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कुञ्चिका--रूई से भरा हुअा वस्त्र । पूरिका--मोटे सन के डोरों से बना हुआ वस्त्र ।
प्राचार--दो तार मिला कर बनाया गया वस्त्र बड़ा कम्बल आदि।
दाढिकालि-जुड़े हुए दो सूत का बना हुआ वस्त्र इसको विरलिका भी कहते हैं, जो ऊन व सूत की भी होती है। ____ जयनानि--जीन इस नाम से प्रसिद्ध वस्त्र । यह उल्लेख बृहत्कल्प में किया गया है। ___इसी प्रकार शुषिरतृणादि ( फूलण वाला घास ) एवं रोम युक्त चर्म भी अग्राह्य है। प्रश्न ११०--कालातिक्रान्त, मार्गाति क्रान्त, क्षेत्रातिक्रान्त, एवं
प्रमाणातिक्रान्त आहार आदि मुनियों को कल्पता नहीं है, परन्तु इन चारों अतिक्रान्तों का क्या
अर्थ है। उत्तर-- तीन पहर से ऊपर रखा हुआ आहारदि कालातिक्रान्त
होता है, अर्धयोजन से अधिक दूर आहारादि लेजाना या लाना अध्वातिक्रान्त होना है, साधुओं के लिये यह अपरिभोग्य है (इसमें साधुनों को विवेक से काम लेना चाहिये।) जीत कल्पवृत्ति में क्षेत्रातिक्रान्त की
परिभाषा देते हुए कहा है कि-- "क्षेत्रं सूर्यसम्बन्धिताप क्षेत्रं दिनमित्यर्थः तदातिक्रान्तं यत् यत् क्षेत्रातिक्रान्तम् "
सूर्य सम्बन्धी तापक्षेत्र दिन ही क्षेत्र है, उससे जो अतिक्रान्त है वह क्षेत्रक्रातिक्रान्त है।
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