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- जिस प्रकार छद्मस्थ के मन की एकाग्रता को ध्यान कहा वैसे ही केवली भगवान के शरीर की स्थिरता ( काय निश्चलता) को ध्यान कहा है यह ध्यान लेशीकरण द्वारा होता है। इसके पश्चात् व शीघ्र अयोगिगुणस्थानक में जाता है।
आवश्यक भाष्य के अन्तर्गत ध्यान शतक में भी कहा है किजह छउमत्थस्स मणो काणं मन्न सुनिच्चलं संत। तह केवलिणो कारो सुनिच्चलो भएणइ झाणं ।।
-जिस प्रकार छद्मस्थ का अत्यन्त निश्चल मन ध्यान कहाता है, उसी प्रकार केवली भगवान् की अत्यन्त निश्चल हुई काया ध्यान कहाता है। प्रश्न १५१-तत्त्वरूप अर्थ पर श्रद्धा करने को सम्यक्त्व
कहते हैं । श्रद्धा अर्थात् यह वस्तु ऐसी ही है, ऐसा विश्वास होना यही विश्वास मन की अभिलाषा रूप है। इस प्रकार का विश्वास अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता परन्तु सम्यक्त्व को तो अपर्याप्त अवस्था में भी माना है। क्योंकि उसकी उत्कृष्टस्थिति ६६ सागरोपम की कही है । ऐसी स्थिति में यह लक्षण कैसे घटित
होता है ? उत्तर - तत्त्व रूप अर्थ पर श्रद्धा करना यह तो सम्यक्त्व का
कार्य है एवं सम्यक्त्व तो मिथ्यात्व मोहनीय क्षय-उपशमादि से उत्पन्न हुए. आत्मा का शुभ परिणाम रूप है और यह लक्षण तो मन रहित ऐसे सिद्ध भगवन्तों में भी व्याप्त रहता है। इसलिये ऊपर कहा हुआ दोष नहीं हो सकता है ।
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