Book Title: Prashnottar Sarddha Shatak
Author(s): Kshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
Publisher: Punya Suvarna Gyanpith

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Page 253
________________ आवश्यक बृहद्वति के ध्यान शतक अधिकार में एवं योग शास्त्र को वृति में कहा है कि--"जयवीयराय" इत्यादि यह प्रणिधान निदान रूप नहीं है क्योंकि प्रायः यह आसक्ति-रहित अभिलाषा रूप है। - यह सब अप्रमत्त संयत नाम के सप्तम गुणस्थान की प्राप्ति न हो वहां तक करना चाहिये । अप्रमत्त संयतादि को तो मोक्ष में भी अभिलाषा नहीं होती इस सम्बन्ध में और अधिक जानने के लिये पूजा पचाशक की टीका देखनी चाहिये । प्रश्न १४७-दूसरे पुरुष के समान तीर्थङ्करों के पुरुष चिन्हादि देखने में आते हैं कि नहीं ? उत्तर- अत्यधिक गुप्त होने से गज एवं अश्वादि के समान देखने में तो प्रायः करके आते नहीं हैं। यहां प्रायः करके ऐसा कहने से गृहस्थरूप में साधारण तथा दृष्टि पथ में आने पर कोई दोष नहीं है। योगशास्त्र की वृत्ति के प्रथम प्रकाश में कहा है किस्वामिनः कुञ्जरस्येव मुष्कौ गूढौ समस्थिती । अतिगूढं च पुश्चिन्ह कुलीनस्येव वाजिनः ॥३०॥ सिद्धान्त में भी इस सम्बन्ध में क्या कहीं कुछ कहा गया है ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर में कहा है कि यह बात औपपा. तिक उपांग सूत्र की वृत्ति में कही गई है। यथाः- “वर तुरग सुजाय गुज्झ देसेति"श्रेष्ठ अश्व के समान जिनका गुह्य प्रदेश सुनिष्पन्न है । यह वीर प्रभु के वर्णन अधिकार में है। Aho! Shrutgyanam

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