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-इसके पश्चात् गुरुमहाराज वासक्षेप लेकर भगवान् के चरणों पर डाले बाद में अनुक्रम से साधु आदि पर डाले। गुरु महाराज स्वयं निर्ग्रन्थ होते हैं, अतः श्रावक का लाया हुआ वासक्षेप करना चाहिये।
प्रश्न ७७-जम्बूद्वीप में स्थित जंघाचारण आदि साधु, जब
चैत्यवन्दन के लिये रुचकद्वीप आदि में जाते हैं, तब मध्य में लवण समुद्र के अन्तर्गत सोलह हजार ऊँचो लवण समद्र की शिखा का कैसे उल्लंघन करते हैं, क्योंकि ऐसा करने से सचित्त जल के
स्पर्श होने की सम्भावना रहती है ? उत्तर-- वे साधु-म निराज प्रारम्भ से ही तिरछे नहीं जाते हैं,
किन्तु प्रारम्भ में साधिक सतरह हजार योजन ऊँचे जाकर बाद में तिरछे जाते हैं, जिससे जलस्पर्श नहीं होता।
श्री समवायांग सूत्र की टीक कहा है कि-- यथा :--"लवणेणं समुद्दे सत्तर स जोयण सहस्साई
सबग्गेणं पण्णत इमीसे णं रयणप्प भाए पुढवीए बहुसम रमणिज्जायो भूमि भागायो सातिरेगाई सत्तर सजोयण सहस्साई उड्ढं उप्पइत्ता तत्तो पच्छा चारणाणं तिरियं गई पवत्तइति सूत्रं चारणाणंति जंघा चारणाणं विद्याचारणाणं तिरियंति तिर्यक रुचिकादि द्वीपगमनाय इति तद्वृत्तिः।"
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