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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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गवेषणाशील तार्किक मनीषी : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० धर्मचन्द जैन* प्रोफेसर सागरमल जैन से मेरा प्रथम परिचय सन् १९८२ में ऑल इण्डिया ओरियन्टल कॉन्फ्रेन्स के जयपुर अधिवेशन के समय जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान, जयपुर में हुआ। तब आप वाराणसी से अपने दो-तीन शिष्यों के साथ ओरयिण्टल कान्फ्रेस में पधारे थे। उसी वर्ष में संस्कृत में एम० ए० उत्तीर्ण करके राजकीय महाविद्यालय में सेवारत हुआ था। उस समय आपसे हल्का सा परिचय हुआ। उसके पश्चात् मैंने अपने पी-एच०डी० के विषय के चुनाव हेतु आपसे पत्रव्यवहार किया। आपने अत्यन्त तत्परता से मेरे पत्र का उत्तर देते हुए शोधकार्य हेतु अपने विषय सुझाए । इसके पश्चात् आप के दर्शन सन् १९८६ में अहमदाबाद में हुए । आप वहाँ पर गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित 'जैन आगम-संगोष्ठी' में भाग लेने पधारे थे । मैं भी तब अपना एक निबन्ध तैयार करके ले गया था । आपका एक शोध-निबन्ध प्रश्नव्याकरण की विषय वस्तु पर था जो उस समय पुरस्कृत घोषित हुआ था । तब मैंने देखा कि आप एक विषय पर कितना गम्भीर और सूक्ष्मतार्किक विश्लेषण करने की दृष्टि रखते हैं।
___ डॉ० सागरमल जैन सरलमना, साधनाशील एवं गवेषणा-स्वभावी मनीषी हैं। आपका जीवन जैन-विद्या के लिए समर्पित है। आपने आगम, दर्शन, इतिहास, तंत्र, संस्कृति, भाषा आदि सभी क्षेत्रों में भारतीय-विद्या की सेवा करते हुए उत्कृष्ट लेखन कार्य किया है । आप प्रत्येक विषय की तलस्पर्शी गहराई में पहुँचकर उसका अध्ययन करते हैं तथा सुग्राह्य युक्तियों से अपना मत प्रस्तुत करते हैं। आप श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कुल में जन्म लेकर भी निष्पक्ष रूप से समूचे जैन वाङ्मय का अवगाहन करने में एवं तथ्यों का विश्लेषण करने में किसी भी प्रकार की हिचक नहीं रखते । आपका सम्पर्क सभी सम्प्रदायों के सन्तों, विद्वानों एवं श्रावक-श्राविकाओं से है । आपकी सन्निधि में रहकर कुछ जैन सन्तों ने एवं अनेक जैनेतर विद्वानों ने जैन-विद्या का अनुशीलन किया है तथा पी-एच०डी० जैसी उच्च उपाधि भी प्राप्त की है।
कलकत्ता में आयोजित ओरियन्टल कॉन्फ्रेन्स के अधिवेशन में डॉ० सागरमल जी से १९८६ में ही पुनः मिलना हुआ । आपका मेरे प्रति सहज स्नेह है । आप मुझे अपने पुत्र की भाँति समझते हैं । कलकत्ता से प्रस्थान करते समय आप मुझे अपने साथ वाराणसी ले आये । पार्श्वनाथ विद्यापीठ का परिसर दिखाया । मैं वहां दो दिन रुका तथा अपने शोध कार्य 'बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैन-दृष्टि से परीक्षा' विषय से संबंद्ध ग्रन्थों का अनुशीलन किया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ का पुस्तकालय केवल जैन विद्या की दृष्टि से नहीं, अपितु इण्डोलॉजी की दृष्टि से भी एक समृद्ध पुस्तकालय है । मुझे उन दो दिनों में अपने शोध कार्य के सम्बन्ध में डॉ० सारगरमल जी से मार्गदर्शन मिला। विद्यापीठ की यह यात्रा मेरे लिए एक सार्थक यात्रा रही। हृदय के कोने में एक भावना जागृत हुई कि मैं भी कभी वाराणसी आकर रहूँगा । यह भावना अभी तक फलीभूत तो नहीं हुई है, किन्तु इस संस्थान के प्रति आदर का भाव ज्यों का त्यों है ।
सन् १९८८ की जनवरी में पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने अपने स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर एक अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया जिसमें जयपुर से डॉ. नरेन्द्र भानावत के साथ मैं भी भाग लेने हेतु पहुँचा था । यह एक बृहत् संगोष्ठी थी, जिसमें विविध विषयों पर तीन दिनों तक भिन्न-भिन्न वर्गों में शोध-पत्र प्रस्तुत किये गए । इस संगोष्ठी में देश भर से लगभग ३०० विद्वान् उपस्थित हुए जिनमें जैन विद्या के क्षेत्र में प्रतिष्ठित पं० दलसुख मालवणिया जैसे अनेक प्रमुख विद्वान् भी विद्यमान थे । डॉ० सागरमल जी ने इस संगोष्ठी का बहुत ही सुन्दर रीति से आयोजन किया। संगोष्ठी में डॉ० दयानन्द भार्गव की अध्यक्षता में जैन-न्याय विभाग के अन्तर्गत मैंने 'जैन हेतु-लक्षण' पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया था जो प्रशंसित एवं पुरस्कृत हुआ। इस सम्मेलन के समय यह योजना बनायी गयी थी कि इस प्रकार सम्मेलन प्रत्येक दो वर्ष में अलग-अलग नगरों में आयोजित होगा । किन्तु देश का यह दुर्भाग्य रहा कि इस प्रकार का सम्मेलन गत दस वर्षों की
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