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( १८० ) -जैसे सघन बादलों के आने पर भी उस प्रकार के अपने स्वभाव से चन्द्र सूर्य की प्रभा तो रहती ही है उसी प्रकार जीव के एक एक प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के अनन्त अविभक्त परिच्छेदों से पाच्छादित होने पर भी उस प्रकार के अपने स्वभाव से ज्ञान का अनन्त वां भाग सर्वदा अनाच्छा दित ही रहता है। यदि वह भी आच्छादित हो जाय तो एकान्ततः निश्चेतन होने से जीव घट के समान अजीवता को प्राप्त कर लेता है।
शंका-पृथ्वी काय आदिका ज्ञान सर्वथा आच्छादित रहता है तो ज्ञान का अनन्त वा भाग सर्वदा अनाच्छादित रहता है, यह कैसे हो सकता है ?
समाधान-- अव्यत्तमक्खरं पुण पंचण्ह वि थीणगिद्धिसहिएणं । नाणावरणुदएणं बिंदिय माईकमविसोही ॥
--पृथ्वी काय से लेकर वनस्पतिकाय तक के पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के थीणद्धि निद्रा सहित ज्ञानावरणीय उदय से सुप्त मदोन्मत्त एवं मूच्छित आदि के समान अक्षर-ज्ञान, अव्यक्त अस्पष्ट होता है। इससे उनमें भी सर्वथा ज्ञान पाच्छादित नहीं होता। उसमें भी पृथ्वी काय के जीवों का ज्ञान अतीव अव्यक्त होता है। उससे भी बढ़कर अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पति काय के जीवों का अनुक्रम से अधिकाधिक विशुद्ध होता है । उसके पश्चात् अनुक्रम से हीन्द्रिय आदि जीवों के ज्ञान की विशुद्धि वहां तक होती है, जहाँ तक अनुत्तरोपपातिदेवों की व उससे भी बढ़कर चतुर्दश पूवियों के ज्ञान की विशुद्धि अधिक रूप में होती है। यह चूर्णिकार का मत है ।
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