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उत्तर:-अभव्य जीव उत्कृष्ट से ग्यारह अंक जितना श्रुत
प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा विशेषावश्यक सूत्र वृत्ति
में कहा है:- यथा:तित्थंकराइ पूअं दुटु, अण्णेण वा वि कज्जेण । सुत्र सामाइय लाभो, होई अभव्यस्स गंठिम्मि ।
__-अतिशयवती अहंदादि विभूति देखकर धर्म से इसप्रकार का सत्कार अथवा देवत्व एवं राज्य प्राप्ति होती है। इस प्रकार (मैं भी करूं) ऐसी बुद्धि उत्पन्न होने से अभव्यजीव भी ग्रन्थि देश को प्राप्त हो जाता है एवं उस विभूति के निमित्त से देवत्व, राजत्व एवं सौभाग्य बलादि के लक्षण से अथवा अन्य किसी प्रयोजन से मोक्ष की श्रद्धा से सर्वथा रहित होकर कष्ठानुष्टान को कुछ अंशों में अंगीकार करता हा ज्ञानरूप मात्र थ त सामायिक का लाभ प्राप्त करता है। जो ग्यारह अंग जितना होता है। इसी प्रकार अभव्य जीव उत्कर्ष से ऊपर के ग्रैवेयक देव लोक तक जाते हैं।
इस सम्बन्ध में श्री भगवती सूत्र के प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक में इस प्रकार कहा है:यथाः--"मिथ्यादृष्टय एव अभव्या भव्या वा असंयत
भव्य द्रव्य देवाः श्रमणगुणधारिणो निखिल समाचार्यनुष्ठान्तयुक्ताः द्रव्यलिङ्ग धारिणो गृह्यन्ते, तेहि अखिल केवल क्रिया-प्रभावत एव उपरिम अवेयकेषु उत्पद्यन्ते, इति असंयताश्च ते सत्यपि अनुष्ठाने चारित्र परिणाम शून्यत्वात् ।"
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