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और बुद्धि की मन्दता दूर हो कर विचार-शक्ति का विकास होता है । सुख-दुःख- तितिक्षा अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार के संयोगों में समभाव से रहने की शक्ति कायोत्सर्ग से प्रकट होती है । भावना और ध्यान का अभ्यास भी कायोत्सर्ग से ही पुष्ट होता है । अतिचार का चिन्तन भी कायोत्सर्ग में ठीकठीक हो सकता है । इस प्रकार देखा जाय तो कायोत्सर्ग बहुत महत्त्व की क्रिया है ।
कायोत्सर्ग के अन्दर लिये जाने वाले एक श्वासोच्छ्वास का काल-परिमाण श्लोक के एक पाद के उच्चारण के काल-परिमाण जितना कहा गया है ।
(६) त्याग करने को 'प्रत्याख्यान' कहते हैं । त्यागने योग्य वस्तुएँ (१) द्रव्य और (२) भाव- रूप से दो प्रकार की हैं । अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुएँ द्रव्यरूप हैं और अज्ञान, असंयम आदि वैभाविक परिणाम भावरूप हैं । अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुओं का त्याग अज्ञान, असंयम आदि के द्वारा भावत्याग - पूर्वक और भावत्याग के उद्देश्य से ही होना चाहिये । जो द्रव्यत्याग भावत्याग-पूर्वक तथा भावत्याग के लिये नहीं किया जाता, उससे आत्मा को गुण- प्राप्ति नहीं होती ।
(१) श्रद्धान, (२) ज्ञान, (३) वन्दन, (४) अनुपालन, (५) अनुभाषण और (६) भाव, इन छह शुद्धियों के सहित किये जाने वाला प्रत्याख्यान शुद्ध प्रत्याख्यान है (आ०, पृ० १५) ।
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