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इस प्रकार ये सतरह संयम हैं ।
श्री समवायाङ्गवृत्ति में इनका यह विशेष अर्थ इसप्रकार दिया गया है ।
यथा
अजीव संयम -- विकट सुवर्ण, बहुमूल्य वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि ग्रहण करना जीवकाय प्रसंयम कहलाता है एवं ग्रहण नहीं करना अजीव संयम होता है ।
उपेक्षा संयम -- प्रसंयम योगों में प्रवृत्त होना एवं संयम योगों में प्रवृत्त होना यह उपेक्षा असंयम एवं इसके विपरीत अर्थात् असंयम योगों में प्रवृत्त न होना एवं संयम योगों में प्रवृत्त न होना एवं संयम योगों में प्रवृत्त होना उपेक्षासंयम है ।
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प्रमार्जनसंयम - पात्रादिका प्रमार्जन न करना अथवा विधि से करना यह प्रमार्जना असंयम एवं इसके विपरीत विधि सहित पात्रादिका प्रमार्जन करना--प्रमार्जन संयम होता है ।
पहिले जो यह कहा है इसका अर्थ यह है कि - जिनमें के वस्त्रों का प्रतिलेखन नहीं अन्दर का भाग प्रांखों से नहीं दीखता । पांच प्रकार के वस्त्रों की विवेचना इस प्रकार है :--
कि-- अग्राहयं " दूसपणमित्यादि" रुई भरी हुई हो ऐसे पांच प्रकार किया जा सकता । क्योंकि उनके
'कु' चिकादिकं दुष्प्रतिलेखित दृष्य पंचकम् - तथाहि, कुञ्चिका, पूरिका, प्राचार, दाढिकालि, जयनानि । "
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- कुञ्चिका, पूरिका, प्राचार, दाढिकालि एवं जयनानि ये पांच प्रकार के दुष्प्रतिलेखित वस्त्र हैं । कुञ्चिकादि के लक्षण
हैं :
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