Book Title: Prashnottar Sarddha Shatak
Author(s): Kshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
Publisher: Punya Suvarna Gyanpith

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Page 255
________________ ( २०१ ) इत्यादि महानिशीथ आदि आगम वचनों से--चैत्यवासियों का तथा अन्य का मिथ्याष्टित्व प्रतिपादित होता है। शंका---उस प्रकार के बिम्बादि दर्शन से भी किसी को सम्यक्त्वादि की उत्पत्ति होती है तो उनको वन्दन करने के लिए जाने में क्या दोष है ? समाधान--द्रव्य लिगियों द्वारा ग्रहण कराये गये चैत्यों में बिम्बादि के दर्शन से कभी किसी को सम्यक्त्वादि रत्न की उत्पत्ति चाहे होती हो, तथापि 'जइविह समुप्पामो कस्से वि" इत्यादि वचनों से कल्पभाष्य में निह्नव के समान उन चैत्यों का वर्जन करना कहा है। अतः विवेकी पुरुषों को वहां जाना उचित नहीं है। यह सारा प्रकरण प्रबोधोदय से संक्षिप्त करके यहां लिखा है। श्री वहत्कल्पभाष्य की चणि अादि के प्रथम खण्ड में तो विस्तार से दिया गया है अत: विशेषार्थियों को वहीं से जानना चाहिए। ___ शंका--जिस प्रकार निव आदिकों से ग्रहण कराई गई प्रतिमाएं अवन्दनीय हैं उसी प्रकार उनके द्वारा रचित स्तोत्र प्रकरणादि सम्यकदृष्टियों को अग्राहय हैं कि ग्राहय हैं ? __समाधान-उनके द्वारा रचित स्तोत्र प्रकरणादि अग्राह्य ही हैं। श्री महानिशीथ सूत्र के चतुर्थ अध्ययन में कहा है कि: जे भिक्खु वा भिक्खुणी वा परपाखंडीणं पसंसं करेज्जा जेावि णिराहगाणां पसंसं करेजा जेावि निण्हगाणं अनुकूलं भासेज्जा जेारि निण्हगाणं आपयणं पविसिज्जा जेावि निण्हगाणं गंथं सत्यं पयक्खरं वा परवेज्जा जेणं निण्हगाणं संतिए कायकिले साइनवे वा संजमेइ वा Aho! Shrutgyanam

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