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श्रादेशान्तरेण वा द्वयोरपि पंचकल्याणकं मन्तव्यं, ततो व्यूढे प्रायश्चित्ते द्वावपि ग्लान प्रतिचारक वर्गों भोजनादि मण्डली प्रविशत इत्यादि ।"
इन पंक्तियों का अर्थ ऊपर दे दिया गया है। प्रश्न १०१-वर्षाकाल (चातुर्मास) के अतिरिक्त शेष पाठ
मास के ऋतु बद्धकाल में साधु एवं पौषध व्रती
श्रावक पाट पीठ फलक आदि ग्रहण करे कि नहीं ? उत्तर- उत्सर्ग से तो ग्रहण नहीं करना चाहिये। ये ग्रहण
करे तो वे अवसन्न ( शिथिलाचारी ) कहलाते है । जिसके सम्बन्ध में ज्ञाता अध्ययन में दिये गये
शेलक के दृष्टान्त में कहा है कि"तएणं से सेलए उउबद्धपीठफलग सेवी सज्जा संथारए श्रोसन्ने जाएत्ति ।"
-इसके पश्चात वे शेलक मुनि शेषकाल में शय्या संथारा के लिये पाट पाटलादि का सेवन करने से अवसन्न हो गये। इसी प्रकार आवश्यक नियुक्ति में भी कहा है कि
"नोसन्नो विय दुविहो सब्वे देसे य तत्थ सव्वम्मि । उउबद्ध पीठ फलगो ठवियग भोई य नायव्यो।"
-अवसन्ना के दो भेद होते हैं १ सर्व २ एक देश इनमें सर्व से अवसन्न, शेषकाल में पाट पाटलादि का उपयोग करते हैं तथा स्थापना व भोजन भी करते हैं ।
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