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( १०३ ) "संभोइत्रा ते चेवत्ति ।" -यदि संभोगिक-अर्थात् एक समाचारी वाले साधु वहाँ हों तो वहां रहे हुए साधु ही गोचरी लावे। यदि संभोगिक के पास नवागन्तुक साधुओं का कोई भक्त श्रावक आकर यह कहे कि मेरे घर साधु को गोचरी के लिये भेजो तो वहां यह कहा जाय कि यहां रहने वाले साधु हो गोचरी के लिए आवेंगे । इतना कहने पर भी यदि श्रावक अधिक प्राग्रह करे तो "वत्थव्वेणं" वहां रहने वाले साधु के साथ एक साधु को जाना चाहिये। क्योंकि वहां रहने वाला साधु ही न्यूनाधिक वस्तु ग्रहण करने में आगन्तुकों का प्रमाण होता है। इस प्रकार यहां प्रोद्यनियुक्ति सूत्र की टीका का अर्थ संक्षेप में दिया गया है उसका विचार कर प्राघूर्णक विधि जाननी चाहिये । यह विधि एक समाचारी वाले साधुनों को प्राश्रित कर कही गई है। भिन्न समाचारी वाले साधुओं को तो पाट, पाटला आदि के लिये निमन्त्रित करना चाहिये, आहारादि के लिये नहीं। इस सम्बन्ध में प्राचारांग सूत्र-द्वितीय स्कन्ध-सप्तम-अध्ययन-प्रथम उद्देश की टीका में कहा है कि - "असंभोगिकान् पीठ फलकादिना उपनिमन्त्रयेत् यतः तेषां तदेव पीठ फलकादि संभोग्यं नाशनादिकमिति ।"
-भिन्न समाचारी वाले साधुको पाट पाटला आदि के लिए ही निमन्त्रित करना, क्योंकि उनके लिये यही संभोग्य है आहारादि नहीं। प्रश्न ८४-साधु साध्वी रात्रि में उपाश्रय के द्वार बन्द करे
कि नहीं?
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