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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सत्सङ्गका सौरभ
डॉ० रतनचन्द्र जैन* सन् १९७२ का वर्ष । मैं रीवा (म०प्र०) से स्थानान्तरित होकर भोपाल के शासकीय हमीदिया महाविद्यालय में आया था । अप्रैल का महीना था । पढ़ाई खत्म हो चुकी थी । परीक्षाएँ चल रही थीं। प्रिंसपल साहब ने परीक्षा-अधीक्षकों को मुझे निरीक्षणकार्य में लगाने हेतु आदेश दिया । उस समय निरीक्षण कार्य स्वीकार करने में शिक्षक हिचकिचाते नहीं थे। जनसंख्या इतनी अधिक न होने से छात्रों की संख्या भी अधिक नहीं रहती थी । सो मैं निरीक्षणकार्य करने लगा । आदरणीय डॉ० सागरमलजी परीक्षा की एक शिफ्ट में अधीक्षक थे । वहाँ उनसे मुलाकात हुई। बड़े प्रसन्न हुए जानकर कि एक और जैन आ गया है, महाविद्यालय में । उन्होंने मेरा कुशलमंगल पूछा 'कहाँ ठहरे हो ? भोजन कहाँ करते हो ? घर चलो, वहीं रहना, जब तक व्यवस्था नहीं हो जाती ।' बड़ा अच्छा लगा सुनकर, जैसे किसी ने कानों में शहद घोल दी हो, शरीर पर रेशम का स्पर्श हो गया हो । वात्सल्य और ममत्व की धारा में सराबोर हो गया । लगा जैसे बड़े भाई के पास आ गया हैं। फिर तो रोज उनके पास उठने-बैठने लगा । दर्शन और धर्म की चर्चाएँ होती थीं, जिनसे चिन्तन और मनन के नये-नये द्वार उद्घाटित होते थे । घर जाता तो आदरणीया भाभीजी भी उतने ही वात्सल्यभाव से स्वागत करती थीं।
डॉक्टर सा० के सत्संग से मैं अनेक साधुओं और साध्वियों के सम्पर्क में आया । उन्हें संस्कृत और न्याय-ग्रन्थों को पढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इससे साधुजीवन को निकट से अनुभव करने का मौका मिला और हृदय में साधुत्व के प्रति श्रद्धा और आस्था का बीजारोपण हुआ। डॉक्टर सा० के साथ अनेक बार मन्दिरों और समारोहों में प्रवचन एवं भाषण के अवसर प्राप्त हुए। फिर उन्होंने मुझे भगवान् महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव में कई जगह व्याख्यान देने के लिए भिजवाया । आल इण्डिया ओरिएन्टल कान्फ्रेंस में शोधपत्र पढ़ने की प्रेरणा भी डॉ० सागरमलजी ने ही मुझे दी थी। उनके साथ दो बार धारवाड़ तथा पूना में आयोजित सम्मेलनों में मैंने अपने आलेख पढ़े और पूना में अपने आलेख पर 'मुनि पुण्यविजय जी पुरस्कार' प्राप्त करने का सौभाग्य मिला । मुझे प्रगति के इस बिन्दु तक पहुँचाने का श्रेय माननीय डॉ० सागरमलजी को
मेरे पी-एच०डी के शोधकार्य का मार्ग भी डॉक्टर सा० ने ही प्रशस्त किया था । शोधकार्य के लिए मैंने एक दुरूह विषय ले लिया था, 'जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन ।' इसे कैसे शुरू करूँ? किन-किन बातों का इसमें समावेश करूँ? किस-किस समस्या या विवाद का समाधान इसमें अपेक्षित है ? इस ऊहापोह में जब मैं था तब आदणीय डॉक्टर सा० ने मुझे आश्वस्त किया और बड़े प्रयत्न से विस्तृत रूपरेखा तैयार करवा दी, जिससे मेरा कार्य सुकर हो गया । जो मैं लिखता था उसे वे रुचिपूर्वक देखते थे और आवश्यक परामर्श देते थे। उनके सहयोग से मेरा शोधकार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
सन १९७९ में वे भोपाल से वाराणसी चले गये। तब मैं यहाँ अकेला रह गया, न केवल महाविद्यालय में, अपित् भोपाल में भी । किन्तु, फिर भी उन्होंने मुझे अपने साथ जोड़कर रखने का प्रयत्न नहीं छोड़ा। उन्होंने मेरे कई लेख 'श्रमण में प्रकाशित किये और शोधप्रबन्ध को प्रकाशित करने का प्रस्ताव किया। उसे भेजने में मेरी तरफ से काफी विलम्ब हुआ, किन्तु अन्तत: १९९७ में उनके ही द्वारा पार्श्वनाथ विद्यापीठ से मनोहररूप में प्रकाशित हुआ। डॉ० सागरमलजी ने मुझसे विद्यापीठ से सक्रियरूप से जुड़ने का भी आग्रह किया। मैं अगस्त १९९६ में तीन सप्ताह वहाँ रहा भी । वहाँ के तपोवनतुल्य परिवेश में मन बहुत रमा, किन्तु परिवार के साथ रहने का मोह न छोड़ सका, इसलिए भोपाल लौट आया। विद्यापीठ से अपनी सेवानिवृत्ति के बाद डॉक्टर सा० ने मुझे निदेशक-पद स्वीकार करने के लिए ट्रस्ट की ओर से पत्र भिजवाया, किन्तु उपर्युक्त कारण से ही इतने पवित्र और गरिमामय कार्य को स्वीकार करने का पुण्य नहीं कमा पाया, जिसका मुझे खेद है।
डॉक्टर सा० एक विद्वान् ही नहीं हैं, कुशल प्रशासक और व्यवस्थापक भी हैं । मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शासकीय हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में उन्होंने दर्शनविभाग को जिस तरह सँवारा और समृद्ध किया, वह किसी अन्य के बूते की बात नहीं थी । दर्शन विषय से जहाँ विद्यार्थी दूर भागते थे, वहाँ डाक्टर सा० ने अपनी शिक्षण-प्रतिभा और प्रबन्धकला से
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