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यथा :--"उत्सगतः साधुह द्वारं नोद्घाटयेत् सति
कारणे अपवादम् ।" इस सम्बन्ध में और भी यह कहा है कि वह साधु जिनका वह घर हो उनके सम्बन्धियों से अवग्रह की याचना करके प्रमार्जन करे एवं बाद में घर का द्वार खोले अर्थात् स्वतः द्वार को खोल कर प्रवेश नहीं करना चाहिये । यदि रुग्ण आचार्यादि के योग्य कोई प्रायोगिक द्रव्य वहां मिलता हो, वैद्य वहाँ रहता हो, उपचार के निमित्त दुर्लभ द्रव्य यदि मिलने की प्राशा हो, दुष्काल का समय हो तो इन कहे हुए कारणों के उपस्थित होने पर बन्द द्वार के समीप खड़े रहकर शब्द करे अथवा स्वयं विधि सहित द्वार खोलकर प्रवेश करे। प्रश्न ८७-कुछ निह्नव पाखण्डी अपने भोजन के पात्र में ही
मूत्रोत्सर्ग कर उससे पात्र एवं वस्त्रादि धोते हैं। यह
उचित है अथवा अनुचित ? उत्तर- इस प्रकार का कृत्य करना अनुचित ही है। ऐसा करने
से वृहत्कल्प भाष्यवृत्ति के अनुसार प्रायश्चित आता है। इस सम्बन्ध में यह पाठ है कि
“वडगा अद्धाणे वा" यश्च मोकेन पात्रकमाचामति तस्यापि चतुगुरवः प्रायश्चित्त, कुतः इत्याह-यदि मोकन धावति, तदाऽक्षणानामन्यथा भावो विपरिणमनं भवेत् विपरिणताश्च प्रतिगमनादीनि कुयुः॥" ___-जो साधु मात्रा से पात्र को धोते हैं उनको चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है, क्योंकि ऐसा करने से नवदीसितों की
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