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चौथा प्रारा आता है । इसी प्रकार शत्रुञ्जय पर्वत पर भरतचक्रवर्ती द्वारा बनवाये गये मन्दिर आज तक क्यों नहीं रहे ? जब कि वहां असंख्यात उद्धार हुए सुने जाते हैं ?
उत्तर :- प्रष्टापद का स्थान देवसान्निध्य होने से पाय ( उपद्रव ) रहित है। " जाव इमा प्रोसप्पिणित्ति " वसुदेव हिण्डी में इस प्रकार कहा है । अतः वहां के देवमन्दिर (चैत्यालय ) इतने समय तक विद्यमान रह सकते हैं ; यह उचित ही है ! शत्रुञ्जय का स्थान तो अपाय ( उपद्रव ) युक्त एवं भवितव्यता के वशसे एवं तथाविध देवसान्निध्य रहित है; अतः भरतचक्रवर्ती द्वारा बनवाये गये मन्दिर एवं प्रतिमायें इतने समय तक नहीं रह सकती यह सम्भव है । शेष तत्व तो तत्वज्ञ केवली हो जान सकते हैं । वसुदेव हिण्डी में तो इस प्रकार पाठ है ;यथा - " ततो ते जण्हुय भइया कुमारा पुरिसे आणवेंति गवेसह अतुलं । पत्रयं तितो तेहिं ततल्लो पत्रओ दिडो ति णिवेइयं ततो श्रमच्चं ते लवंति के वयं पुणकालं ययां विसज्जिस्सइ ततो तेण श्रमच्चे ण भणियं जान इमात्र सपिखित्ति इति मे केवलि जिला तिए सुयंति || "
इसके पश्चात् वे जहनु कुमार आदि प्रमुख कुमार पुरुषों को बुलाकर कहते हैं कि अष्टापद पर्वत के समान दूसरा पर्वत ढंढा ! तब उन पुरुषों ने गवेषणा कर कहा कि अष्टापद पर्वत के समान दूसरा कोई पर्वत नहीं है । तदनन्तर उन्होंने
मन्त्रियों से
Aho ! Shrutgyanam
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