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होता है, क्योंकि ऐसा वचन सुनना भी साधु को नहीं कल्पता है, तो फिर ग्रहण कैसे किया जासकता है ?
निमन्त्रण आने पर पात्रादि ग्रहण करे वहाँ तक अतिक्रम दोष जानना । उसके पश्चात् पात्रादि का उपयोग करने पर स्वस्थान से प्रस्थान कर गृहस्थ के घर पहुंचे एवं दाता (गृहस्थ) आहारादि को पात्र में देवे वहाँ तक व्यक्तिक्रम, पश्चात् आहार ग्रहण कर जबतक उपाश्रय में आवे एवं इरियावहि की आलोचना करके कवल (ग्रास) हाथ में ले वहाँ तक अतिचार तथा उसके पश्चात् उत्तरकाल में अर्थात् ग्रास को मुंह में डाल देने पर अनाचार से दोष होता है । इस प्रकार प्राधाकर्मी आहार के दृष्टान्त से अतिक्रमादि चारों दोषों का स्वरूप बताया है, जिसको अन्यत्र भी जानना चाहिये। प्रश्न ११२- स्थूल ब्रह्मचर्य व्रतधारी श्रावक, स्वदारसन्तोषी
एवं परदार वर्जक इस प्रकार दो प्रकार के होते हैं। इन दोनों के इत्वर परिग्रहगमनादिक पाँच अतिचार कहे हैं । वे पाँच अतिचार दोनों को समान
रूप से लगते हैं या न्यूनाधिक ? उत्तर--प्रवचन सारोद्धार की टीका में इस सम्बन्ध में तीन मतों
का उल्लेख किया गया है । जो इस प्रकार है। कोई मनुष्य थोडे समय के लिये किराया आदि के द्वारा वेश्या को अपनी स्त्री के रूप में स्वीकार कर उसका सेवन करे और अपनी बुद्धि की कल्पना से उस वेश्या को अपनी स्त्री मान लेता है तो उसका मन व्रत की उपेक्षा वाला होता है एवं थोड़े समय के लिये सेवन करने पर बाह्य दृष्टि से व्रत भंग भी नहीं होता परन्तु वस्तुत: परस्त्री होने से भंग होता है। अत: भंग एवं अभंग रूप यह प्रथम अतिचार है ।
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