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( १६८ ) को बहोराने वाला श्रावक बनू ऐसी प्रार्थना
करना अष्टम निदान है। (8) व्रत की आकांक्षा से मैं दरिद्र श्रावक बनू
ऐसी प्रार्थना करना नवम निदान है।। :- ऊपर कहे गये नव नियाणों में अन्तिम तीन नियाण क्रम से सम्यक्त्व, देशविरति एवं सर्वविरति को देने वाले हैं, परन्तु मोक्ष देने वाले नहीं हैं। यह सारा विवेचन पाक्षिक सूत्र की वृत्ति में कहा है । दूसरे स्थान पर भी कहा है कि
नेव सिद्धि इत्थि पुरिसे परप वियारे य स परियारे य । अप्पसुख सड्ढदरिद हुज्जा नवनियाणाइ त्ति ॥"
शंका-राज्य आदि प्रार्थना के समान तीर्थङ्करत्व एवं चरमदेहित्व की प्रार्थना भी दुष्ट है कि नहीं ? __ समाधान-तीर्थकरत्वादि के लिये भी प्रार्थना न करना ऐसा भगवान श्री महावीर ने कहा है । निदान में तो समस्त वस्तुओं के विषय में भी अपवाद नहीं है साधुओं के लिये निदान का निषेध ही है। वृहत्त्कल्प वृत्ति में कहा है। इसी तीर्थङ्करत्वादि की प्रार्थना करना भी साधुओं के लिये युक्त नहीं है। - सर्व कर्म के क्षय से मेरा मोक्ष हो ऐसी भावना भी क्या निदान है ? सत्यमेव यह भी निश्चय नय से निषिद्ध ही है । क्योंकि-"मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनि सत्तमः।" अर्थात् उत्तम मुनि मोक्ष या संसार में सर्वत्र सर्वथा निःस्पृह होते हैं; ऐसा कहाहै । तथापि भावना में अपरिणत सत्व को. अंगीकार करके व्यवहार से यह दुष्ट नहीं है।
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