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पुङ्गल भी लोक के अन्त तक पहुंच जाते हैं और उनके देह के चलने से पवन आदि फैलते हुए समग्र लोक में व्याप्त हो जाते हैं उससे सूक्ष्म जीवों की विराधना ( हिंसा ) होती है। इसलिए इस प्रारम्भ को सावध जान कर जैसा वस्त्र मिले वैसा ही काम में लेना चाहिये, फाड़ना नहीं । श्री भगवती सूत्र में भी हिलने डुलने ( चलने-फिरने ) वाले जीव के लिये मोक्ष का निषेध कहा है । संयम के साधन भूत शरीर के निर्वाह के लिये भिक्षाभ्रमण, ( गोचरी जाना ) भोजन, शयन आदि क्रियाओं का परिहार तो अशक्य होने से सर्वथा निषेध नहीं किया जा सकता। इसलिये वस्त्र फाड़ने की क्रिया साधु-साध्वियों को नहीं करना चाहिये। इस प्रकार वादियों के द्वारा अपना पक्ष स्थापित करने के पश्चात् सूरिजी महाराज ने समाधान करते हुए कहा कि
"प्रारम्भमिट्टो जई"
-यत्ना पूर्वक किया हुअा प्रारम्भ इष्ट है । हे वादिन् ! वस्त्र छेदते ( फाड़ते ) हुए एक बार थोड़ा दोष लगता है, परन्तु वस्त्र न फाड़ने पर तो प्रमाण से अधिक वस्त्र की पडिलेहण करते हुए पृथ्वी पर स्पर्श एवं हलन-चलन होने से प्रतिदिन दोष लगते हैं तथा उन वस्त्रों को धारण करने पर विभूषा आदि जो दोष लगते हैं उनका तो तू विचार कर ! __ शंका-वादी पुनः कहता है : यदि वस्त्र फाड़ने में तुम्हारे मत से भी एकबार दोष लगता है तो ऐसे वस्त्र का ही त्याग कर देना चाहिये। गृहस्थों ने अपने लिये जो वस्त्र फाड़े हों के ही ग्रहण करना उचित है।
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