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करके फिर क्रमशः देव साक्षिक और गुरु साक्षिक करना चाहिये । जैसा कि योग शास्त्र के तृतीय
प्रकाश में कहा है:"ततो गुरूणामभ्यर्णे, प्रतिपत्ति पुरस्सरम् ।" विदधीत विशुद्धात्मा, प्रत्याख्यान प्रकाशनम् ॥" इसके पश्चात् देवन्दन के लिए पधारे हुए अथवा स्नात्र पूजा देखने या धर्म कथादि के लिए मन्दिर में विराजमान आचार्य आदि गुरुत्रों के समीप उचित स्थान में औचित्य पूर्वक साढ़े तीन हाथ प्रमाण क्षेत्र से बाहिर बहुमान करता हुअा अथवा द्धादशावर्त वन्दनादि पूर्वक प्रत्याख्यान करे। विशुद्धात्मा, निर्मलचित्त होना चाहिये। दम्भ (ढोंग) आदि से युक्त न हो। भगवान् वीतरागदेव के सामने किये हुये प्रत्याख्यान को गुरु महाराज के सामने प्रकाशित करना भी आवश्यक
इस प्रकार आत्मसाक्षिक, देव साक्षिक एवं गुरुसाक्षिक प्रत्याख्यान करना युक्त है। सारांश कि प्रतिक्रमण में स्वयं कर ले, फिर मन्दिर में देव के सम्मुख, और उपाश्रय में गुरुमुख से करना चाहिये। प्रश्न १२३-साधुओं को दिन में शयन करना शास्त्रनिषिद्ध
होने से दैवसिक प्रतिक्रमण में "इक्छामि पडिक्कमि पगामसिज्झाए' इत्यादि सूत्र से दिन से शयन करने के अतिचार का प्रतिक्रमण किसप्रकार संगत हो सकता है ? इसी प्रकार रात्रि में गोचरी जाना असम्भव होने पर भी रात्रि के
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