतोऽसौ, नीतिं लोकान् ददर्शाऽतनुमहिमभुवं पूज्यपूजाङ्कितां ताम् // 43 / / जगत्पतित्वमहतां मतं जिनेन्द्रशासने, न मन्यतेऽमुना यतः परस्परं विरोधभाक् / ... त्रिकालगं जगन्न तु प्रभुप्रभावभावनं, 11.... सदागमाः सनातना जिनास्तदुपदेशकाः . // 44 / कथं मायाद्विश्वे जिनप ! तव यशो दिक्षु दशसु, दधौ जन्मान्त्यं यत् प्रवरनृपगृहे सत्कुलगतः / गतोऽप्यन्ते मोक्षं न च तव विशेषो जगति नु, त्वदुक्तो यन्नित्यं तनुत आङ्गो महपदम् // 45 // सदागमाः सदा जनेषु धर्मभावबन्धुरा, जिनाः सदैव सान्तरा निरन्तरा इमे पुनः। परं न शुद्धशब्दमात्ररूपधारका अमी, : सदर्थरूपतां परां दधत आर्षरूपतः // 46 / / अतीतकाल आहती सदागमावलीमिमा मवापुराहताः पदं सदात्मशुद्धिजं परम् / श्रिता विशुद्धिमार्गतो विहाय संसृतिं परां, सुभाविनोऽपि तद्वदेव कीर्तिराहेती स.का // 4 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 - आगममहिमा नरो भवेद्यदा पुनर्विधूतपापकश्मलः, - सुधर्मसाधनो रो विहाय कालमार्भकम् / / श्रितो भवस्य यौवनं तदा ध्रुवं सदागमान् , विचिन्त्य कार्यमादधाति मोक्षगामी च पुनः // 48 // शस्यते समस्तधर्मवेदिभिः , स मानवो य आगमं समाश्रितः / दूषणं परस्य शंसने मतं, यतस्ततो भवति दृष्टिरावमी // 49 / / आस्तिक्यं किं मतं भो ! विविधमनुपमं लौकिकं चोत्तरं च, प्रेत्यादेवुद्धिराद्यं गदितमनुभयं सार्वसूक्तागमेषु / नित्योऽनित्योऽपि जीवप्रमुख इह मतो मुद्रया स्यात्पदाङ्गया, मोक्षान्तस्त्वागमोक्तेरिति मननमिहानुत्तरं चोत्तरं तत् // 50 // सम्यक्त्वचिह्नानि शमादिकानि सद्भिः प्रशस्यानि तदेव चेद् हृदि / जिनेन्द्रदेवागमवासना-सुधो-क्षितत्वमीक्ष्येत बलीय आप्तैः / / 5 / / शमोऽप्यनन्तेषु भवेषु चीर्णो, निर्वेदसंवेगघृणास्तितादि / परं न जैनागमसंस्कृतं तद् , जाता ततो नैव ममाभिनिर्वृतिः // 52 // सदागमा भो ! कथमहणापदं, गताः सतां वर्णपदादिसाम्ये / उक्ता जिनेन्द्ररिति चेत् तके कथं, प्रमाणमित्यन्यपदं न किं मतम् / / 53 / / सदागमानां भगवान् प्रणेता, प्रघोष इत्थं न सुखाकरः स्यात् / उच्यन्त आप्तैननु शब्दमात्राद्, न चार्थरूपास्तु वचो व्रजन्ति / / 24 // वक्ताऽर्हन् भुवि देशनाश्रयगतोऽर्थस्याश्रितः सन्नरैः , किं सत्यं तकदुच्यते न पुरुषैर्वाच्योऽर्थ आ नो मतः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे 207 . सक्षिप्ता यदि तन्निरूपणचणाः शब्दाः सदर्थाभिधाः , उक्तास्ते न तदा परस्परगति प्तागमानां क्वचित् // 55 / / सदागमाः ! किं भवतां महत्त्वं, तुरंगशृङ्गाणि यतो न यूयम् / ख्याथेष्टवर्गेऽन्यवचांसि यद्वन् , नित्यार्थमाना इति विज्ञवीक्ष्याः // 56 / / जिनं गणिं वृष श्रयन् भवी तपन् महातपः, सुपुण्यराशिसाधनोद्यतश्च कष्टमाश्रयन् / वचोतिगं न मुच्यते सदागमानृते ननु, (भवन्मता) यथार्थभावमाननाद्भवन्त इष्टसिद्धये जैनत्वं ननु सिद्धमागममतान् सिद्धाञ्जिनान् साधुपान् , पाठकयुक्तमुनीन् मनेद्यदि भवी देवान् गुरूँश्चादरात् / धर्मं चाश्रति प्रधानपदवी प्राप्तं सुदृष्टयादिकं, तत्सत्यं श्रितिरागमस्य जनतानिःश्रेयसे साधनम् // 58 / / // 57 // आगम आप्ततमो यदि विश्वे, विश्वविदा प्रणीतार्थपरः स्यात् / न च हित्वा कषभेदतपैस्तु, शुद्धिं सोऽश्नुत आप्तपदं तु // 59 / / परभवकरणिर्जनिमृतिहरणिनिजबलभरणिर्जगति परा, जिनपतिकथिता गणपतिदृभिता मुनिततिविनताऽऽगमविततिः। जन्मजरात चरमावर्ते नियतमनार्ते मानं तस्या, ... मत्वा विबुधा आगमसुबुधा गतसम्बाघा भजत सदा // 60 // शरणं शरणं व्रज व्रज शरणं जिनपागममपहतमरणं, ... हरणं हरणं बत बत हरणं सञ्चितदुर्गतदुरितततेः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 : आगममहिमा धरणं धरणं वृणु घृणु धरणं निजगुणसन्ततिसारमतेः, 1. स्मरणं स्मरणं कुरु कुरु स्मरणं सरणं) संवरनिर्जरमोक्षगुणे / / 61 / / शुक्लं पक्षं निश्रितममलं, रक्षसि भवधारिणमसुमन्तम् / कृतहा परमसुको यदिह त्वा-मागम ! याति निरस्य निवृत्तिम् // 62 / / शस्तः सार्वमुखैः संसारी यः स्यादागम ! तेऽध्वनि पान्थः / प्राप्तौ वीर्यमनाहतमन्ते भूत्वाऽतन्त्रः शिवमत्येति // 63 // स एव सम्यक्त्वधरोंऽशतो वा, पापान्निवृत्तो निखिलाच्च जीवः / सदागमा ! यो भवतामधीनः, परो भवामेध्यकृमित्वरूपः // 64 // देवं गुरुं धर्ममलं भवन्तं, सदागमाङ्गीशरणं समेतः / रहस्यमत्त्वेन समेति चेन्न, हहा ! भवाम्भोधितलं समेति // 65 // . शरणमेति जनो व्यथयाकुलो. यदि परं परिपश्यति पालकम् / भविजनोऽपि तथैव तवागम, ननु भवन्तमपीड उपेक्षते // 66 / / अर्हन् सिद्धो गणपतिरुपाध्याय् आत्तव्रतोऽसौ, सम्यग्दृष्टिः शुचितिनिपुणः सव्रती सुतपस्वीं / चेत्ते शुद्धागमरससुधयाऽऽन्यो भवेद् भावभूतिनोंचेत् संसारकूपे वलयमनुगतः संसरेन्नीच (निन्द्य) रूपः // 67 / / जगति वित्तमशेषविदा मते, परिणमेत् परिणामधरः पुनः / ... ननु तवागमपूर्णविदात्मता समूलनाश उपैति कथं हहा ! " // 68 / / पापं न जात्वेति यतं क्रियायां, गतिस्थितिस्वासनसन्निभायाम् / ध्रुवं समेतीतरथाऽवधेऽपि, परं विशुद्धागमसंस्कृते हृदि // 69 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गगमोद्धारककृतिसन्दोहे 209 दागमा वीजमनूनमव्यये, यतः संजीवेतरबोधतोऽव्ययम् / लन्ति यूयं निखिलाङ्गिवर्गे, यावद्भवद्भिर्न समोऽत्र विश्वे // 7 // ज्ञानेन क्रियया च सङ्गतमिदं जनं मतं सद्यशः, सूते यत् परदर्शनानि न तथा साकल्यभाक्त्वाहते / तत्रापि क्षमते मतं विरहितं जनं क्रियाभिः परं, नो जैनागम ! शून्यतां तव परं नैवाऽप्यसौ मुच्यते // 71 / / सद्दृष्टौ विदि वर्त्तने शुचिमना उद्यच्छते स्वात्मना, चेच्छक्तस्त्रिकसंश्रयाय न भवेज्जैनागमाः शाश्वतम् / स्थानं शुद्धमुपैत्यसौ वरमतिर्यः संश्रयेच्छुद्धितो, रूपं यद् भवतामनूनमहितं शेषद्वयेप्सुः सकः .. 172 / / लाभो लोभफलः खलु प्रभुमते जेगीयते नरैस्तन्मिथ्येक्ष्यत आर्हतागमसुधालाभे परा यन्मतिः / / प्रज्ञाप्यानखिलान् विबुध्य. परतो लुभ्येन्न कोऽपि श्रुते, वादो व्याप्नुत आर्हतः खलु भुवि स्याद्वादमुद्राङ्कितः // 73 // * मनुत मनुत भावानागमज्ञानदिष्टान् , नहि परगतभावः स्पार्शनादिर्विवोध्यः / इह परजनबोधे हेतुरस्त्यागमस्य, . . _____ न भवति खलु कार्य कारणोद्भावशून्यम् // 4 // क्षुर्वदेव जिनपागमवेदनं यत् , स्वान्यप्रकाशकतया निजरूपमीः / पत्रो विधिस्तत ईहागमदान उक्त, / उद्देशनादिरपरे न विदां चतुष्के का // 7 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ' आगममहिमा जागर्षि जैनागम ! जन्तुजाते, बोधं समेतं क्रियया वितन्वन् / विवृद्धपर्यायमुनिः प्रदिष्टः, क्रमात्ततस्त्वत्प्रवीणैर्जगत्याम् // 6 // बोधमुखानि पराणि मतानि, धिक्कृतसत्कृतमार्गगमानि / नाऽऽगम ! जगति नु क्रियया रहितः, फलति ततस्त्वं विद्वत्तात्मा||७|| ... सत्यं चक्षुष्पदमनुकुरुते ह्यागमज्ञानमग्न्यं, ' .. . जैनं तच्चेद् विबुधपरिमतं नैव चारित्रहीनम् / ___ स्खं दावाग्नेरवति नियतं यः क्रियावान् स चक्षु दह्येताशु प्रतनुमतिकोऽप्राप्तसद्बोधवृत्तः // 78 / / आगमा ! जगति यूयमात्थ यद्', वस्त्वपर्ययं भवेत् खपुष्पवत् / ज्ञानमक्रियं नु तर्हि किं मुधा, खण्ड यते क्रियात्र सद्व्रतात्मिका // 79 // सदागमा ! भवद्भिरेष आश्रितो न यो भवे न यद् व्रजेंद्विषादिता स सम्पदर्थको नरः / , न चेदसङ्ख्यभागगं निगोदमेकमुद्धृतं, सदा भवत् समीक्ष्य किं सदोद्यमोऽत्र वो विना // 8 // न्यायस्त्रिलोकगतजन्तुगणे प्रसिद्धो, ... ... लब्धा श्रियो भवति यो भवतीतखेदः / ___ उल्लङ्घ्य तं ननु सदागम ! ते प्रवृत्ति - यत् खिन्नभाक्सजुषि श्रियमादधासि / / 8 / / . . मयोः पृष्ठे भारो य इह न मायात् स गलके, निबन्ध्यो लोकेनादृतमिति लघुप्राप्तमतिना / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमोद्धारककृतिसन्दोहे त्वयाऽमाता मोक्षे वनगतितले ते विनिहिता, . यके मोहाङ्कोदलननिपुणा आगम ! नराः / / 82 // भवन्तः किं स्तुत्या यदिह भवतां ये स्तुतिपरा,, ... . ... भवान्तं ते याता ननु च विमलं निश्चिततरम् / .. न तत्रात्मानं भो ! कथमपि स तत्त्वं नयथ तत् , .. वृथापन्नो न्यायो यदुत न मुधा यवगतक्रयः / (नयगतिः) / / 8 / / मया प्राप्तव्यं द्राग् जननजलधेस्तीरमचलं, यदा सिद्धयेच्छुद्धागममतिततिः पूर्णघटना / विसंवादो नैवामलमतिजुपामत्र सुविधौ, " परं नाहं तद्विन्नहि च विषयोऽस्त्यागमततेः / महिमानममितमेति साऽऽगमालिराहती जने, यतो हितोपदेशकृन् मुमुक्षुसाधुसङ्ग्रहापरस्परविरोधवाक् / जगति वीक्ष्यतां परं नेतरा तथेति तर्कवाददक्षताधराः, . श्रद्धया परं श्रयेयुरहंदुक्तता यतो न चैवमाश्रयः परस्परं विघातकृत् सताम् // 5 // आगमवृन्दमिदं महनीयं पूर्वमिहार्हत्साधुवृषाद् , . मानमिहास्य मतं निपुणानां तद्गतवाक्यसुधासरणिः / चेद् गतमानमिहैतदपात्रं तत्रितयं न कथश्चिच्छ्रिये, मत्वा सर्वमिदं गतमाना मनुत सदा तत्स्वत उत्कृष्टम् // 86 // कैवल्यज्ञानभाजः समजिनपतयो द्रव्यकालाध्वभावैर्जीवादीन् सर्वभावानमितपरिगतैः पर्ययैः शुद्धरूपानु / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 आगममहिमा बुद्धवा प्रज्ञापनायाः पदमसममितान् बोधयन्तीद्धबोधान् / 1. जीवाँस्तद् द्रव्यभावात्मकमितरदिहाप्तागमीयं श्रुतं स्यात् / / 87 // शमोऽसमं साम्यमुपैति चिन्तनात् , चेत्तच्छमोदन्तफलोहकं स्यात् / तथोहनं नैव सरागशास्त्रात्ततः शात्मात्मक आगमः शुभः // 88 / / - आगम !: उद्धर मां भवभीतं दृष्ट्वाऽगम्यां तव गतिमीहा, कञ्चिच्छितमुत्तारयसि त्वं लगति न यत्र मुहूर्तमनूनम् / कश्चिदुपार्धविवर्त्तभवान्तीनं कृत्वा तत उद्धरसे. चित्रं कालं तावन्तं त्वं फलसि विलम्बं कृत्वाऽपि द्राक् // 8 // आगम ! तव सेवापर आत्मा चेजन्माष्टकमपगतभेदं, तद्भव एव भवेत् स निवृत्तिं पूर्णामात्मनि धर्तुं दक्षः / .. उत्कृष्टां यदि तां मुनिरीत तद्भव एव मुहूर्तादर्वाग् , भवसि तटार्थी भववार्धेस्त्वं कुरु मयि रङ्के लघु तां सिद्धिम् / / 90 उत्साहस्ते विधातुं परमशिवपदं संश्रितानां नराणां, तेऽप्याप्तुं तत्सदोत्काः भवभयविधुराः साधनं ते तथैव / कोऽत्रास्ति प्रध्वरां यो विफलयति समां सत्प्रवृत्तिं भवान्तः, हाहा शुद्धागम ! त्वं मतिततिमनघां प्रेक्ष्य कार्य विधत्से / / 913 या यत्यतेऽङ्गिनिचयो लघुसिद्धिमात्तुं, शुद्धागम ! त्वमपि तत्पथपाटवोऽसि / सिद्धिः पुनर्भविजनान् करितुं समुत्का, 1. भव्यत्वमेव विविधं विविधा (तु विधि) विधत्ते // 92 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे चित्रं भव्यगतं मतं श्रुतिधरैभव्यत्वमत्राङ्गिनां, . किञ्चिनैव फलेत् कदाचिदभवं दत्त्वा परं कालगम् / वैचित्र्यं प्रणिधाय सिद्धिपददं किश्चिजिनेन्द्रागमा !, . ...... युष्मत्प्रोक्तमलं चतुःशरणमादत्त्वा फलेन्नान्यथा / / 93 / / शुद्धागम ! त्वं विविधं विधाता, यतः श्रयस्त्वां खलु जीव आदौ / अर्हन् गणेशोऽवरकेवली वा, भविष्यतीति नियतिं विधत्से // 94 // एकस्वरूपोऽपि कथं विचित्रां, (विधत्से ), सम्यक्त्वकाले हि तथाविधां जने / / जिनेन्द्रमुख्यैः खलु चित्ररूपैः, - फलैः फलन्तीमृजुमागमक्रियाम् .. . |95 / / आदिष्टा विधयः सदागम ! भवोत्ताराय ये ये त्वया, व्यस्ताँस्तान्निखिलान् श्रयन्ति भविनः प्राप्तुं शिवं सोत्सुकाः / निर्वाणं परमं त्वया फलतयादिष्टं पुरैवाऽऽश्रितान् , वैचित्र्यं किमनेहसो धृतमिहावल्गुप्रमादास्पदम् // 16 / / सदागम ! त्वत्कथिताशया इमे, दधाविरे त्वत्कथि ( द्गदि) ..ताशयाङ्गिनः / फलं विचित्रं विविधाद्धि कालाद्रक्ष्यं महत्त्वं ननु हा ! कथं ते // 97|| नयेविहीनं न च तेऽस्ति रूपं, सदागमेमे च विचित्रताजुषः / न चान्यवद्धयेकनयाश्रितस्त्वं, ग्राह्यश्च धार्यश्च कथं नु वाच्यः // 98 // समग्रधर्माश्रितवस्तुवाचः प्रमाणतामिति वाच आप्ताः / नन्वागम ! त्वं नियतार्थधर्मः प्रमाणभावो ननु ते विदा कृतः / / 99 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . 214 आगममहिमा श्रद्धायुतैर्ननु भवान् प्रमितिस्वरूपं, ... / . नीतः सदागम ! सदापि यथार्थभावात् / वर्षागतं प्रवरवारि यथा गृहीतं, ... ... . . वर्यण वर्यमिति सद्गु दीरयंस्त्वम् // 10 // भवाब्धिचक्रचञ्चवोऽपि जन्तवस्तवेक्षणात् , ....... सदागमा सदागमा भवन्त्यनूनसद्गमाः / ........... परं भवभ्रमाँल्लघूनबाधबोधसङ्गमा, व्ययन्त आप्यते यदा त्वयोदिता क्षरावलिः (क्षितिवितिः) // 101 / / वाच्या न या सद्विदुषां न गम्या, योगोद्यतानां न च नेत्रगम्या / चक्षुष्मतां साप्युदिता त्वया वाग्, न तां स्तुते ह्यागम सगिरं कः // 102 / / : .. परापरागमेक्षिता न यावता निवर्त्तते, . / परम्परागमेशिता न नाथ ! मे विवर्तते / .. ... “परम्परागमोक्षितं पदं न तावताऽऽगमाः , परम्परागमाश्रयद्भिरट यते न संसृतौ .. // 103 / / जयवन्तमनन्तगमं सुगम, विदधन्निखिलार्थविकाशगमम् , वरसंवरनिर्जरमार्गपरं, दुरितौघनिवारकसत्यधरम् / ननु सेतरजीवविबोधकरं, स्वकसिद्धियुतं परसिद्धिकरम् , / जिनराजमुखोदितवाच्यपरं, नमताऽऽगममुग्रतरं विबुधाः ! // 104 / / आगममुखमावश्यकमन्यं, सामायिकमत्रादौ सय, गज्ञानाऽऽचरणानां नियम, शपनमवद्यात्मकशमविषमम् (?) / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे 215 त्रिविधं त्रिविधं कार्यं भव्य-स्त्रैकालिकदुरिताल्यपगम्यैः , . : . जिननायकपथि निष्ठो मुख्यः, यः स्यात्सामायिकमतिसख्यः // 15 // नरः कृतज्ञो गुणजातमाश्रितोऽपकं तु तस्योत्तमतापदाश्रितम् / ध्यायात्तदाऽनन्तगुणार्पकं चतु-विशं स्तवं स्तौति परागमं न कः?।।१०६।। उत्पन्नमब्धौ प्रवरं हि मौक्तिकं ददत्तु सार्थो विपयाश्रितं नरम् / यथोपकारीह तथा मुनीशोऽर्पयञ्जिनोक्तं चरणं प्रणम्यः ____(क्तागममहतीडनम् ) // 107|| प्राप्तं चरणं महिता. जिनपा, नतयो विहिता व्रतिभिरपापाः . (नेऽपापाः)। निरतिचारं तत् सफलं स्यात् , प्रतिक्रमणागमतस्तत्सिद्धिः (तुर्याध्ययनागमतस्तत्सिद्धिः) // 108 // न चाऽऽगसां दुष्कृतवाग्विशुद्धता, जने समेषां कतिचित् पुनःक्रियाम् / आगांस्यपेक्षन्त उदारसत्कृति, तथोत्सृजं सच्चरणागमो व्रती // 109 / / सन्तोपो नैव शास्त्रे न च धननिचितौ सज्जनानां नराणां, मोक्षे यानं समेता न हि जिनयतयस्तुष्टतां यान्ति धर्मे / .. . तद्वत् प्राप्तो वरेण्यं शिवपुरसुगतेः सच्चरित्रं मुनीशः , प्रत्याख्यानागमाय सततमुदितधीः संवराद्यर्थमुत्कः // 110 // जैनेन्द्रागम उत्तमो यत इहाहारादिचेष्टाऽखिला, निश्रायाऽङ्गिदयां समस्तसमितीर्गुप्तीश्च तिस्रो वराः / तद्दशकालिकशास्त्रवाक्यविहितं मत्वा समस्तं बुधास्तं पाठयं शुभसाधवे व्रतदिनात् संसाधयन्ति स्फुटम् // 111 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 की आगममहिमा * चारित्रं विधियुक् तदा शिवपदायालं भवेन्नान्यथाऽसौ शय्याहृतिवाससां यदि परामन्वेषयेदेषणाम् / तां चैका वियुता दिशेद् वरतरा या पिण्डनियुक्तिवाक् , तत्तामागमसत्यतत्त्वविदुषो घोषन्ति मूलात्मिकीम् // 112 / / मान्याः सदैव विधयो विदुषां विदुक्ता श्वेतोहरा यदि परं शुचितर्कविद्धाः / __ ज्ञातादिमिर्यदि भवन्त्यनुरूपरङ्गाः स्युरुत्तराध्ययनमागममाश्रये तत् // 113 / / हिंसानृतादीन्यशुभाघधामेत्युशन्ति सर्वेऽपि परे हिं तीथिकाः / षट्कायबन्धादिविदस्तु विज्ञा आचारमङ्गं मनसा श्रयन्ति // 114 // जातायां भूरि सम्पदीतरजनस्तैन्यादिजं साध्वसं, . तद्वत्तीर्थिकसम्भवं श्रुतिमतश्चारित्रिणस्तद् ध्रुवम् / अङ्गं सूत्रकृतं ततं गणधरैराचारसूत्रात् परं, (तत्तर्काङ्कितसंयमा.) - तर्काकं व्रतवादमागममिमं विज्ञाः श्रयन्तु श्रियै // 115 / / लब्ध्वा वित्तं गतचरटभयं श्रेष्ठिना गण्यतेऽट्टे, __ सौवर्णं तत्र मुख्यं गणयति तदिवार्थान् दशान्तान् सुदृग्वान् / सङ्ख्यां कर्तुं मनसि विधृतवाँस्तत्तृतीयं सदङ्ग, * स्थानाख्यं ह्यागमज्ञैः प्रतिदिनमनघं श्रियते सर्वशुद्धया // 116 / / चिक्कणे चिक्खले (कर्दमे) काकिणीं वीक्ष्य विज्ञः, सदोद्धर्तुमीहेत तदानुबन्धम् / ..... जिहीते न चार्थस्तदीयं प्रतीत्य, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे / 217 समाख्याति तुर्येऽङ्गशतान् समेष्यान् / / समस्तेऽथ श्रेष्ठागमं तं श्रयध्वम् // 117 // . आढ्यो निर्भीक आप्तोऽनघकनकतति यो दधात्यर्थजातं, सोलुङ्क्ते पूर्ववंश्यागतमुदितमनुस्मृत्य वृत्तं सुशीलः / सद्वादं तद्वदत्रागममतिनिपुणः पञ्चमेऽङ्गे जिनेशा_____ऽऽचार्यानाश्रित्य सम्यग् नमत भगवतीमागमं सत्प्रवृत्ताः // 118 // - समेत्य वंश्यान् प्रचुरान् सवादान्, वृत्तान्विताँस्तत्र जनेषु वित्तिम् / नेतुं समाख्यायिकया यतेत, ज्ञाताकथाप्यत्र तथागमेषु // 119 / / आश्रित्य वंश्यान् स्थितिमीयुषां परां, वृत्तान् सुवित्तान् सुधीरातनोति / उपासकानां परमां समद्धां सैषोपमोपासक आगमे बुधाः __ . ( विदाम् ) // 120 // स्ववंश्यैर्यत् प्राप्तं विवुधविसरैः पूज्यपदकं, तदुत्कीर्ति कुर्वन् निजपरिकरं यत्ननिपुणम् / तदर्थे कुर्यात् स प्रगुणफलदं शुद्धपथग स्तथा न्याय्या पूजा जिनपविधिनान्तकृति तताम् // 121 // प्रवृत्ता मोक्षायाऽनघमतिधराः सव्रतजुषो, गुरुत्वात् पापानां प्रभव इह नैवाव्ययपदे / परं सत्यङ्कारं विमलतरमाप्याचलपदं,.. . वंश्या ये जातां स्मतिरनुपमाऽनुत्तरकृता // 122 // ज्ञानं समस्ति निखिलाङ्गभृतामनूनं, * भोगेऽत्र दुःखसुखयोरनुभावरूपम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 आगममहिमा प्राग्वद्धकर्मफलमेतदिति प्रमित्य, . . सुज्ञो विपाकमनुसंस्मरतीह शास्त्रम् // 123 / / पापं पुण्यं च यत् स्याद् भविजननिचये निश्चयादाश्रवात्तद्रोधः शक्योऽस्ति विश्वे श्रयति यदि पदं संवरात्मकरूपम् / नाशोऽपीष्टप्रदाता ननु तत इति तद्वर्णकं प्रश्नपूर्व, सद्व्याकृत्या मुनिपसमुदितं श्रीयतां कर्ममुक्त्यै // 124 / / दृब्धं श्रीदृष्टिवादं मुनिपसुकृतिभिर्विश्वगार्थप्रभासं, पञ्चाङ्गं द्वादशाङ्गं परिकृतिसहितं सूत्रपूर्वानुयोगैः / . युक्तं पूर्वैश्चतुर्भिर्दशगणकयुतैश्चूलिकश्चित्ररूपैः , साधो ! स्तोतूप्रमुत्कः समश्रुतभणकं स्वागमं चित्प्रसत्त्यै // 125 / / श्रद्धा तर्कानुसारी श्रयति विधिगतं यत् सधर्मान्यधर्म, ज्ञातं षट्कायहिंसादुरितविरतियुक् तत्प्रसिद्धयै झुपाङ्गम् / तीर्थ्याऽर्हन् मार्गयुक्तान् विविधगतिगतान् दर्शयच्चाग्रिमं तद् , वन्दे श्री औपपातं जिननमनमहैः ( सञ्चितं नूनमेपः ) // 126 / / कुतीर्थिकः पुरा भवञ्जिनान्तराध्वसंश्रितः , ___ स नाकिधाममोक्षसौख्यसंयुतो भवन् यदा / दर्यते तदा मुनेः परा रतिः श्रीआर्हते, राजपृच्छया युतं ह्युपाङ्गराजप्रश्नकं .... (द्वितीयमाश्रये सदागमं श्रुतौ रतः सदा) // 127|| जीवाऽजीवप्रमुख्यान् यदि च दशविधान् सत्पदार्थाञ् शृणोति / साफल्यं तस्य यः स्यादनुमननपटुरित्युपाङ्गं तृतीयम् / पाचवम, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे जीवाऽजीवाऽऽख्यमुख्याऽभिगमपदयुतं यद् वृणोत्यर्थभक्त्या, वैविध्यं बुद्धिगम्यं द्विविधमुखगतं स्तौमि शस्तागमं तम् // 128 // विकीर्णानां रक्षाविधिरतुलसाहसकृतिपरा, सुरत्नानां यद्वद् भवति च परं प्रोतविधिना / यथा मानं प्रोते सुगमविधिना रक्षणविधिः, तथाऽनन्ताः ख्याताः सुगमविधिनोपाङ्गनिचितौ। ( तथोपाङ्गे तुर्ये श्रुतिधृतिपरैः सर्वमुदितम् ) // 129 / / यद्यपि पूज्या द्वीपान्तरगाः पूज्यगणाः सुधियां शुचिकार्यास्तदपि च जाताः ये स्वद्वीपे पूज्यतरास्ते निकटतरत्वात् / तत्क्षेत्रं महिमाञ्चितिपानं न्यायमनुस्मृत्यैनं विबुधाः , जम्बूद्वीपपदोपगताको प्रज्ञप्ति महयामि मुदाहम् // 130 // * भोगो रक्षा च विश्वे तनुगृहसिचयाकल्पतल्पादिकानां, संस्काराच्छुद्धितश्च न तु समधिगतेः साध्यसिद्धिस्तथैव / ज्ञानादौ दुर्लभे तत्प्रतिनियतमिह प्रापिते साधुधुर्यैः, सर्व साध्यं सुखेनेह भवति मनश्चित्प्रकल्पो रमेत // 131 / / मर्यादा रक्षणीया ननु सुपथगतैः पूर्वपुंसु प्रवृचैस्तृण्यां नैवाचि सिंहार्भक उदितरुचिः स्वीयमेवाचि भक्ष्यम् / तद्वन्मोक्षाध्वनीहार्पितशुचिहृदयो वर्तते सूरिवृत्ते, मार्गे दोपेऽप्रवृत्तो मुनिरुदितवृहत्कल्पसूत्रं श्रयन् हि // 13266 शुद्धिः पात्रानुकारा न च समविधिना नैव सर्वैश्च सर्वा, .. तद्वचारिचपात्रे न सकलमुनिभि व चैकप्रकारा / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 आगममहिमा भेदाः पञ्चात्र शुद्धा व्यवहृतिनिपुणाः प्रोचिरे शास्त्रविज्ञस्तच्छ्रद्धा पात्रविज्ञा व्यवहृतिनिपुणं शास्त्रमेतच्छ्रयध्वम् // 133 // आद्यान्तिमार्हद्वरशासनाश्रितो, द्विसन्ध्यमावश्यकनिर्मितिं गताम् / द्विधौघसच्चक्रगतां समादृति, श्रीओघनियुक्तिमतः श्रयन्तु // 134 // यथाकल्पं प्रोक्ता मुनिपमहिता कल्पकरणि स्ततः कल्पा ज्ञेया विविधविधिना भूरिभणितीः / बृहत्कल्पे प्रान्त्ये रसमिति मिता या प्रभणिता, द्विचत्वारिंशद्भिस्थितिरुचिरुपास्याऽत्र कल्पे // 135 // सूर्याश्चन्द्रमसो जगत्यतितरां तिर्यग् जनानां हिताः, __सङ्ख्यातीतमितास्तथापि सुतरां धर्मे कृतानादराः / ते प्राग् जन्मनि, तेन कल्पगमने नापुः परं दैवतं, . सूर्याच्चन्द्रपदाङ्कितं ननु ततः प्रज्ञप्तियुग्मं श्रये // 136 / / निरयावलिकां श्रुतपदगमिकां धर्मविराधनसङ्गतिकां, अन्त्याङ्गानां पञ्चकगानां स्मृततदुपाङ्गदशाश्रयिणाम् / स्मरत सुमतयो गुणततगतयः पञ्चोपाङ्गं घृघरतयः, श्रुतमिह सर्व हतमदगर्व स्तुतमिदमनघपदाप्तिपरम् // 137 / / फलं द्वैध धर्मे जिनपमतगे सन्मुनिमतं, . ___ ससाध्यं प्राप्यं वै शिवसुखयुतं नाकिसुकृते / शिवोद्यक्ता भव्या इतर इतराश्रितियुता, दशाश्रोते द्वन्द्वं हितदितराश्रितमरम् .... // 138 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे अङ्गाद्याः श्रमणत्ववर्षगणनामाश्रित्य देया मता. श्छेदाङ्काः परिणामितां पुनरुरीकृत्यान्यथा नैव तु / सत्यप्युत्तमभावुके मतमिदं मानं श्रुतेस्तुर्यकं, श्रीयुक्तं महताङ्कितं श्रयतु तच्छ्रेयो निशीथात्मकम् // 139|| देशेष्वशेषेषु नृपावलीनां, साध्या सदाचारपरम्परैव / परं विभिन्ना खलु दण्डनीतिः श्रीजीतकल्पं तदिवाश्रयोहितम् (येन ) // 140 // कृष्टा भूमिर्विविधविधिना धान्यसार्थः सदुप्तो, . वृष्टो मेघो विमलदकवानीतयोऽपि विलीनाः / तत्साफल्यं स्वकभृतिफलात्तद्वदत्रान्त्यभागे, धर्मी चेत् स्यात् शरणमुखकं संश्रयी स्यात् सुभावः // 141 / / * मृतिः क्षुतेनास्ति न कासिते न, यथैव जायेत नृणां सुयुग्मिनाम् / मुनिस्तनोरातुरभावमन्त्ये, ज्ञात्वाऽऽद्रियेतातुरसंवृतिं तत् // 142 / / . दीर्घ मान्धं यदि च धृतिधरो जीवितान्ते विशङ्की, दीर्घा कुर्यात् प्रतिपदविधिनाराधनां ज्ञानमुख्याम् / न्यक्षं ख्यातां मुनिगणहितदामातुरेऽत्र विशालं, प्रत्याख्यानं महदनुगतं नम्यते नित्यमग्न्यैः // 14 // आराधनामातुरयोग्यसंवरां, प्राप्तो मुनिर्भक्तमवश्यमेव / अन्त्योपगः संवृणुयाच्छ्रयामि तत् प्रकीर्णकं भक्तपरिज्ञयोदितम् // 144 // मोक्षाप्तये सन्मुनिराहतो यदा, मृति समेष्यां विदुपोऽधिगच्छेत् / प्राग् द्वादशाब्द्या विदधीत संले-खनां सुसंस्तारगतोऽयमिष्यते // 145 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ... आगममहिमा सातोदयान्नैव भवन्ति चित्रा, रोगोपसर्गादिसमुद्भवा व्यथाः, .. भवेद् ध्रुवा साऽनशनोत्थिता तकां, सहेत सत्तन्दुलमानबोधतः / / 146 / / - कृता बुद्धिर्धर्म भवति सुखतो मानवभवे, परं चेदन्त्येऽशे भवति सुभगा स्याद् गतिरिह / दुराराध्यो ह्यन्तो भवति सुगमश्चन्दकभिद स्ततो विज्ञा वित्तागमममुममेयादरपदम् // 147|| नरः कृतज्ञो गुणकन्नतौ परः, स्तवे परस्तत्स्तुतिकृन्नराणाम् / मार्ग प्रदर्यादभिष्टवानां, देवेन्द्रस्तुत्या स्मरणात् कृतज्ञता // 148 / / क्षयादि कालादिकृतं तु कर्मणां, प्रायाय बुद्धयाऽर्हमुशेद् गणी तकम् / विद्या गणीनां स्तुतिमहतीतो, बुद्धा न यत्साधनविप्रमोषाः // 149 / / सर्वं कृतं स्यात् सफलं मुनीनां, समाधिमाराध्य मृतिं व्रजेयुः / प्रेतान् स्मरेत् तत्सुसमाधिना ये, स्तुत्यस्ततो यो मरणे समाधिः।।१५०।। यद्यपि केवलमुत्तममुक्तं, तदपि न तीर्थपदाय समर्थम् / नन्दीश्रुतमिह तत्क्षममाप्त-रुक्तं नाटये यथा वरनन्दी // 151 / / व्याख्यातृवर्ग उदितो जिनमार्गगामी, ___ लोकोत्तरेतरविधेः प्रभुमार्गमाख्यन् / .: द्वाराणि तद्विधिपराण्यनुयोगयुञ्जि, . भव्यानुयोगकरणे स्मरणं हि तेषाम् // 152 / / जिनागमानां जितरागमाना स्तुत्योद्मानां स्तुतिराप्तमाना / जीयाद्यथा सिद्धगिरौ च सूर्य-पुरे शिलाताम्रपटे जिनौकसी .... ... (ऽर्हदागमाः) // 153 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोमे ... 223 आम्नाप्तोऽसावन्त्यावर्ती नरो भ्रमी पक्षे शुक्ले, रूढं गूढं दहन् नु सरलेतरं ग्रन्थेर्मार्गम् / सत्सम्यक्त्वो व्रते दृढसन्मतिः मोक्षं गन्ता, __ हन्ता जा (या) तेः सदागमसंश्रयी // 154 // पापामयेषु वरमौषधमागमोऽयं, कल्याणकल्पलतिकोद्गमवारिधारः / सन्देहसानुविलयैकपविप्रभोऽयं, मोक्षाध्वसङ्गमकरो वरसार्थ - वाहः // 155 // श्रद्धावानपि यो भवेजिनपतेः सद्भावमत्योज्झितो, जैनेन्द्रागमसञ्चितेऽर्थनिचयेऽनाभोगतोऽसद्गरोः (वाऽगुराः)। श्रद्धाया विगतो भवेद् दृढतरश्चेत् कल्पितेऽर्थ नरः, सत्सम्यक्त्वसुवेषमार्गचलितः सन्मार्गगोक्तौ दृढम् // 156 / / गणधरैः पुरतो यदुरीकृतं, निपदनं जिनदेशनसद्मनि / निखिलभावविदां स गतोपमो, भविमतो महिमाऽऽगमसन्ततेः।।१५७|| श्रद्धेयोऽसौ जिनपतिगदिते ह्योगमे शुद्धदेशी, मिथ्यादृष्टिर्भवति यदि वाऽभव्यजीवः कुपात्रम् / . तत्सम्यक्त्वं श्रुतगणगदितं दीपकाख्यं परं स, चेन्न ज्ञातो गतमननवरो ह्यागमोक्तात् पथो वै . // 158 / / जीवाऽजीवाश्रवाणां शुचितरमुदितं बन्धने संवृतौ च,, पुण्ये पापेऽपचाये कृतदुरितततेः शुद्धनिःश्रेयसे च / ज्ञानं मन्येत विज्ञैर्यदि भवति तकद् ध्यागमैकान्तदृष्टिः // 159|| P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 . आगममहिमा - न दृष्टो न वित्तो न च जगति वृत्तान्तसरणिर्न वार्ता नो शब्दोऽणुरपि च यस्यास्ति विदितः / न देशो न वेषो न च परिकरस्यांशसरणं कथं ज्ञेयो देवो यदि च न भवतीहागमगतिः // 160 / / न यो द्रव्यं दत्ते. द्रविणनिचयं नो न च गृहं, न योषां नो पुत्रं न च शरणदो रोगनिचितौ / . . न यस्त्राताऽरण्ये न भवति चरणे विक्रमपराभवे त्राता साधुर्भवति शरणं ह्यागमबलात् // 161 / / यो द्रव्यं ललनां विचित्रविषयान् स्वातन्त्र्यमुत्सादयेदाहारेऽपचितिं सदैव गमयेन्निष्काशयेत् कल्पनाम् / दाने शीलधृतौ तपस्यनुपमे सद्भावनाभावने, भव्यं धर्मवरो नुदन् शरणदो मान्यो भवेदागमात् // 162 / / मुक्तिनँव भवेद् भवभ्रमिभृतां कालादनादेवुवात् , सत्यं स्यात्तदिदं यदा नहि भवेन्नाशो ध्रुवाज्ञानगः / सर्वेषां भवधारिणां विषयजं सौख्यं सनानादिजं, युग्मं नश्यदुपेक्ष्यते यदि पुनश्चेज्जैनमार्गागमात् // 163 / / सत्स्वप्यसङ्ख्येषु सदा सुरेषु, तथैव तिर्यक्षु च नारकेषु / सदृक्षु तीर्थं न मतं जिनेशैस्तत्रास्ति यन्नो जिनपागमोदितिः / / 164 // मोक्षे चतुर्गतिभृतां प्रचुरा समीहा, वीर्यं च भूरि तनुवागहृदयोद्भवं च / . . सम्यग्दृशः सुमतयश्च तथापि तं न, लब्धा न कोऽपि महिमाऽद्भत आगमानाम् // 165 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 “आगमोद्धारककृतिसन्दोहे .. शून्याः सदैव गतयो न चतस्र आप्याः, उनको सम्यक्त्वबोधयुगलेन, न जातु मुक्तिः / . . एकस्य तत्र किमु कारणमुज्ज्वलं न, ..चारित्रमेव, यदिदं जिनपागमाऽऽप्यम् // 166 / / संयमः सदैव संवरोद्धुरो, निर्जरापि नवनवास्ति तत्र वै / .. नैव सोऽस्ति संयमादरात्, परं भवेदसौ जिनागमोद्धुरान् श्रितः।।१६७|| कपेण भेदेन तपेन शुद्धतां, यदागमानां ततिरुद्धरा धरेत् / / तदेव सामान्यतमास्ति विज्ञै-न चागमैरुज्झितमस्ति दर्शनम् / / 168 // द्रव्यैः समेतान् समपर्ययान् ये, ब्रुवन्ति ते मोक्षगमाय योग्याः / सदागमास्तैर्जिनसूरिधर्मा, भव्यः सदा सेव्यतमा भवन्ति / / 169 / / अष्टौ वरे जैनमतेऽत्र शासने, प्रभावकास्तत्र सदागमा छूितः।" 'आद्यो भवेत् प्रावचनी परे पुनर्विशेषका नैव तदुज्झिताः खलु / / 170 // भाषायाः समितिर्मता मतिमता वाचश्च गुप्तिः परा, - यः सर्वं दिवसं भणेदपि नरः शास्त्रोक्तवाचां विधौ / विज्ञीभूय परो नरो यदि पुनर्नवोशतीह क्षणं,.. नास्यामू उदिते, सदागममतिभूयान्नरः सर्वदा // 171 / / आदेशो नैव दत्तः करणविधिगतो नैव नैपेधिकोऽपि, शिष्याणां संयमादौ जिनपतिभिरिहैकान्ततो मोक्षमार्गे / उत्सर्ग सापवादं जिनपतिकथितं मोक्षमार्गप्रवीणा, मन्वानाः स्युस्तदेतद्वयनिगदपरो ह्यागमः सुज्ञमान्यः / / 172 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradha Trust Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . आगममहिमा निरागमा निरम्बरा जने पशूपमोद्वहा, ... निरम्बरत्वमेव मार्गमाहतं ब्रुवन्त आः!। श्रयन्ति केवलं स्त्रियां न चान्यतीर्थिकादिषु, न चैषणां सदागमांस्तनः श्रयन्ति वित्तमाः // 173 / / / यदाऽऽगमानां परमा विभूति-ौतार्थवक्तृत्वसुधीश्रुती श्रिता। तदेव धर्मे विजयोऽस्ति जैने न चागमैः शून्यमिहास्ति शासनम् / / 174 / / दिगम्बराणां परमेश्वरा इह लिङ्गाण्डयुग्मं जनवद्धरन्ति / ) भवन्ति ते हास्यपदं हि लोके, नेयं व्यथा छन्नपदे समागमे / / 17 / / नग्नाटा रचयन्ति नादमहितं यजैनवाग् नाक्षरी, .... तिर्यगवत स्फुटतोज्झिता ननु सकेत्याहुनिराप्तागमाः / ...: मन्वाना जिनवाचमाहतमतं सर्वाङ्गिवोधं स्तुयुः / // 176 / / सामान्येन जनैर्महाङ्कितनिशीथोक्ता मता पञ्चमी, ____ ज्ञानस्योत्तमपर्वतामनुगताऽऽरोध्या ध्रुवं सत्तमैः / / चेत् सूक्ष्मैक्षिकया परं यदि समालोच्येत विज्ञैर्गणे, .. " शब्दास्ते ऽशनिवेदिनस्त्विति नयात् सा पञ्चमी स्वागमात् // 177|| .. जिनागमानां श्रितसद्दमानां, हतावमानां धृतसत्तमानाम् / सत्सङ्गमानां विमताधमानां, तनोत्वमानां स्तुतिमात्तमानाम् // 178 / / हत्वा विस्तृतमिथ्यात्वाऽऽध्यं कृत्वा कर्मफलं शुभसन्ध्यं, हतकोटाकोटयधिक ध्यान्ध्यं भित्त्वा ग्रन्थिगतं दुरितान्ध्यम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे 227 लब्ध्वा सम्यक्त्वं गतवान्ध्यं धृत्वा मार्गगजनशुभमध्यं, श्रित्वागममतमुपगुणमध्यं गत्वा नन्दत शिवमपवध्यम् // 179 / / सहस्रं वक्तृणां भवति च यदि प्रावचनिना,.. ___ पदार्थोद्योतोत्कं जिनपतिमते साम्प्रतगतम् / ' तथापीष्टं तीर्थे प्रभुवचनसाङ्गत्यनिपुणे, यदि स्यात् पुस्तस्थागमततिगतमेकगदितम् // 18 // साङ्गत्यं भविनां सदेष्टमनघं यत्सङ्घवीर्यं महत् , . तच्चेदागमसङ्गमं यदि भवेत् तीर्थोच्छिदे नैव तत् / - .... पूर्वं यत्कमलप्रभेन गणिना चैत्याश्रितानां पुरः,.. सिद्धान्ताध्वनिरूपणेन विहितं तीर्थङ्करत्वं महत् // 18 // जिनेन्द्रं महत्यन्वहं सत् त्रिकालं, विभूत्या महत्या गताऽऽशं समग्रम् / विरुद्धं यदि स्याज्जिनेन्द्रागमैस्त-द्भवस्यैव वृद्धयै भवेत्तत्समग्रम् / / 182 / / साधुर्योक एवानघजिनमतगतो विद्यते द्यागमानां,. . श्रद्धाता सत्यमर्थं परमपदमतिस्तीर्थता तत्र साक्षात् / न त्वन्ये प्रभूता जिनपतिगदितादागमातीतवादा-.. स्तीर्थ यत्सत्यनिष्ठं जिनकथितमिदं तच्च शुद्धागमीयम् // 183 / / जैनेन्द्र शासनं तूदितमिह निखिलं सापवादं न चान्यत् , यावान् स्याद् बन्धहेतुर्भवगतिधरणे मोक्षसाध्येऽपि तावान् / कर्मोद्वान्त्येकहेतुर्भवति परमिहोत्तीर्णमाप्तागमान्न, प्रोक्ता. यस्मादनेके जिनपतिमदितोत्थापका निवत्वे // 284 // P.P.AG. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ... आगममहिमा लिखिताऽऽगमसन्ततिरिद्धतरा, देवर्द्धियुतैः क्षमया श्रमिभिः / अनुयोगतया स्कन्दिलगणिभि-रनुतीर्थं भव्यजनैः सेव्या // 185 / / श्रद्धावानपि शुद्धकायवचनो गुप्तिं च यो मानसीमत्युग्रां प्रतिपादयन्नपि नरः सद्ध्यानगो वन्दकः / इद्धोऽष्टाभिरपीह बुद्धिसुगुणैश्चेतोहरो ज्ञानिनां, . श्रोते नैव मतोऽर्ह आगमततेश्चेच्छ्रद्धया सोज्झितः // 186 / / व्याख्याता मुनिरिष्यते लघुतमः शुद्धागमस्यापरै___ ज्येष्ठायेंर्गुरुपर्ययैर्गुरुगुणैर्वन्द्यः श्रुतोद्देशतः .. अन्वाख्यातृपदोपगोऽपि सुमुनि (लघुर्मुनिररं) वन्द्यः समैः श्रोतृमि नों चेत्तीर्थकराध्वलोप (पलाप) दुरितं मत्वाऽऽगमान् संश्रय पार्श्वस्थोऽपि च वन्द्यतापदगमी ज्ञाने चरित्रे दृशौ, . शुद्धानां जिनशासनाश्रयजुषां सत्संयतानामपि / चेद् व्याख्याति जिनागमानविदितान् सत्संयतानां गणै- , स्तन्मोक्षार्थपरैः सदा शुचितमाः सेव्या जिनेन्द्राऽऽगमाः // 188 / / वर्षासु प्रत्यलो नो विहृतिमतिकृते देशपुर्यन्तरेषु, - सत्साधुः संयमाढ्यः क्षितिजलमरुतां धूमयोनेर्वनस्य / रक्षायां सर्वदोत्को यदिपरमपरं ज्ञानिनं प्रायसंस्थं वित्त्वा छेदं श्रुतानां विहृतिमनुसरेदागमाः किं न नव्याः // 189 / / स्मारं स्मारं जिनपतिजनितामागमानां सुपक्तिं, * कारं. कारं तदुदितिविमलां सत्क्रियाणां प्रवृत्तिम् / धारं धारं गतिधृतिशयनोक्त्यासनेषूप्रयत्न, लब्ध्वाऽसङ्गां निखिलविदमितो निश्चयान् मोक्षगामी // 19 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आगमोद्धारककृतिसन्दोहे क्षमाद्यैः सद्धमैदशविमितैः सद्यतिमतैभवेत् सम्पूर्णोऽङ्गी तदपि न शिवं प्राप्तुमनघः / अवाप्यैताञ् शुद्धागमततिमतान् मोक्षमयते ह्यनुष्ठानं सम्यग्वचननिजधर्माद्यनुगतम् // 191 / / अपूर्वेयं भूतिर्जगति न मता नेक्षितिमिता, विभावं यद् द्रव्यं भवति पुनरस्मात्तदुभयम् / जिनाद् द्रव्योद्भावो भवति गणिनां तवयमयं, तवेदं चेत् साक्षान्न नमति नरस्त्वागमततिम् // 192 / / चित्रं चित्रं तदेतज्जगति जनमतं चित्रमेतद् विचित्रं, नित्यं नित्यं स्वकान्यप्रकथनपटुतोद्घोष्यते ह्यागमानाम् / अंशे साऽनन्तमात्रे समविद उदितिः कथ्यभावेषु यस्मान् , मान्यो मान्यो हि लेशो वियति हरिरिवार्हत्सदुक्तागमाद्वै // 193 / / आगमा ह्यगमा बहुशोऽत्र सर्ववेत्रभिहिता ननु विश्वे ऽनन्तभोगमनुसारिण एते ते परे च विदिता गणभृद्भिः / शेपकाः समता भवनं न धारकाः श्रुतततेरखिलाया, यन्मतं श्रुतधारिभिरत्र स्थानषटकमखिलागमबोधे // 194 // यो नैवागमतत्त्वबोधरसिको जीवादितत्त्वं ततः, सम्यगू यो न परीक्षते न स बुधो मार्ग श्रितो निश्चलम् / नासौ वेत्ति यदागमस्य मननं सर्वाश्च चेष्टास्तत- . श्वेत् स्यात् तत्परमात्मभावदमऽरं स्यादन्यथाऽप्यन्यथा // 195 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 आगममहिमा स्यादागमैकरसिको नर इद्धबोध-स्तत्त्वं शुभं जिनगतं हृदयेऽनुविभ्रत् / ज्ञाता तदीयगुणसञ्चयशुद्धतायाः, स्यात्तत्र तत्र परमादरभाक् च नित्यम् गुराधनतत्परा नर इमे साक्षात् सहस्रात्परे, दृश्यन्ते शुभयोगविघ्नविगमे बद्धादराः स्वल्पकाः / तेषां या परिसेवना सुविधिना साप्यल्पकानां चतो, यः स्यादागमतत्त्वबोधरसिकः स स्यात्तथाचारवान् // 197 / / यो ह्यागमपरतत्त्वमीक्षत इहावर्तान्त्यभागागतो, .. नाऽसौ पश्यति धर्मतत्त्वनिपुणः शास्त्रेऽपवादात्मताम् / यावच्चक्षुषि वर्त्तते तिमिरकं तावद्यथार्था न दृक् , तत् सुज्ञः परमादरे धृतमनाः शुद्धागमं संश्रयेत् // 198 / / सुपात्रं यदानं भवशतसहस्रेषु सुलभ, ' न, जीवानां जातु प्रचुरतरपापाक्तमनसाम् / यदा जीवे भावः प्रचुरतरपक्षकसुभगो, ... महादानं लब्ध्वाऽऽगमततिरसश्चेद्धृदि भवेत् // 199 / / अनन्यावर्तेषु प्रचुरतरसत् पुण्यसुभगं, ... भवेदानं यस्मात् सुरनरगतं सौख्यमतुलम् / अलं मोक्षायैकं भवभयभृतामागममतं, महादानं प्रान्त्ये सततविधिसत्पात्रसहितम् // 200 / दायं दायं मुनिभ्यो विधियुतममलं दानमाप्नोति सौख्यं, . ध्यायं ध्यायं जिनानां निरघविधिपदं यत् करोत्यागमानाम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे 231 धायं धायं गुरूणामनुमतिममलां भृत्यवर्गस्य बाधां.. हारं हारं तदेतच्छिवपदसुभगं सेवनीयं महाङ्कम् // 201 / / जिना दीक्षायाः प्राग् ददति दानं तु शरदः, सदा प्रोक्तं शास्त्र जिनमहादानममितम् / .., यदि श्रित्वा शुद्धागमततिं. दानमयते, तदेतच्छ्रेयस्यै ननु महादानममलम् वा // 22 // नास्ति विशेषो भक्तेः प्रीतेर्जिनपवृपादरे, ह्यागमवाक्यात् सद्बुद्धीनां दानादि (सुकृत) समादरे / सदनुष्ठानेऽस्त्येषोप्यत्रागमे परमादराद्, धामाबाधं सत्साधूनां भवेदत एव हि - // 203 / / त्यक्त्वा गेहं तातं जननी तनूजमिहाङ्गनां.. 1. बन्धुं ज्ञातिं पुत्री पुत्रं मित्राणि च सौहृदान् / जातः साधुस्तत्साफल्यं कालादिविधानतो, विनतः सूरौ चेत् सन्धत्तेऽनघागमसन्ततिम् .... // 204 / / पूजां सत्परमेष्ठिनां यदि भवान् कुर्यात् त्रिसन्ध्यं सदा, पुष्पाद्यैवरसाधनैः शुचितरैर्भद्रान्तिकां सर्वदा (तः) / . सा. चेदागमसङ्गता यदि तदाऽव्यावाधसम्पत्तये, नाम का नो चेत् सा परमार्थसिद्धिविकलं दद्यात् सुरादेः सुखम् // 205 / / ध्याने यो निरतः शुभो मुनिगणः सालम्बने शुद्धिदे, ध्याताऽसौ जिनसम्पदं सुरकृतां छत्रादिकामूर्जिताम् / दृष्टो नैव जिनो न चाऽमरकृता शोभा प्रतीहारिणी, मत्वाऽसौ जिनपागमेभ्य उदितध्यानोऽपरालम्बनः / - // 206 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 का आगममहिमा मोक्षायोद्यत आर्हतः खलु भवेत् प्रीतः पदार्थव्रज, पर्यायात्मकतां श्रितं प्रणिदधन् मोक्षो भवो नान्यथा / दुःख्येवाऽसुधरो जनो भवततौ शश्वत्सुखं स्वे स्वदम् , श्रद्धायाऽऽगमसन्ततः परमिदं युक्तं बुधो मन्यते // 207 / / साध्यं सिद्धिपदं सदा भवभृतां नान्यत्र दुःखान्तको, दुःखाभिन्नमपातसंयुतमलं प्रेप्साथितिर्यत्र नो / ताहक सौख्ययुतं पदं यदि परं नान्यत् कचिद्विद्यते, निश्चेयं पुनरेतदाप्तकथिताच्छुद्धागमात् पण्डितैः // 208 / / नाशास्त्रं मतमस्ति सम्मतिपदं विद्यामुखानां जने, :: तत्राप्येक उशन्ति वक्तृरहितं तत्कल्पितादीश्वरात् / एके रागद्विषादिसङ्गतिपरादग्न्यादितः केचन, सर्वज्ञोदितमागमं. यदि परं मुक्त्युन्मुखा आर्हताः // 210 // सत्यं शास्त्रमवाक्कृतैनररवैस्तुल्यं परं गम्यते, व्याख्यात्रा निजबुद्धिवैभवबलाल्लोके यथाचार्यते / " आरम्भे च परिग्रहे यदि परं प्रस्ताऽनृतं ख्यापये- द्धन्योऽसौ जिनपांगमो निगदितो योऽकिञ्चनैः साधुभिः // 210 // परे जिनोक्तान्मततो विदूरगा वदन्ति भावं विगुणं गतक्रियम् / / परम्परानिर्गतमुद्भवंते खपुष्पतुल्यं न तथा जिनागमाः // 211 // अनेके गुणाः कारणात्तु स्वकीयात् , प्रजाताः क्षणे नाद्यमाप्यं गुणैस्तत् / तथोद्भावने तत्परो नैव जैनः , कथञ्चिद् भवेदागमः शुद्धदेष्टा // 212 // द्रव्ये क्रियायां च गुणेषु नित्यं, सत्त्वं परार्थप्रतीतिनिवेद्यम् / 'सतो ह्यसत्त्वं परतीथिकानां, स्वभावसत्तोद्भवनो जिनागमः / / 213 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WA आगमोद्धारककृतिसन्दोहे - 233 समवायं समवायो विदुषां परिपठति कल्पितमवाये / निखिला गुणादयोऽथ, श्रितास्ततो नागमस्त्वेवम् // 213 / / साधयं वैधयं, पदार्थधर्मों तथा मतिर्मातुः / / समवेतमेकमन्यन्न तथेति जिनागमो नैवम् // 214 / / तादात्म्यतो ह्यभावाः, श्रिताः परं वस्तु भिन्नताश्रयिणः / इदमन्योऽन्यविरुद्धं, न वक्ति जिनपागमो जातु // 215 // यो ग्रन्थस्य गतान्तरायचरमप्राप्त्यै विधत्ते बुधः, शास्त्रे मङ्गलमादितः स मनुयात् प्राग् जन्मतो नास्तिकान् / माङ्गल्यैकविधी नु तात नुहं धमोंडुरा नास्तिकान् , (?) नो जैनागममाश्रितः कृतगुणं ह्याप्तं स्मरन् मङ्गले / // 216 / / यो जैनागमबाह्यगः स मनुते स्रष्टारमुत्कर्मणं, जीवानामशुभं शुभं च नियतं कर्मोपभोक्तेश्वरः / सृष्टेयत् प्रविधानमर्हति ननु शून्योऽस्य पुण्यं न तत् , मन्येताऽकृतसङ्गमं कृतहतिं हाऽन्यागमानां स्थितिम् // 217 / / विदितं विदुषां निचयस्य सदा, नहि कार्य स्यात् क्रियया रहितम् / मनुते परमेश्वरमक्रियकं, समकर्तृपदं न जिनागमगः // 218 / / मनुतेऽक्षजमर्थसमं ज्ञानं, जगतां परमीश्वर ऊरीकृते / रहितं मतमुत्तमज्ञानमरं न जिनागम एवमयुक्तिपरः (दः) // 219 / / नाकारणं कार्यमिहास्ति किञ्चि-दिति प्रवादों विदुषां गणैर्मतः / तथापि जैनागमबोधशून्या अपितृकं पुत्रमुदाहरन्तिः // 220 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 को आगममहिमा न मातृशून्यस्तनयस्य सम्भव, आबालगोपालमितीह सिद्धम् / म्लेच्छा हि तातं परमेश्वरस्य, लुम्पन्त आख्यान्ति प्रसूं न का चाऽऽगमाः // 221 // इमे बाह्यास्तीर्थ्याः कथमपि नहि प्रोतति विभोर्वचस्तेषां कण्ठे लुठति फणिवत्मानरहितम् / समं विश्वे दृश्यं भवति विभुतः कायरहिता दितीक्षित्वाऽयं ना भवति नितरामांगमरतः // 22 // परैः पदार्था उदिता विहीनाः, शक्त्याऽत्र नार्थोऽस्ति विहीनशक्तिः / / नासौ क्रिया नैव गुणश्च नार्थों, जिनागमज्ञैर्व्यथितं जगत्परम् / / 223 / / 1. पदार्थानां चित्रां ननु च जगता शक्तिममितां, पृथिव्यम्भोवायुप्रभृतिभावेषु नियताम् / विबुध्याऽध्यक्षं द्राग् यतत इह तन्मतिमती, तकां श्रित्वा सम्यग् जिनपकथिताऽऽगमगतिः // 224 / / जाता नैव सचेतना न च पुनश्चैतन्यशून्या अपि, .. . तेनानहविभागमाहुरनलाः पृथ्व्यादिद्रव्याश्रितम् / भूतग्रामविधानतो विधिरिह प्राणेष्वपि प्रासुके, ह्यौदारादिविभागमाहुरमला जैनागमाः सत्पथाः // 225|| द्रव्याण्यनन्तानि भिदोऽप्यनन्ता, वोध्यानि सर्वज्ञपदोक्तिमानात् / तद्रव्य-तभेदविधावबोधो विरागसर्वज्ञनरागमे न // 226 / / जीवोत्क्रमोद्भावितभूरिभेदाः, क्षित्यादयो नाणुभिदोद्भवास्तत् / अन्यान्यनामेन भिदाविरोध औदारिकाद्या बहुभिजिनागमे / / 227|| P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे . .. 235 अनन्ता अर्थानां जगति विभिदो व्यक्त्यनुसृता, . द्विकास्तज्जात्या भवति विज्ञातमिति विदा / ततो ध्वान्तच्छायाप्रभृतिसद्रव्यपटुता, ती . . जिनोक्तानां सिद्धा प्रमितिपदमाप्तागमततिः नः // 228 / / गुणान् पर्यायांश्चागमततिरिहानन्तगणिता-.. . नुवाच प्रत्यर्थं विबुधगण इत्थं मंतिमयेत् / शिशुक्रीडाप्रायं परमतततौ मानमुदितं, : न चाध्यक्षो बाधो ह्यवगत इहान्यैः कुमतिभिः // 229 // द्रव्ये गुणे परिमितिं न कणाद आह, युक्त क्रियाभिरनुगामिभिरुत्पथाग्यैः / सोक्ता विचक्षणपदाय पराभिलाषै.....: नैपोऽस्ति विप्लव इहागमसम्प्रदाये... // 230 // वैशेषिकेण विदितं कथितं स्वसूत्रे, . व्यावर्त्यधर्मसदृशात्मकमर्थजातम् / / नित्यादिषु प्रमुखधर्ममुवाच शिष्य, आप्तागमोक्तिविमुखैन विडम्बितं किम् ? // 231 / / . साधादिमतेः शिवं कणभुजोऽव्यक्तादितत्त्वावनात् , साङ्ख्याः , शैवमुरारिधर्ममतयो भक्तेश्च वेदान्तिनः / विश्वस्वप्नसमानतामतिगुणाच्छाक्या निरात्मत्वतः, 12. उचुस्तरणे यथा मतिक्रिये (गती) जैनागमास्तद्वयम् / / 232 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 . * आगममहिमा ज्ञानानन्दविवर्जितं खलु शिवं वैशेषिकाः कल्पितै- . १ःखेमुक्तिमिहाक्षपादमतिकैर्वेदान्तिभिब्रह्मणि / मेलं वैष्णवशैवशास्त्रमतिभिर्देवात्मनोः सल्लयं; नित्यानन्दसुखाश्रयं गतभवं जैनागमास्तच्छ्रिताः // 233 // पदार्थे सत्त्वं यन्न च खलु पदार्थात्मनि गतं,' मा स्थितं तत्तस्मिन् यद् बहिरनुगतो बन्धनयतः / / इदं मन्वानोऽयं विदमभिगतेऽर्थेऽखिलगतां, कणादोऽध्यक्षं सा न भवति हतिः स्वागमततौ // 234 // मोक्षायाऽऽलिखिता शुभा मुनिवरैर्लोकोत्तरा पद्धति स्या चेत्तनुरर्यते रिपुजनैः सत्कार्यते सौहृदैः / श्रीखण्डेन, तथापि शुद्धमनसः साम्यं द्वयेऽस्मिन् भवेद्, / वैराग्याप्तसमज्ञता जिनमते योग्यागमानां ततिः // 23 // समस्ता विद्वांसो विदितविविधार्थोच्चयगणा, न देवाद्यैर्वायं मरणमनिशं यन्निखिलगम् / न चानायुष्कोऽत्राणति विदितसर्वोषधिगण- स्तथाऽप्यङ्गी नित्यं तदुभयमना आगम ऋणः // 236 // लोकोत्तराध्वगमिता वतिनां विशुद्धा, , यन्मोक्षमेव विविधक्रिययाऽऽतुमिच्छा / देवासुरादिसुखसाध्यपरा इमेऽन्ये, .. .... कोऽन्यो वदेजिनवरागमतोऽपरोऽदः / // 237 // .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे 237 / दुःखं सर्वसुरासुरोरगगतान् मृत्योरसूनां दृढं, . ____सौख्यं पौद्गलजालसम्भवमलं स्यात् प्रार्थनायाः पदम् / एवं कर्मनिबन्धनकविधुरः प्राणी भवेऽटाट यते, धन्योऽयं जिनपागमो यदुदिता मोक्षकमार्गप्रथा // 238|| हा हा ! भीषणकाल एष न यतः सत्यार्थदृब्धौ रताः, - "सूर्याद्याः प्रचुराश्च पुस्तकपरावर्तोद्यता वादिनः / भूमीशा विबुधाश्च पक्षपतिता दाक्षिण्यलोभोद्यता,. 1. अल्पा मार्गरतास्तथापि जयवानाप्तागमः शुद्धवार // 239 // स्वप्नोपमं वै सकलं ब्रुवन्नयं, वाक्यं स्वकीयं व्यथितं निवेदयेत्।। तथैव सर्वं क्षणिकं विवोधयन्न चैष बाधनिगमागमे. भवेत् // 240 / / अतीन्द्रियार्थं नहि वेत्ति कश्चि-च्छिवं भवो वा न च वेदनीयः / तथापि तद्वाच इयं कुतीर्थिता, स्वोक्तेर्न बाधाऽऽगम आप्तसम्मते॥२४१॥ सौख्यं दुःखं ज्ञानं भ्रान्ति, पश्यन् प्राणिपु चित्रविचित्रम् / आत्मैको विश्वव्यापी वा-बक्ति विरुद्धं न तथाऽऽगमगीः // 242 / / चार्वाकः पूत्कुरुते नास्ति, परभवगामी चेतनयुक्तः / ... जातिस्मृतिदुःखाभ्यां विद्ध, आगममेवाऽऽश्रयते शरणम् // 243 / / मानं ह्येकं मतमध्यक्षं, श्रोतृञ् शासन् न धरति लज्जाम् / म शब्दाद्वाच्यविवोधं कुर्व-नाध्यक्षेतरवाद्यागमवाक् // 244 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / मुनिवसन-सिद्धिः / 5 / वितथवादशिरोमणितां दधत्, विगतवस्त्र इदं जिनशास्त्रगम् / ... अनृतमाह सुशुद्धसितांबरान् , विविधमोहमुदीरयितुं रयात् . // 1 // गणभृता गदितं सितवाससां, प्रथमशास्त्रगतं जिनकल्पिनाम् / पदमधारयतां सिचयावलीं, प्रथममिद्धगुणा ननु नग्नता // 2 // वितथवादमिमं गतवाससां, गतहृदस्तव मन्वत आस्तिकैः / कृतममन्यत नाप्तमतं यकै-र्वचनमागमगं श्रवणे सुधीः / / 3 / / श्रुतमतं जिनवीरविभोर्न किं, वसनधारणमब्दमुपाश्रितम् / अधिकमासयुतं सुरनायक-प्रणतपादयुगस्य दिगंबर ! // 4 // श्रुतसमुच्चय आद्य उदीरितं, विमलसंयमशालिजिनांसगम् / सिचयमाप्तवरैः प्रथमेऽङ्गके, कथय दिग्बसनोऽनृतवाग् न किम् // 5 // सुरवितीर्णमुपाश्रितवान् जिनो-ऽम्वरमिति प्रतिपादितवान् गणी / श्रुतसमुच्चय उत्तर आदिमे-ऽङ्ग इह साधुसमूहविराजितः // 6 // जगदुरर्हदुपासनतत्परा, गणिवराः श्रुतसागरपारगाः / वसनमानमुदस्तपरिग्रहा, मनसि बोटिक ! तन् ननु चिन्तय // 7 // गणधराः समवायकृतान्तर्ग, वच इहोदितवन्त उदित्वरम् / चरमतीर्थपतेर्वसनादृता-बधिकवर्षमिति प्रविचिन्तय // 8 // इषुमितेऽङ्ग उवाच गणाधिपो, विपुलपर्वत आइतपादपे / ऋषिवरे खलु खन्धक आर्हती, समुचितापकृति ननु पश्य तत् // 9 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 मुनिवसन-सिद्धिः न च वचो वचनीयमपाकृत-नयचयं जिनकल्पयुजो वयम् / न हि भवन्ति तके सिचयोज्झिताः, सम इहोपधिभेदविचित्रता // 10 // न च रुषस्तव युक्तिपदं धृते, मुनिवरैः शुभसंयमहेतवे / ' उपकृतौ क्षम उज्झितसङ्गमै रजहरप्रभृतौ शिवसाधने // 11 // जनिरभूत्तव निश्चितमूह्यतां, विशदवासस उत्तमसाधनात् / इतरथा कथमम्बरवर्जनं, तव मतस्य रवे स्फुटमीक्ष्यते // 12 // यदि परं सितवासस उद्भवस्तव मताद् वसनोज्झननर्तनात् / ससिचया इति तस्य मताभिधा, प्रसृमरी भवतीह न चान्यथा // 13 / / तव मते वृपसाधन उज्झिते, वनितया चरणं न हि साध्यते / शिवपदं न च केवलयुक् पुनः, तदहहाङ्गजहेतुरिलाहतिः // 14 // न च गताम्बरिका न हि योषितः, परमते यदिमा वसनोज्झिताः / स्फुटतरं तु निभालय योगिनीन रुचिरं रुचितं तव तन्मतं // 15 // शिशु-मदाविल-भूतगणार्दितो, भवति नग्न इहापि न शम्यसौ / जिनप-शासनसम्मतमाश्रयावसनवर्जनमाश्रवसंहतेः // 16 // स्वपर-लिङ्गि-गृहाश्रितलिङ्गिनां, निगदिता पदवी शिवभाविनी / श्रुतततौ घटते शुभभाविना-मनुमतं तदिहाम्बरवर्जित ! // 17 // . ममतया रहितो मुनिराहतो, यदि परो भवतीह शिवं गमी / मतमिदं सकलाघविनिर्गतं, श्रयति शुद्धमनाः श्रुतभावुकः // 18 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Serving.Jinshasan 199731 gyanmandir@kobatirth.org आगमोद्धारक-ग्रन्थमालाना प्रकाशनों " 1 सर्वज्ञशतक सटीक, महोपा. श्री धर्मसागरजी कृत पत्राकारे 2 सूत्रव्याख्यानविधिशतक, बुकाकारे 3 धर्मसागरग्रन्थसंग्रह, " 4 औष्ट्रिकमतोत्सूत्रप्रदीपिका, 5 तात्त्विकप्रश्नोत्तराणि, श्रीआगमोद्धारककृत पत्राकारे 6 आगमोद्धारककृतिसंदोह, विभाग 1-2-3-4 " . वुकाकारे . विभाग 5-6 8 प्रथमद्वितीयविंशिकानी टीका, , चुकाकारे विभाग 1-2 9 न्यायावतारनी टोका , बुकाकारे * 10 आगमोद्धारकथीनी श्रुतोपासना, , 11 कुलकसंदोह, श्रीपूर्वाचार्यकृत 12 संदेहसमुच्चय, श्रोशानकलशसूरिनिर्मित , 13 जैनस्तोत्रसंचय, श्रीपूर्वाचार्यकृत विभाग 1-2-3 14 गुरुतत्त्वप्रदीप, चिरन्तनाचार्यकृत युकाकारे * (उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरनाम) 15 शतार्थविवरण, गणिवर्य श्रीमानसागरजीकृत बुकाकारे प्राप्तिस्थान श्री जैनानन्द-पुस्तकालय, सुरत गोपीपुरा / - P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust