________________
( २४ ) " यः सेवार्त्तसंहननी जघन्यवलो जीवस्तस्य परिणामोऽपि शुभोऽशुभो वा मन्द एव भवति, न तीव्रः, ततः शुभाशुभकर्मबन्धोऽपि तस्य स्वल्पतर एव, अतएव अस्य ऊर्ध्वगतौ कल्पचतुष्टयाद् ऊर्ध्वम् , अधोगतौ नरक-पृथ्वीद्वयाद् अध उपपातो न भवति इति प्रवचने प्रतिपादनात्, एवं कीलिकादि संहननेस्वपि
भावना कार्या इति एवमन्यत्रापि दृश्यम् । " - जो जीव सेवात संहनन एव जघन्य बल वाला होता है तो उसके परिणाम भी शुभ अथवा अशुभ दोनों ही मन्द होते हैं तीव्र नहीं इसलिये शुभ या अशुभ कर्म का बन्ध भो थोड़ा ही होता हैं । अतएव यह जीव ऊध्र्वगति में चार देवलोक तक तथा अधोगति में दो नरक तक जाता है अर्थात् वह उत्पन्न होता है । इस प्रकार प्रवचन में कहा है कि इसी आधार पर कीलिका प्रादि संघयण के सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये। प्रश्नः-१८-शरीर त्याग ( मृत्यु ) के समय जीव किस किस मार्ग
से निकल कर किस किस गति में जाता है ? उत्तर :-मृत्यु समय में जीव यदि पांवों से निकलता है तो नरक
में, जंघाओं से निकलने पर तिर्यग्गति में, हृदय से निकले तो मनुष्य गति में, मस्तक से निकलने पर देवगति में एवं सर्वाङ्गों से निकलने पर सिद्धि गति
(मोक्ष) में जाता है। श्री स्थानाङ्ग सूत्र के पञ्चम अध्ययन के तृतीय उद्देश्य में कहा भी हैयथा-पंच विहे जीव निज्जाण मग्गे, पं० तं० पायेहिं,
Aho ! Shrutgyanam