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फल की इच्छा से अथवा स्नेह सम्बन्ध से परिणयन विधान करना, यह कार्य स्वदार सन्तोषी को अपनी स्त्री एवं परदार वर्जक को अपनी स्त्री एवं वेश्या के अतिरिक्त दूसरी किसी स्त्री के साथ मन वचन काया से मैथुन नहीं करना एवं नहीं कराना चाहिये । इस प्रकार जब व्रत ग्रहण किया हो तो पर विवाह करना मैथुन का कारण है । ग्रर्थात् यह अर्थ से निषिद्ध ही है। मैथुनव्रतकारी यह मानता है कि मैं तो यह विवाह ही करा रहा हूं मैथुन थोड़ े ही करा रहा हूँ । इस दृष्टि से व्रत की सापेक्षता होने के कारण यह परविवाह करण अभिचार रूप ही है । कन्याफल की इच्छा तो सम्यग्दृष्टि की अव्युत्पन्न अवस्था में सम्भव होती है एवं मिथ्यादृष्टि की भद्रक अवस्था में होता है, परन्तु उपकार के लिये व्रतदान में वह सम्भव है ।
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शंका- पर विवाह के समान अपने पुत्र-पुत्री के विवाह में भी यह दोष समान ही है ?
समाधान--यह सत्य है, परन्तु अपनी कन्या आदि का विवाह यदि न कराया जाय तो वह स्वच्छन्द हो जाती है, जिससे शासन का उपघात होता है । विवाह करने से तो पति के नियन्त्रण में रहने के कारण स्वच्छन्द नहीं होती है, जैसा कि यादव शिरोमणि, कृष्ण एवं चेटक महाराज के अपने पुत्र-पुत्रियों के सम्बन्ध में भी विवाह का नियम सुना जाता है । यह चिन्ता करने वाले दूसरों के प्रति सद्भाव से जानना चाहिये । इस सम्बन्ध में योगशास्त्र की टीका में भी उल्लेख किया गया है ।
प्रश्न ११३ - साधु एवं श्रावक जो चतुर्थ, षष्ठ, ग्रष्टम आदि तप करते हैं उसके प्रथम एवं अन्तिम दिन एकाशन का पच्चक्खाण करने का नियम है या नहीं ?
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