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( १४७ )
"उसासं न रुिंभई - कायोत्सर्गे उच्छ्वासं न निरुणद्धि, किन्तु सूक्ष्मोच्छ्वासमेव यतनया मुंचति नोल्वणं, माभूत् सच विघात इति, एवं कासक्षुत्तादीनि अपि कायोत्सर्गे तो हस्त दानेन यतनया क्रियन्ते न निरुध्यन्ते, वात निसर्गे च शब्दस्य यतना क्रियते न निसृष्टमुच्यते इत्यादि । "
कायोत्सर्ग में उच्छवास रोकना नहीं चाहिये, परन्तु सूक्ष्म यतना से छोड़ना चाहिये, जोर से नहीं, जिससे किसी सत्त्व का घात न हो। इसी प्रकार खाँसी, छींक आदि भी काउसग्ग में मुख के आगे हाथ रखकर यतना करना चाहिये परन्तु रोके नहीं । वात संचार होतो शब्द की यतना करे, किन्तु निकला हो ऐसा नहीं छोड़ना चाहिये ।
यहां जीतकल्प वृत्ति में इतनी विशेषता है कि-
" अधोवात निर्गमे च करेण एक पुताकर्षणं कार्यं येन् महान् कुत्सितः शब्दो न भवति, अन्यथा तु विधिरिति ।"
--अधोवात निकले उस समय हाथ से एक पुता का श्राकर्षण करना चाहिये, जिससे महान् कुत्सित शब्द न हो । यदि ऐसा नहीं किया जाय तो प्रविधि होती है ।
प्रश्न ११७ -- एकाशन यादि पच्चक्खाण में “पारिट्ठावणियागारेणम्” ऐसा ग्रागार का पाठ प्राता है, इसका अर्थ क्या है ? तथा परठा जाने वाला पदार्थ किसको देना चाहिये ?
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