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इस प्रकार "मरण विधि प्रकीर्णक" के ये विचार आचाराङ्ग सूत्र वृत्ति के पाठ से विरुद्ध पड़ते हैं, क्योंकि "मरण विधि प्रकीणीक" के इन विचारों में वे भाव अनन्तबार प्राप्त होते है, ऐसा बताया गया है।
इसका समाधान इस प्रकार है कि सिद्धान्त के वचन परस्पर अविरोधी होने से यहां प्रकारान्तर से इस प्रकार अर्थ लगाना चाहिये । उपर्युक्त गाथा में, प्रथम पद में "अणेगसो" (अनेकशः) यह पद अध्याहार से लेने पर ऐसा अर्थ करना कि “देवेन्द्र चक्रवर्तित्वादि पद मैंने अनेक बार प्राप्त किये है तथा अन्य राज्यादि उत्तम भोग अनन्त बार प्राप्त किये हैं फिर भी मैं उनसे तृप्त नहीं हुआ।" इस प्रकार अर्थ योजना से कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता । अथवा दूसरे प्रकार से भी प्राप्तो क्तियों के बुद्धिमान वेत्तानों को इस प्रकार की अर्थ योजना करनी चाहिये।
पुनः यहां कोई प्रश्न करता है कि देवेन्द्रत्वादि भाव यदि अनन्तबार प्राप्त नहीं किये तो कितनी बार प्राप्त किये ?
इसका समाधान इस प्रकार है कि तीर्थङ्करत्व भाव यदि कोई जीव प्राप्त करता है तो वह एक बार ही नहीं बार बार प्राप्त करता है, यह प्रसिद्ध है। तथा भावितात्मत्व एव अनगारात्वभाव कतिपय जीव अाठ बार प्राप्त करते हैं, क्योंकि आठभवों में ही उनकी प्राप्ति का उल्लेख श्री भगवती सूत्रवृत्ति में किया गया है, जो इस प्रकार है:--
यथा:-कति विहाणं आराहणा पण्णत्ता, गोयमा । तिविहा आराहणा पण्णत्ता तं जहा-णाणाराहणा "उपधानाद्य पचार करणं" दंसणाराहणा निःशङ्कितत्वादि तदाचारानु
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