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है । इस वचन की प्रमाणिकता से भगवान की आज्ञा है । जो वृहत्कल्प वृत्ति के प्रथमखण्ड में इस प्रकार है:
" जो गिलाणं पडियरह से ममं नाणेणं दंसणेणं चरित े पडिवज्जइ इत्यादि भगवदाज्ञाऽऽराधनात् ॥
- जो रुग्ण की सेवा करता है बह मेरी ज्ञान दर्शन एवं चारित्र से आराधना करता है ।
इस प्रकार भगवान की दी हुई प्राज्ञा का आराधन करना चाहिये ।
प्रश्न ६६ - शुद्ध संयमी साधु ग्लान ( रुग्ण ) पार्श्वस्थादि की प्रतिचर्यां ( सेवा ) करे कि नहीं ?
उत्तर - लोकापवाद के निवारण के लिये एवं पार्श्वस्थादि को सन्मार्ग पर लाने के लिये परिचर्यादि स्वोचित कर्म अवश्य करना चाहिये । इसके सम्बन्ध में प्रोघनियुक्ति में कहा है कि
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"एसगमो पंचह त्रि नियाईणं गिलाणपडियर । फासुप्रकरण निकाय कहण पडिक्काभरणागमणं ॥ २२ ॥ संभावणे विसो डलियखरंटजयण उवएतो ।
विसेसे निहगारा विन एस अम्हंतत्र गमगं ॥ २३ ॥ तारेहि जयाकरणं अगं आरोहक पजणपुर । नव एरिसिया समा जाए तो वक्कम || इन गाथाओं का संक्षेप में अर्थ इस प्रकार है :
Aho ! Shrutgyanam