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( १८३ ) नौकान्तेन तत् प्रभानाशः सम्पद्यते सर्वस्य सर्वथा स्वभ वापनयस्य कतुम् अशक्यत्वात् ! एवम् अनन्तानन्तैरपि ज्ञानदर्शनावरण कर्मपरमाणुभिरेकैकस्यापि आत्मप्रदेशस्यावेष्टित परिवेष्टितस्यापि नैकान्तेन चैतन्यमात्र स्याभावो भवति, ततो यत्सर्वजघन्यं तन्मति श्रुतात्मकम् अतः सिद्धोऽक्षरस्यानन्ततमो भागो नित्योद्घाटितः ।" तथा च सति मतिज्ञानस्य श्र तज्ञानस्य चानादिभात्रः प्रतिपद्यमानो न विरुध्यते इति स्थितम् ।
जिस प्रकार सर्व द्रव्य पर्याय का परिणाम वाला श्रु तज्ञान है, उसी प्रकार मति आदि ज्ञान भी जानना चाहिये। क्योंकि इनमें न्याय की समानता है । यहां यद्यपि सामान्यतया सर्वज्ञान 'अक्षर' कहलाता है, और वह सर्व द्रव्य पर्याय का परिणाम वाला होता है, तथापि यहाँ श्रुत ज्ञान का अधिकार होने से 'अक्षर' अर्थात् श्रुतज्ञान ऐसा जानना चाहिये । एवं श्रु तज्ञान मतिज्ञान के बिना नहीं होता, इसलिये मतिज्ञान को भी उतने ही परिणाम वाला जानना चाहिये । उससे इस प्रकार जो अकारादिक श्र त ज्ञान उत्कृष्ट से सर्व द्रव्य पर्याय परिणाम वाला है, वह सर्वोत्कृष्ट श्र त ज्ञानी जैसे द्वादशाङ्ग के ज्ञाताओं को घटित होता है, दूसरों को नहीं । इसलिये प्राणियों का जो श्रुत ज्ञान अनादिकाल का कहा है, उसको जघन्य अथवा मध्यम जानना चाहिये, उत्कृष्ट नहीं।
शंका-यहां कोई अन्य कहते हैं कि-श्रुत ज्ञान अनादिकाल का ही है यह कैसे घटित होता है ? जैसे जब प्रबल श्रुत ज्ञानावरण एवं थिणद्धि निद्रारूप दर्शनावरण का उदय होता
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