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मनुष्य स्त्रियाँ प्रदक्षिणा पूर्वक तीर्थङ्करादिकों को नमस्कार करके ईशान्य कोण में यथानुक्रम से खड़ो रहती हैं।
"जं च निस्साए त्तिय परिवारो"
-जो देव अथवा मनुष्य जिसके परिवार का होता है वह उसी के समीप खड़ा रहता है। इसके सम्बन्ध में अावश्यक सूत्र की टीका में भी कहा है, परन्तु उसमें इतना पाठ विशेष है :-- ___"अत्र च मूल टीकाकारेण भवनपति ज्योतिष्क-व्यन्तर देवीनां भवनपति ज्योतिष्क-व्यन्तर-वैमानिक देवानां मनुष्याणां मनुष्य स्त्रीणां च स्थानं निवीदनं वा स्पष्टाक्षरैनॊक्त स्थान मात्रमेव प्रतिपादितम् ।।"
इस प्रसङ्ग में मूल टीकाकार ने भवनपति, ज्योतिष्क, एवं व्यन्तर, देवों की देवियों के लिये, तथा भवनपति, ज्योतिष्क, व्यन्तर एवं वैमानिक देवों और मनुष्यों तथा मनुष्यस्त्रियों के लिये खड़ा रहना या बैठना ऐसा स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा है, केवल स्थान मात्र का उल्लेख किया गया है।
पुर्वाचार्यों के उपदेशों से लिखो गई पट्टिकाओं एवं चित्रों के देखने से यह मालूम होता है कि सभी देवियाँ बैठतो नहीं हैं, खड़ी रहती हैं एवं देव, मनुष्य तथा स्त्रियाँ बैठतो हैं। ___ श्री प्राचाराङ्ग सूत्र की वृति के छठे अध्ययन के प्रथम उद्देश्य में भी यह अधिकार संक्षिप्त में इस प्रकार है :
"उत्थिता द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतः शरीरेण भावतो ज्ञानादिभिः तत्र स्त्रियः समवसरणस्था उभयथा
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