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( २०४ ) अत्र विशेषो विशेषश्च ज्ञेय आवश्यकादितः ॥
इति तृतीय सगे भावना अधिकारे । काल सूक्ष्म होता है और उससे सूक्ष्म क्षेत्र होता है। क्योंकि अंगुल श्रेणिमात्र क्षेत्र प्रदेशों को समय समय पर निकालने से असंख्यात उत्सपिणिी काल पूरा हो जाता है । काल की वृद्धि में द्रव्य भाव एवं क्षेत्र की वृद्धि निश्चित रूप से होती है तथा क्षेत्र की वृद्धि में क्षेत्र की सूक्ष्मता के कारण काल की भजना होती है क्षेत्र की वृद्धि में द्रव्य एवं पर्याय की वृद्धि अवश्य होती है। इस सम्बन्ध में विशेष विवेचन आवश्यकादि सूत्र से जानना चाहिये। प्रश्न १५०-केवली भगवन्त के भी तेरहवें गुणस्थानक के
अन्त में सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति आदि शुक्ल ध्यान होता है ऐसा कहते हैं किन्तु ध्यान तो चित्त की एकाग्रता को कहा है और वह केवलियों के सम्भव नहीं है क्योंकि उनमें भावमन का प्रभाव होता है ऐसी स्थिति में शुक्ल ध्यान का कहना
कैसे संगत हो सकता है ? उत्तर- शास्त्रों में चित्त की एकाग्रतारूप ध्यान तो छद्मस्थ
को आश्रित कर कहा है। केवली भगवान के तो गुणस्थान क्रमारोह सूत्र की वृत्ति में कहा है कि-- काया की निश्चलता रूप ही ध्यान होता है, अतः
कोई दोष नहीं। छद्मस्थस्य यथा ध्यानं मनसःस्थैर्यमुच्यते । तथैव वपुषः स्थैर्य ध्यान केवशिनो भवेत् ॥
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