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-जिन अर्थात् गच्छ में से निकले हुए साधु विशेष, उनका कल्प अर्थात् आचार उसका जो पालन करें वे जिन कल्पिक होते हैं।
ये जिन कल्पिक मुनि उस भव में मोक्ष में नहीं जाते हैं। क्योंकि प्रागम में इनके लिये केवल ज्ञान का निषेध किया हुआ है। बृहत्कल्प वृत्ति में कहा है कि वेद को अङ्गीकार कर जिनकल्प ग्रहण करते समय स्त्रीवेर को छोड़कर असंक्लिष्ट पुरुषवेद या नपुंसक वेद उसको होता हैं। जिनकल्प स्वीकार किया हुआ मुनि सवेदी भी होता है एवं अवेदी भी। ऐसी स्थिति में जिनकल्पिक मुनि को उस भव में केवल ज्ञान की उत्पत्ति का निषेध है। उपशमश्रेणी में वेद के उपशमित होने पर ही अवेदकत्व प्राप्त होता है। जैसा कि कहा है--
"उवसम सेढीए खलु वेदे उवसामियाम्मि उ अवेदो। नवि खलिए तज्जम्मे केवल पडिसेह भावायो॥"
--उपशम श्रेणी में वेद के उपशमित होने के बाद ही अवदेकत्व प्राप्त होता है, परन्तु वेद के उपशमिन होने के कारण उस भव में केवल ज्ञान का निषेध है।
उपशमश्रेणी के अतिरिक्त शेषकाल में तो सवेदी होता है।
इस विषय में कतिपय आधुनिक जन ऐसा कहते हैं कि जिनकल्पित साधुओं का प्राचार हठगभित होता है, क्योंकि ये साधु सिंह आदि को सम्मुख पाता हुआ देख कर उसी मार्ग से जाते हैं, दूसरे मार्ग से नहीं। इसलिये उस भव में उनकी मुक्ति नहीं होती। ऐसा इनका कहना युक्तिसंगत नहीं है
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