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प्रश्न
( २०६ )
अपने शास्त्रों में कहे हुए तत्त्व पर श्रद्धा रखने वाले परपाखण्डियों को जिस प्रकार ग्राभिग्रहिक मिथ्यात्वी कहा है, उसी प्रकार अपने शास्त्रों में कहे हुए तत्त्व पर श्रद्धा रखने वाले जैनों को श्रभिग्रहिक मिथ्यात्वी क्यों नहीं कहा गया ? पाखण्डी स्वशास्त्र नियन्त्रित ( सीमित) ही विवेक रूप प्रकाश रखते हैं तथा पर पक्ष पर प्रतिक्षेप करने में दक्ष होते हैं । इसलिये उनको मिथ्यात्वी कहा है, परन्तु धर्म धर्म के वाद से परीक्षा पूर्वक तत्त्व का विचार कर अपने द्वारा स्वीकृत अर्थ पर श्रद्धा रखने वाले जैनों को पर पक्ष तोड़ने में दक्षता रखने पर भी श्रभिग्रहिक मिथ्यात्व नहीं लगता है; क्योंकि उनका विवेकरूप प्रकाश स्वशास्त्र से नियन्त्रित नहीं होकर सकल शास्त्र गत होता है । जो जैन अपने कुलाचार से नाम के जैन होने पर भी श्रागम परीक्षा की अवहेलना करते हैं अर्थात् अपनी मान्यता को ही आगम मान्यता मानते हैं, वे भी अभिग्रहिक मिथ्यात्वी होते हैं, क्योंकि सम्यग् दृष्टि की आत्मा परीक्षा किये बिना पक्षपात करने वाली नहीं होती । श्री हरिभद्र सूरिजो ने कहा है किपक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥
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उत्तर
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- मुझे श्री वीर भगवान के ऊपर कोई पक्षपात नहीं एवं • कपिल आदि के ऊपर कोई द्वेष नहीं । जिसका वचन युक्तियुक्त
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