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६/पाण्डुलिपि-विज्ञान
पाण्डुलिपि विषयक विज्ञान को आवश्यकता
- यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है और उठाया भी जा सकता है कि पांडुलिपियों का 'अस्तित्व' इतना पुराना है जितना कि लिपि या लम्बन का आविष्कार, किन्तु आज पांडुलिपि-विज्ञान की आवश्यकता का अनुभव क्यों नहीं किया गया? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है इसमें संदेह नहीं । इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार
आविष्कार की जननी आवश्यकता है उसी प्रकार विज्ञान की जननी भी किसी प्रकार की श्रावश्यकता ही है । इस विज्ञान की अावश्यकता तव ही अनुभव की गई जबकि वैज्ञानिक रष्ट्रि की प्रमुख ता हो गई । जिम युग में वैज्ञानिक दृष्टि प्रमुख होने लगती है उस युग में भक बात को वैज्ञानिक पद्धति से समझने का प्रयत्न किया जाता है । इसी प्रयत्न के फलस्वसप नये-नये विज्ञानों का जन्म होता है। यह वैज्ञानिक दृष्टि उम विषय पर पहले पडती है जो कि विविध परिस्थितियों के फलस्वरूप अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो सकता है । जैसे भाषा को लोग सहस्राब्दियों से उपयोग में लाते रहे और उसे एक व्यवस्थित प्रगाली से समझने के स्थूल प्रयत्न भी प्रारम्भ से होते रहे किन्तु विज्ञान का रूप उसने उस समय ग्रहण किया जबकि एक ओर तो औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप नये निर्माण और नये अनुसंधानों की प्रवृत्ति ने विज्ञान को प्रमुख आकर्षगा बना दिया। दूसरे, उपनिवेशवाद और वाणिज्य-विस्तार के कारण देश-विदेशों की विविध प्रकार की भाषाएँ मामने आयीं । उनका तुलनात्मक अध्ययन करना भी प्रावश्यक हो गया, और इसको तब और भी प्रोत्साहन मिला जबकि संस्कृत भाषा और साहित्य पाश्चात्य विद्वानों के सम्मुख प्राया। इन मबने मिलकर तुलनात्मक रूप से भाषाओं को समझने के साथ-साथ भाषाओं के वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता प्रस्तुत कर दी। तब से भाषा का विज्ञान निरन्तर प्रगति करता हया आज भाषिकी या लिंग्विस्टिक्स (Linguistics) के नये रूप में एक प्रकार से पूर्ण. विज्ञान बन चुका है । इसी प्रकार पाठालोचन की जब आवश्यकता प्रतीत हुई और विविध ग्रन्थों का पाठालोचन प्रस्तुत करना पड़ा तो उसके भी विज्ञान की आवश्यकता प्रतीत हुई । फलतः अाज पाठालोचन का भी एक विज्ञान बन गया है । यह पहले साहित्य के क्षेत्र में कविता के शुद्ध रूप तक पहुंचने के साधन के रूप में पाया फिर यह भाषा विज्ञान की एक प्रशाखा के रूप में पल्लवित हुआ । अब यह एक स्वतन्त्र विज्ञान है । यही स्थिति पांडुलिपि-विज्ञान की है । अाज भारत में अनेक प्राचीन हस्तलेख एवं पांडुलिपियाँ उपलब्ध हो रही हैं । शतशः हस्तलेख भण्डार, निजी भी और संस्थानों के भी, इधर कुछ वर्षों में उद्घाटित हुए हैं । अतः पांडुलिपियाँ भी यह अपेक्षा करने लगी हैं कि उनकी समस्याओं को भी समग्रतः अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया जाय । इस आवश्यकता को अनुभव करते हुए अभी कुछ वर्ष पूर्व भारतवर्ष में संस्कृत-साहित्य-सम्मेलन ने पांडुलिपिविज्ञान की आवश्यकता अनुभव की और एक प्रस्ताव पारित किया कि विश्वविद्यालयों में पांडुलिपिविज्ञान भी अध्ययन का एक विषय होना चाहिए । अतः आज पांडुलिपि विज्ञान की उपादेयता सिद्ध हो चुकी है । इसका महत्त्व भी कम नहीं है क्योंकि शायद ही कोई विश्वविद्यालय ऐसा हो कि जिसमें पांडुलिपियों का संग्रह न हो । नई परिभाषा में सरकारी कार्यालयों और संस्थाओं एवं संस्थानों के कागज पत्र भी पांडुलिपि हैं । इनके भण्डार दिनदिन महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं । जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है कि देश भर में पुराने और नये शतशः हस्तलेख और पांडुलिपियों के भण्डार फैले हुए हैं और बहुत से नये-नये
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