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यदि ऊपर बताये हुए नियमों के अनुसार उसी प्रकार के कोई मनुष्य न मिले तो अच्छी स्मृति रखने वाले वृद्धादि से भी यतना पूर्वक पूछा जा सकता है । विशेषः - प्रोघनियुक्ति में इसका उल्लेख है ।
प्रश्न ६८–ग्लान ( रुग्ण ) साधु की सेवा करने में जिस प्रकार प्रशंसा यश आदि ऐहिक गुणों का लाभ होता है, उसी प्रकार क्या पारलौकिक गुण भी होते हैं ?
उत्तर- ऐसे सेवा कार्य में पारलौकिक गुण हैं ही । आगम में इस प्रकार की सेवा को तीर्थ कर की भक्ति के समान कहा है और तीर्थकर की भक्ति का फल स्वर्ग एवं प्रपवर्ग की प्राप्ति है । प्रोघनियुक्ति की टीका में कहा है कि
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" गिला यत्ति " - साधु कदाचित् तत्र ग्रामे प्रविष्टः इदं शृणुयाद् यद् अत्र ग्लान यास्ते, ततश्च तत्परिपालनं कार्य परिपालने च कथं न पारलौकिक गुणा इति ।"
- किसी समय साधु ग्राम प्रवेश करे, और यह सुने कि यहां कोई साधु ग्लान ( रुग्ण ) है, तो उसकी सेवा करनी चाहिये । सेवा करने में पारलोकिक गुण कैसे नहीं होते ? वे तो होते ही हैं ।
" जो गिलाणं पडियर सो मं पडियरइ, जो मं पडियर सो गिलाणं पडियर "त्ति" वचन प्रामाण्यात्
- जो ग्लान ( रुग्ण ) की सेवा करता है, वह मेरी सेवा करता है और जो मेरी सेवा करता है वह रुग्ण की सेवा करता
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