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( २०८ ) मिक उस ताभविक एवं पारभविक होते हैं और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्यों में प्रौपशमिक तथा क्षायिक सम्यक्त्व प्रथम तीन प्रकार के नारकी एवं वैमानिक देव के समान समझना चाहिये । क्षायोपशमिक तो कर्मग्रन्थकार के अभिप्राय से ताभविक एवं सैद्धान्तिक अभिप्राय से पारभविक भी होता है। (४) पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च भी मनुष्य के समान दो प्रकार के होते हैं। इनमें असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यञ्चों को तीन सम्यक्त्व मनुष्य के समान कहे हैं। तथा असंख्यात वर्ष को प्रायुष्य वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियञ्चों को तथा तिर्यञ्च स्त्रियों को क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होगा। दूसरे दो सम्यक्त्व पूर्वानुसार होते ही हैं। . शेष एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के तिर्यञ्चों को तीन में से एक भी सम्यक्त्व सम्भव नहीं है। । उपर्युक्त समस्त विवेचन प्रवचनोद्धार के १४६ वें द्वार में से. उद्धत कर संक्षेप में किया गया है । विस्तार पूर्वक जानने की इच्छा रखने वाले को उसकी वृहद्वृत्ति देखनी चाहिये। . इस प्रकरण में यह शंका होती है कि निश्चय नय के मत से तो संसार में एक धर्म है, दूसरे सम्यक्त्वादि तो धर्म के साधन हैं तो ऐसी स्थिति में जीव को धर्म की प्राप्ति कब होती है ? ____इस शंका का समाधान इस प्रकार है कि-धर्म संग्रहणी में निश्चय नय के मत से शैलेशीकरण के अन्तिम समय में ही धर्म की प्राप्ति होती है, उसकी पूर्व अवस्था में तो धर्म की प्राप्ति के साधन ही है। कहा भी है कि:
"सोउ भवक्खय हेऊ सेलेसी चरम समयभावी जो । सेसोपुण निच्छयो तस्सेव पसाहगो भणियो ति ।"
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