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( २० । --विपच्यमान तीर्थंकर नाम कर्म वाले देव के च्यवन काल में छः मास तक अत्यन्त सातावेदनीय का उदय होता है। प्रश्न-१३-उपशान्त मोहादि अर्थात् ११, १२, १३ गुणस्थान
त्रयवर्ती साधु, प्रकृति, स्थिति, रस एवं प्रदेश इन्ह चार प्रकार के बन्ध भेदों में किस प्रकार का कर्म
बन्धन करते हैं। उत्तर- उपर्युक्त गुणस्थान वर्तीसाधु प्रकृति से एक साता
वेदनीय कर्म ही बांधते हैं। क्योंकि उनमें कषायों का अभाव रहता है एवं कषायाभाव से स्थिति का अभाव रहता है और स्थिति के प्रभाव से बध्यमान कर्म ही निर्जरा को प्राप्त हो जाता है। इसीप्रकार रस से पंचानुत्तर वासी देवों के सुख से अधिक रस वाले कर्म बंधते हैं। एवं प्रदेश से स्थूल, रुक्ष, तथा शुक्लादि वर्ण वाला बहुप्रदेशी कर्म बंधता है ।
कहा भी है कि-- अप्पं बादर मउ बहुं च लुक्खं च मुक्किलं चेव । मंदं महव्ययंति य साता बहुलं च तं कम्मं ॥
-स्थिति के प्रभाव से अल्प, परिणाम से बादर, विपाक से मृदु, प्रदेश से अधिक प्रदेशी, स्पर्श से रूखा, रंग से श्वेत लेप से मन्द अर्थात् स्थूल चूर्रा की अत्यन्त घुटी हुई चिकनी भीत पर पड़े हुए लेप के समान महाव्ययो अर्थात् एक समय में ही नष्ट होने वाले अनुत्तर देवों से भी अधिक सुख वाले कर्म बंधते हैं। ____ यह अधिकार प्राचारांग सूत्र की टीका के दूसरे अध्ययन के प्रथम उद्देश्य में पाया है।
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