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( १८५ ) प्रभाष नहीं होता है । इस कारण से जो सर्वजघन्य चैतन्य मात्र है वह मति-श्रत रूप है । अतः अक्षर का अनन्तवां भाग सर्वदा अनाच्छादित होता है, यह सिद्ध हो गया एवं ऐसा होने से मतिज्ञान श्र तज्ञान अनादिकाल के हैं इसमें भी कोई विरोध उत्पन्न नहीं हो सकता यह भी सिद्ध है। प्रश्न १३६ - केवली भगवान केवलज्ञान के द्वारा सर्व द्रव्य
एवं सर्वपर्यायों को प्रति समय साक्षात् जानते हैं, परन्तु केवल ज्ञान सम्बन्धी जिस स्वभाव से एक पर्याय को जानते हैं, क्या उसी स्वभाव से दूसरे पर्यायों को जानते हैं ? या अन्य स्वभाव
से जानते हैं ? उत्तर दूसरे पर्यायों को भिन्न स्वभाव से ही जानते हैं।
उस स्वभाव से नहीं । अन्यथा दोनों पर्यायों में एकत्व का प्रसंग प्राजाता है। इसलिये जितने जानने योग्य पर्याय हैं उतने ही उन पर्यायों का ज्ञान करानेवाले केवलज्ञान के स्वभाव जानना चाहिये । जैसा कि नन्दीसूत्र वृत्ति में
कहा है:"यावन्तो जगति रूपि द्रव्याणां ये गुरुलघुपर्यायास्तान् सर्वानपि साक्षात् करतल कलितमुक्ता फलवत् केवलाऽऽलोकेन प्रतिक्षणम् अवलोकते भगवान् । न च येन स्वभावेन एक पर्यायं परिच्छिन्नत्ति तेनैव स्वभावेन पर्यायान्तरमिति तयोः पर्याययोः एकत्व प्रसक्तः।"
इस पाठ का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में दे दिया है।
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