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( १६१ ) प्रदेश उबलते हुए जल के समान निरन्तर उद्वर्तन परिवर्तनशील (चल स्वभावी) होने से कर्म लिप्त होते हैं। (३) यह सम्पूर्ण अधिकार श्री भगवती सूत्र, पच्चीसवें शतक के चतुर्थ उद्देशक में, स्थानाङ्ग सूत्र के आठवें सूत्र में एवं प्रचाराङ्ग सूत्र में द्वितीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक में तथा ज्ञान दीपिका में भी कहा है। प्रश्न १२६-स्थानाङ्गदि शास्त्रों में जीव, अजीव आदि
नव तत्त्व कहे हैं परन्तु पुण्यादि सात तत्व जीव अजीव से व्यतिरिक्त (भिन्न) नहीं हैं। क्योंकि ये संयोग से बने हुए हैं। अर्थात् पुण्य एवं पाप ये कर्म हैं एवं बन्ध भी कर्म का ही होता है
और कर्म पुद्गलों का परिणाम है तथा पुद्गल अजीव ही हैं। इसी प्रकार मिथ्या दर्शन दिरूप आश्रव तो जीव का परिणाम एवं प्रश्रिव निरोध रूप संवर भी निवृत्ति रूप जीव का परिणाम है। कर्म रूप पुद्गल परमाणुओं का नाश करना निर्जरा है तथा अपनी शक्ति से कर्म एवं जीव का मूलतः पार्थक्य होना अर्थात् सर्वकर्म विरहित होना ही मोक्ष है। अत: जीव और अजीव ये
दो ही तत्त्व हैं। उत्तर - यह सत्य है । सामान्यतया जीव एवं अजीव ये
दो ही पदार्थ सूत्र में कहे हैं, परन्तु विशेषरूप से इन दोनों तत्त्वों को नव तत्त्वों के रूप में (नव प्रकार से) वहाँ कहा है क्योंकि प्रत्येक पदार्थ सामान्य एवं विशेष रूप से होता है। (यहां नवतत्त्व की व्याख्या विशेष रूप से है।) वह
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