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यह सिद्ध हुआ कि विधिपूर्वक इस रीति से वस्त्र छेदन करना कि जिससे वह प्रमाण युक्त हो और यदि कोई साधु शोभा के लिये वस्त्र धोता है, धारण करता है, घिसता है या स्वच्छ करता है तो प्रायश्चित्त होता है, इसी प्रकार मूर्च्छा वश जो काम में नहीं लेता है तो भी प्रायश्चित्त होता है। इस सम्बन्ध में यदि और विस्तृत विवेचना की इच्छा हो तो वही टीका देखनी चाहिये ।
प्रश्न ७६ : - साध्वियां स्वयं अपने लिये वस्त्रों की याचना करे या साधु गृहस्थ से लेकर उनको देवे ? साध्वियों को उत्सर्ग से तो वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिये किन्तु गुरु (साधु) ही उनको देवे । यदि साधु नहीं हों तो स्वयं भी वे यतना पूर्वक गृहस्थ से याचना कर सकती हैं ।
बृहत्कल्प की टीका में कहा है कि-
" निग्रन्थीभिरात्मना गृहस्थेभ्यो वसत्रणि न ग्राह्माणि, किन्तु गणधरेण तासां दातव्यानि"
--"साध्वियों को स्वयं गृहस्थों से वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिये, किन्तु प्राचार्य ही उनको वस्त्र देवे ।” वस्त्र लेने की विधि इस प्रकार है:
उत्तर
सत्त दिवसेविता थेपरिच्छापरिच्छणे : गुरुगा । as aणी गणिite गुरुगा समदारा श्रद्धाखे ॥
- स्थविर सात दिन तक वस्त्र को रखकर परीक्षा करे, परीक्षा यदि नहीं करे तो चतुर्गुरु प्रायश्चित प्राता है । उस रीक्षित वस्त्र को आचार्य प्रवर्तनी को देवे एवं प्रवत्तिनी
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