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इसी प्रकार श्री अभयदेवसूरि कृत स्थानाङ्गसूत्र की टीका में भी कहा है ।
" श्री हरिभद्र सूरिकृताऽऽवश्यक वृहद्वृत्त्यभिप्रायेण नु तदा देवा एवाजग्मुर्नतु मनुष्यादयस्तथा च संक्षेप
तस्तत्पाठ:
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भगवतो ज्ञानरत्नोत्पत्ति समनन्तरमेव देवाश्चतुर्विधा उपागता आसन् तत्र प्रव्रज्यादि प्रतिपत्ता न कश्चिद्विद्यते, इति भगवान् विज्ञाय विशिष्ट धर्म कथनाय न प्रवृत्तवान् । इत्यादि यावत् ततो ज्ञानोत्पत्तिस्थाने मुहूर्त्तमात्रं देवपूजां जीतमिति' कृत्वाऽनुभूय देशनामात्रं कृत्वा असंख्य कोटि परिवृतो रात्रौ एव विहृत्य द्वादश योजनान्यतिक्रम्याऽपापापुर्याः समीपे महसेन वनं प्राप्त इत्यादिः ।
- " श्री हरिभद्र सूरि कृत ग्रावश्यक सूत्र की वृहद् टीका के आधार पर तो उस समय भगवान के समीप देवता ही आये थे मनुष्यादि नहीं । इस सम्बन्ध में संक्षिप्त पाठ इस प्रकार है कि भगवान को केवल ज्ञान होने के पश्चात् तत्काल ही चार प्रकार के देव ही आये थे । उनमें दीक्षादि व्रत ग्रहण करने वाला कोई नहीं है, ऐसा जानकर भगवान् ने विशिष्ट धर्मोपदेश नहीं दिया । इसके पश्चात् ज्ञानोत्पत्ति के स्थान पर एक मुहूर्त्त मात्र "देवपूजां जीत मिति" समवसरण की रचना यह देवों की पूजा है, ऐसा कहकर एवं अनुभव कर असंख्य देवों से परिवृत्त भगवान् रात्रि में ही बारह योजन का विहार करके पापा नगरी के निकट महसेन वन में पधारे ।
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