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समाधान :-इसका समाधान करते हुए पुनः कहा कि
"धेतव्यगं" - यदि फाड़े हुए वस्त्र का शोध किया जाय तो उसके लिये लम्बा समय लगने के कारण सूत्र एवं अर्थ पौरसी (स्वाध्याय) की हानि होती है। इसी प्रकार जो यह वस्त्र छेदन रूप दोष है, वह पडिलेघाण शुद्धि आदि सेबहुगुण वाला है। इसलिये उसी समय साधु वस्त्र को प्रमाण युक्त कर लेते हैं, जिससे सूत्रार्थ व्याधातिक किसी प्रकार का दोष नहीं लगता । जिस प्रकार यत्नपूर्वक किया गया आहार निहारादि विषयक समस्त योग तुम्हारे मत से साधु के लिये निर्दोष है, उसी प्रकार उपकरण आदि का छेदन भी यदि यतनापूर्वक किया जाय तो निर्दोष ही होता है, ऐसा मानना चाहिये।
द्रव्य एवं भाव से हिंसकत्व की स्थिति में चार भंग (भेद) होते हैं :- (अर्थात् हिंसा के चार भेद होते हैं) १. द्रव्य से की गई हिंसा, भावसे नहीं। २. भाव से की गई हिंसा, द्रव्य से नहीं। ३. द्रव्य एवं भाव से की गई हिंसा। ४. द्रव्य एवं भाव से भी न की गई हिंसा । यहां प्रथम भंग ( भेद ) के अनुसार हिंसा करने वाले को भी भगवान ने अहिंसक ही कहा है। इसी प्रकार दोनों ओर से फाड़ा गया वस्त्र लक्षण रहित होता है तथा मध्य में ऊपर से फाड़ा गया वस्त्र भी लक्षण रहित ही होता है, ऐसा वस्त्र लेने से तो उलटी ज्ञानादिक की हानि होती है, किसी प्रकार का गुण नहीं होता। ऐसे वस्त्र को लेना उचित नहीं । किन्तु प्रशस्त वर्ण, संस्थान आदि लक्षण युक्त उपाधि ही साधुओं के ज्ञान दर्शन-चरित्र की वृद्धि करने वाली होता है, अतः लक्षणरहित उपाधि नहीं लेना चाहिये । इससे
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