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तिथि एहि तो तेसि न किंचि दिज्जड जइ तेसिं निक्कारणे देइ पायच्छितं विसंभोगो वा दाणसंभोगो गहणसंभोगो य ॥ ३॥ संभोइयाणं दिज्जा घेषा य पसत्थाईणं ण दिज्जइ नय घेप्पइ ॥४॥ किंचिजइ तेसि देइ गिबहइ वा किंचि निक्कारणे पायच्छित्तविसंभोगो वा ।"
___ --दान एवं ग्रहण के संभोग में चार भाग होते हैं। वे इस प्रकार हैं:---१. दान संभोग-देना परन्तु लेना नहीं । उत्सर्ग से साधु साध्वियों को वस्त्र पात्र देना, कारणवश आहार भी देना, परन्तु उनसे कुछ भी लेना नहीं। यह प्रथम भाग है। जिसको दान संभोग कहते हैं । २. ग्रहण संभोग-गृहस्थ से या अन्य दर्शनार्थियों से लेना, परन्तु कुछ देना नहीं। यदि बिना कारण दिया जाय तो विसंभोग नामक प्रायश्चित आता है। यह द्वितीय भाग है, जिसको ग्रहण संभोग कहते हैं। ३. दान संभोग एवं ग्रहण संभोग-एक समाचारी वाले साधुओं को संभोग एवं ग्रहण संभोग--एक समाचारी वाले साधुओं को वस्त्र पात्र देना एवं उनसे लेना, यह तृतीय भाग है, जिसको दान संभोग एवं ग्रहण संभोग कहते हैं। ४. न दान संभोग न ग्रहण संभोग-पार्श्वस्थ आदि को न कुछ भी देना और न उनसे कुछ भी लेना, यह चतुर्थ भाग है जिसका नाम न दान संभोग न ग्रहण संभोग है। प्रश्न ६०-वाद कितने प्रकार का होता है एवं वह वाद साधुओं
को किसके साथ करना चाहिये तथा किसके साथ
नहीं ? उत्तर--बाद तीन प्रकार का होता है--१. शुष्कवाद
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