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. ( ४५ ) चतुष्पदेषु सिंहः, अपदेषु कल्पवृक्षः, अचित्त वैडूर्यादि मिथ तीर्थङ्कर एवालङ्कृत इति ।" --श्रेष्ठ वस्तु तीन प्रकार की होती है; १ सचित्त, २ अचित्त और ३ मिश्र । इनमें द्विपदादि भेद से सचित्त तीन प्रकार के होते है :-१ द्विपद २ चतुष्पद एवं ३ अपद । द्विपदों में तीर्थङ्कर चतुपष्दों में सिह एवं अपदों में कल्पवृक्ष उत्तम हैं। अचित में वैडूर्यमरिण आदि तथा मिश्र में अलङ्कत तीर्थङ्कर है ।
जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति पाठ :--"स्वभावतः फलपुष्पशालिनः कल्पवृक्षाः प्रोक्ताः सन्ति तथाच तत्पाठलेशः मत्तगया वि दुमगणा अणेगबहु विविह वीससा। परिणयाए मज्जविहीए उववेया फलेहिं पुन्ना विसदृतीत्यादि ॥"
-स्वभावतः ही कल्पवृक्ष फल पुष्पों से सुशोभित कहे गये हैं। इस सम्बन्ध में यह पाठ है कि "मतंगजादि कल्पवृक्षों के समूह अनेक प्रकार के विस्रसा परिणाम वाले होते हैं। ऐसे कल्पवृक्षों के फल परिपाक अवस्था में प्राप्त होते हुए मद्य विधि के समान पूर्णतया फूट फूटकर मद्य विधि को छोड़ते हैं।"
इसी प्रकार योग शास्त्र के चतुर्थ प्रकाश में भी कहा है कि"धर्म के प्रभाव से कल्पवृक्षादि इच्छित फल को देते हैं। आदि शब्द से चिन्तामणि आदि ग्रहण करना चाहिये यही स्थिति वनस्पति एवं पाषाण रूप में भी होती है। अतः जम्बू धातकी शाल्मली आदि तथा कुरूवृक्ष रत्नादि पृथ्वीकाय रूप एवं कल्प
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