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( १६७ )
भामि पुक्रवहिगामिणीउ सालेला ओो । भिंदित्त माणुस नगं प्रक्खर उदहिं समल्लीणा ॥ १ ॥
-- पुष्करार्ध क्षेत्र में मानुषोत्तर पर्वत की ओर बहने वाली नदियां मानुषोत्तर पर्वत को भेदकर पुष्करवर समुद्र में मिलती हैं । परन्तु मनुषोत्तर पर्वत के बाहर नदियों का प्रभाव कहने से उन नदियों का पुष्करवर समुद्र जाना कैसे सम्भव है यह विचारणीय है ?
लोक प्रकाश में भी इस प्रकार कहा है यथाः - एवं नरोत्तर नगाऽभिमुखाः सरितोऽखिलाः । विलीयन्त इह ततः परं तासामभावतः | ७५७॥
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- इस
कार मानुषोत्तर पर्वत की ओर बहने वाली समस्त नदियां, उनके श्रागे कुछ नहीं होने से यहीं विलीन हो जाती हैं ।
इसी प्रकार स्थानाङ्ग सूत्र के सप्तम स्थान में तो यह पाठ है : --
सत्त वासा
यथाः-- " पुक्खरवरदीवड्ढपुरात्थिमद्धगं तव नवरं पुरत्याभिमुहीओ पुक्खरो दसमुद्द समुप्पेंति । पञ्चत्थाभि मुही कालोद समुह । "
( इसका अर्थ ऊपर की पंक्तियों में दे दिया है )
यहां साक्षात् पाठ दर्शन से ऊन नदियों का पुष्करोदधि में जाना युक्त ही है ।
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