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धारणीय शरीर वाले होते है वे वस्त्रालंकार रहित स्वाभाविक अद्भुत रूप सम्पन्न होते हैं । लोक प्रकाश में भी इसी प्राशय का एक श्लोक हैं:
यथा: - विरच्यन्ते पुनर्ये तु सुरैरुत्तर वैक्रियाः । ते स्युः सम समुत्पन्न वस्त्रालंकार भासुराः ॥
प्रश्न ६२ : - शास्त्रों में गर्भज मनुष्यादि को की छ: पर्याप्ति कही हैं एवं भगवतीसूत्र में देवताओं की पांच पर्याप्ति कही है । यथा-
" पंच विहाए पज्जतीए पज्जत्तिभावं गच्छति ।"
इस कथन से देवताओं की पांच पर्याप्ति होने का क्या कारण है ?
उत्तर-
भाषा और मन पर्याप्ति की समाप्ति में अत्यल्पकाल का अन्तर होना है । अतएव एक रूप की विवक्षा करते हुए पांच पर्याप्ति कहा है। राजप्रश्नीय सूत्र की वृत्ति में इसी प्राशय को व्यक्त करते हुए कहा है कि
"भाषा मनः पर्याप्खोः समाप्ति कालान्तरस्य प्रायः शेष पर्याप्ति समाप्ति बालान्तर पेक्षया स्तोकत्वा देकत्वेन विवक्षण-मिति"
इधर भगवती सूत्र की वृत्ति के तृतीय शतक के प्रथम उद्देश्य मे भी पञ्च विहाए पज्जत्तोए कह कर पांच का ही उल्लेख किया है ।
आहार शरीरादि की अभिनिर्वृत्ति का नाम पर्याप्ति है यह दूसरे स्थानों पर सोलह प्रकार की है । जब कि यहां पांच
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