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लेखना करते हैं, अन्यथा नहीं । छद्मस्थ मुनियों को तो वस्यादि जीवसंसक्त हों या न हों, प्रतिलेखना करनी ही चाहिये । जैसा कि भद्रबाहु स्वामी ने नियुक्ति में कहा है :
"पाणीहिं संसत्ता पडिलेहा हुंति केवलीणं तु । संसत्तम संसत्ता छउमत्थाणं तु पडिलेहा ॥ "
- वस्यादि को जीव लगे हों तो केवली प्रतिलेखना करते हैं एवं छद्मस्थ तो जीव लगे हों या न लगे हों तो भी प्रति लेखना करते ही हैं ।
प्रश्न १२० - प्राधुनिक कई वेशधारी नि नव सर्वदा डोरी से मुंह पर मुँहपत्ती बाँधे रहते हैं, यह जिनाज्ञानुसारी है या जिनाज्ञा विरुद्ध ?
उत्तर - यह जिनाज्ञाविरुद्ध ही मालूम होता है । किसी भी सूत्र में यह विधि नहीं कही गई है। शास्त्रों में जहाँ मुखवस्त्रिका का अधिकार है, वहाँ कहीं भी डोरे का नाम भी नहीं है । इसी प्रकार सुधर्मा स्वामी से लेकर अविच्छिन्न वृद्ध परम्परा से भी किसी भी धर्म - गच्छ में डोरे से मुखवस्त्रिका को बाँधना दिखाई नहीं देता है । इसलिये यह जिनागम एवं सुविहित भाचरणों से विरुद्ध ही है । दूसरे, गणधरों ने भी मुँहपत्ती बाँधा थी, परन्तु वह यथावसर ही बाँधी, सर्वदा के लिये नहीं । यदि सर्वदा ही मुँहपत्ती बँधी हुई हो तो विपाकसूत्र का यह पाठ असंगत हो जाता है । विपाकसूत्र के एकादशाङ्ग के प्रथमप्रध्ययन का वह पाठ इस प्रकार है
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