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है मेरे लिये तो वही स्वीकार करने योग्य है । यह सम्पूर्ण प्रकरण धर्म संग्रह प्रकरण के अनुसार जानना चाहिये ।
इस विवेचन से जैनों को चाहिये कि अभिग्रहिक मिथ्यात्व का निराकरण करके सम्यक्त्व का प्रतिपादन एवं स्वीकरण करे । इससे जैन प्रभिग्रहित मिथ्यात्री नहीं होते अपितु सम्यक्त्व होते हैं, यह सिद्ध किया है, परन्तु वह क्षायिक श्रपशमिक एवं क्षायोपशमिक यह त्रिविध सम्यक्त्व चारों ही गति में प्राप्त होता है या नहीं ? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार है कि किन्हीं लघुकर्मी जीवों को प्राप्त होता है वह इस प्रकार कि ( १ ) नरक गति में प्रथम तीन नारकी में तीन प्रकार का सम्यक्त्व रहता है, उसमें क्षायिक तो पारभविक ही होता है, परन्तु वह ताद्भविक नहीं होता क्योंकि मनुष्य के समान उसी भव में नवीन क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती । श्रपशमिक सम्यक्त्व उसी भव का होता है एवं क्षायोपशमिक सम्यक्त्व दोनों भव का होता है । शेष रही चार नारकी में क्षायिक सम्यक्त्व होता ही नहीं है । क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व वाले वे चार नरक पृथ्वी में उत्पन्न नहीं होते दूसरे दो सम्यक्त्व होते हैं, यह पूर्वानुसार जानना चाहिये ।
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२ देवगति में वैमानिक देवों के तो प्रथम तीन नारकी के तीन प्रकार का सम्यक्त्व होता है, परन्तु भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्कों को क्षायिक सम्यक्त्व होता ही नहीं है, क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व वाली आत्मा उनमें उत्पन्न नहीं होती, दूसरे दोनों सम्यक्त्व पूर्वानुसार होते हैं । (३) मनुष्य दो प्रकार के होते हैं १. संख्यात वर्ष की आयु वाला एवं २ असंख्यात वर्ष की श्रायुष्य वाला इनमें संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले को औपशमिक सम्यक्त्व ताद्भविक होता है तथा क्षायिक एवं क्षायोपश
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