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- मिथ्यात्व दृष्टि वाले अभव्य या भव्य, असंयत भव्य द्रव्य देव साधु के गुणों को धारण करने वाले समग्र समाचारी की अनुष्ठान क्रिया से युक्त द्रव्य लिंग को धारण करने वाले ग्रहण करते हैं, वे समग्र क्रिया के प्रभाव से ही ऊपर के ग्रैवेयक में उत्पन्न होते हैं और चारित्र्य क्रिया करते हुए भी चारित्र्य के परिणाम से रहित होने पर प्रसंयत कहलाते हैं ।
इसी प्रकार प्रवचन सारोद्धार टीका के १०६ वे द्वार में भी कहा है
यथाः--“यत्तु यथाः-- "यत्त क्वचित् नव पूर्वान्तं श्रुतम् - अभव्यानाम् अङ्गारमर्दकाचार्यादीनाम् श्रपते, तत् सूत्र पाठमात्र तेषां पूर्वलब्धेरभावात् यद् वा नव पूर्वाणि पूर्ववर लब्धि विनाऽपि भवन्ति ।"
- जो कोई नव पूर्वान्त श्रुत अभव्य अङ्गारमर्दकाचार्य आदि का सुना जाता है, वह सूत्र पाठ मात्र से ही समना चाहिये, अर्थ से नहीं । क्योंकि प्रभव्यों को पूर्व लब्धि का प्रभाव होता है अथवा नत्र पूर्व पूर्वथर की लब्धि के बिना भी होते हैं ।
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प्रश्न ७१: - १ ग्रामर्षो षधि, २ विडौषधि, ३ खेलौषाधि, ४ जल्लोषधि, ५ सर्वोषधि, ६ संभिन्नश्रोत, अवधिज्ञान, ऋजुमति, विपुलमति, १० चारिण, ११ श्राशीविष, १२ केवल, १३ गणधर पद, १४ पूर्वधर, १५ तीर्थंकर, १६ चक्रवर्ती, १७ वासुदेव, १= बलदेव, १६ क्षीरासव मधुप्रासव सर्पिषासव, २० कोष्टक बुद्धि, २१ पदानुसारी,
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