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जो अन्य तीथियों एवं गृहस्थों को वाचना देते हैं (अर्थात् सूत्र पाठ पढ़ाते हैं) अथवा उनको सहायता देते हैं । उनको चातुर्मासिक परिहारस्थान उद्घातिक प्रायश्चित प्राता है ।
इसीलिये श्री अरिहन्त भगवन्त के चरणों में, श्रावकों के वर्णन में प्रतिपद "लद्धट्ठा गहियठ्ठा" अर्थ प्राप्त किया, (अर्थ ग्रहण किया) इत्यादि पाठ ही देखने में आता है, परन्तु सूत्र का मध्ययन किया ऐसा पाठ नहीं देखा गया।
यदि ऐसा है तो दशवैकालिक सूत्र भी श्रावकों को नहीं पढ़ाना चाहिये ? इसका उत्तर देते हुए कहते है कि श्रावकों को दशवकालिक सूत्र के षड्जीवनिकाय नामक चतुर्थ अध्ययन तक ही पढ़ाना चाहिये, शेष छ: अध्ययन नहीं पढ़ाना चाहिये। पावश्यक चूर्णि में कहा है कि
"श्रावकाणां" जहन्नेणं अपवयण मायामो उक्कोसेणं छज्जीवणिया सुत्तो अत्थो वि पिंडेसणं न सुत्तो अत्थश्रो पुण उल्लावेणं सुणइति ।"
-श्रावकों को जघन्य से अष्ट प्रवचन माता एवं उत्कृष्ट से षटजीवनिकाय अध्ययन तक पढ़ाना चाहिये । पिण्डेषणा अध्ययन अर्थ से पढ़ाना, परन्तु सूत्र से नहीं । अर्थ भी वे केवल
सुनं।
अन्यत्र भी कहा है कि दशकालिक को षड्जी निकाय से पूर्व या पश्चात् जो श्रावकों को पढ़ाता है वह अपने मन से कल्पित कदाचरण वाला होता है।
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