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हह ) साध्वियों को देवे । स्वयं देवे तो चतुर्गुरु प्रायश्चित आता है । साधु के अभाव में साध्वियों को स्वयं वस्त्रोत्पादन कर किस प्रकार क्या करना इस सम्बन्ध में यह कहा है ।
"सत्तदिवसे ठवित्ता कप्पेते थेरिया परिच्छंति । सुद्धस्स होइ धरणा असुद्ध छेत्तु परिवणा ||
- स्थविर सात दिन तक नए वस्त्र रक्खे । जो यदि रखे बिना काम में लेवे तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त एवं आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं । इसलिये सात दिन तक वस्त्र को रखकर धोना चाहिये | धोने के बाद स्थविर उस वस्त्र को ओढ़ कर परीक्षा करे । इसके पश्चात् शुद्ध हो तो वस्त्र धारण करे एवं प्रशुद्ध होतो अशुद्ध भावों को उत्पन्न करने वाले उस वस्त्र को फाड़कर परिष्ठापन करदे । ( परदे ) | वापरा हुआ हो तो धोना चाहिये एवं वापरा हुआ न हो परन्तु गन्ध आती हो तो भी धोना चाहिये ।
इस प्रकरण को विस्तार पूर्वक देखने की इच्छा रखने वाले को वही ग्रन्थ देखना चाहिये, जिसमें इसका उल्लेख किया गया है ।
प्रश्न ८० : - जिस क्षेत्र में साधु चातुर्मास में रहे हों अथवा जिस क्षेत्र में दूसरे संविग्न साधुओं ने चतुर्मास किया हो वहां वस्त्रादिक कितने काल के बाद ग्रहण करना चाहिये ?
उत्तर
ऐसे क्षेत्र में साधुयों को दो मास के बाद वस्त्रादिक ग्रहण करना चाहिये और यदि कोई कारण उपस्थित हो जाय तो दो मास के अन्दर भी ग्रहण किये जा
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