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होने से आंखों के द्वारा देख भी नहीं सकते । यही बात प्रसुर व्यन्तर एवं ज्योतिष देवों के लिये भी है । वैमानिकों में तो जो देव सम्यक दृष्टि होते हैं वे विशिष्ट अवधि ज्ञान वाले होने से पुद्गलों को जानते हैं व विशिष्ट चक्षु होने से देखते भी हैं । मिथ्या दृष्टि वाले तो अपने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञान की अस्पष्टता से न तो जानते ही हैं न देखते हैं । संग्रहणी वृत्ति में तो ऐसा अधिकार हैं कि- देवों के मनसे संकल्पित शुभ पुद्गल समस्त शरीर से आहार रूप में परिणत हो जाते हैं एवं नारकियों के आहार के पुद्गल तो अशुभ होते हैं । ग्रहण किये गये उन पुद्गलों को विशुद्ध प्रवधि एवं चक्षु के सद्भाव से अनुत्तर विमान के देव ही जानते हैं एवं देखते हैं नारक व्यन्तर ज्योतिष एवं ग्रेवेयक तक के देव भी नहीं जानते हैं एवं नहीं देखते हैं प्रज्ञापना वृत्ति में भी इसी प्रकार के अभिप्राय को व्यक्त किया गया है। तत्त्व तो केवली ही जाने,
इसी प्रकार कार्मेण शरीर के पुद्गलों को भी अनुत्तर देव ही जानते हैं व देखते हैं ग्रैवेयक तक के ग्रन्य देव - नारक न तो जानते ही हैं न देखते हैं; क्योंकि वे पुद्गल उनके अवधि ज्ञान के विषय भूत नहीं है ।
यद्यपि बारह देव लोक एवं नवग्रैवेय कों में भी सम्यक् दृष्टि देव हैं, परन्तु उनका अवधि ज्ञान कार्मण शरीर के पुद्गलों का विषयी भूत नहीं है ।
प्रश्न ७०: —— कुछ अभव्य जीव भी यथा प्रवृत्ति करण के द्वारा ग्रन्थि देश में स्थित हो, द्रव्य लिंग (साधु वेश ) को प्राप्त कर श्रुत अभ्यास करें तो कितना श्रुत प्राप्त कर सकते हैं तथा क्रिया बल से स्वर्ग में जावें तो कहां तक जा सकते हैं ?
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