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जे ते देवेहिं कया तिदिसिं पडिरूवगा जिणवरस्स । तेसि पि तप्पभावा तयाणुरूवं हवइ रुवं ।
-जिन तीनों दिशाओं में देव रचित भगवान् जिनेश्वर देव के प्रतिबिम्व स्थापित हैं उनका रूप भी तीर्थङ्कर देव के प्रभाव से तदनुरूप ही हो जाता है।
भगवान् के समवसरण में जो जिस प्रकार बैठते हैं वह क्रम गाथाओं के आधार पर कहा जाता है।
गाथा-तित्थाइ से स संजय देवी वेमाणियाण समणीयो ।
भवणवइ वाणवंतर-जोइसियाण च देवीप्रो ॥
---तीर्थ अर्थात् गणधर के बैठने के बाद अतिशय ज्ञानी साधु बैंठते हैं। इसके पश्चात वैमानिक देवों की देवियां, बाद में साध्वियां एवं इसके पश्चात भवनपति, व्यन्तर एवं ज्योतिषी देवों की देवियां बैठती हैं। इसी प्रसङ्ग को और भी स्पष्ट इस प्रकार किया गया है :
केवलिणो तिउणं जिणं तित्थपणामंच मग्गतो तस्स । मणमादी विणमंता वयंति सट्ठाण सट्ठाणं ॥
-केवली पूर्वद्धार से प्रवेश करके जिनेश्वर देव को तीन प्रदक्षिणा कर "नमस्तीर्थाय' इस वचन से तीर्थ को प्रणाम करते हुए प्रथम गणधार रूपी तीर्थ के एवं अन्य गणधरों के पीछे अग्नि कोण के जाकर बैठते हैं उनके पश्चात् मनःपर्यायज्ञानी तथा प्रादि शब्द से अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी,
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